पेरिस स्थित रिपोट्र्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने जब अपना वल्र्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स-2019 जारी किया है। इसमें दिखाया गया कि पत्रकारिता करने में स्वतंत्रता के क्षेत्र में भारत की रैंकिंग 180 देशों में 140 के कमज़ोर स्तर पर पहुँच गयी है, फिर भी इसे हल्के में लिया गया। इस इंडेक्स के बाद 29 अक्टूबर, 2019 को जारी कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट (सीपीजे) का 2019 ग्लोबल इम्पुनिटी इंडेक्स आया और फिर 23 दिसंबर, 2019 को दो पत्रकारों- गीता सेशु और उर्वशी सरकार की जारी एक अध्ययन रिपोर्ट सामने आयी- गेटिंग अवे विद मर्डर्स। हाल के वर्षों में भारत में पत्रकारिता एक खतरनाक पेशा बन गया है और मीडियाकर्मियों को ज़मीन हड़पने, भ्रष्टाचार, शैक्षिक भ्रष्टाचार और रेत, पत्थर, शराब, लकड़ी और पानी टैंकर और तेल जैसे मािफया गिरोहों द्वारा की जाने वाली अवैध गतिविधियों की खोजी रिपोट्र्स के लिए जान गँवानी पड़ी है।
साल 2014 से 2019 की अवधि के दौरान पत्रकारों पर कम-से-कम 198 गम्भीर हमले दर्ज किये गये और इनमें से 36 अकेले 2019 में हुए। इनमें से छ: हाल के हैं, जो नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर विरोध प्रदर्शन के दौरान हुए हैं। कम-से-कम 40 पत्रकार मारे गये, जिनमें से 21 में उनके पत्रकारिता कार्य से सम्बन्धित होने की पुष्टि की गयी। पत्रकार गीता शेशु और उर्वशी सरकार के अध्ययन को ठाकुर फाउंडेशन की तरफ से वित्त पोषित किया गया था; उन्होंने जाँच के लिए 63 मामलों को चुना। इस खोजी पत्रकारिता करते हुए वे हमलों के शिकार भी हुए और इनमें हमलावरों को सज़ा की दर शून्य थी।
इसमें पाया गया कि जिन 63 मामलों का अध्ययन किया गया, उनमें केवल 25 मामलों में एफआईआर दर्ज की गयी। इनमें से 18 में एफआईआर दर्ज होने के बाद मामले आगे नहीं बढ़े हैं। आरोप पत्र तीन मामलों में दायर किये गये थे; लेकिन इसके बाद प्रक्रिया ठप हो गयी। केवल चार मामलों में से एक में ट्रायल शुरू हुआ है।
अधिकांश जान गँवाने वाले पत्रकारों के मामले छोटे शहरों और गाँवों से जुड़े हुए थे। यह पत्रकार क्षेत्रीय मीडिया के साथ संवाददाता या स्ट्रिंगर के रूप में काम करते थे। वे भ्रष्टाचार, कारोबारियों की गैर-कानूनी गतिविधियों, शक्तिशाली राजनेताओं, पुलिस और सुरक्षा बलों की गैर-कानूनी गतिविधियों के प्राथमिक समाचार संग्रहकर्ता, पत्रकार और संदेशवाहक हैं। शक्तिशाली अपराधी गिरोह राजनीतिक संरक्षण से कानून की धज्जियाँ उड़ाते हैं; जबकि कानून-प्रवर्तक और नागरिक प्रशासन इस आपराधिक गतिविधि में या तो उदासीन हैं या खुद इसमें सहभागी है।
व्यापक भ्रष्टाचार और अनियमिताओं और देश भर में बड़े पैमाने पर रेत खनन जैसी गैर-कानूनी गतिविधियाँ पर रिपोट्र्स राजनीतिक सत्ता, आपराधिक एजेंटों और जटिल कानून लागू करने वाले अधिकारियों के संगठित नेटवर्क से खूनी प्रतिशोध को आमंत्रित करती हैं। 29 अक्टूबर, 2019 को जारी किये गये सीपीजे का 2019 ग्लोबल इंपुनिटी इंडेक्स में ऐसे देशों पर प्रकाश डालता है, जहाँ पत्रकार मारे जाते हैं और उनके हत्यारे मुक्त हो जाते हैं। 31 अगस्त, 2019 को समाप्त हुए 10 साल की सूचकांक अवधि के दौरान, दुनिया भर में 318 पत्रकारों की उनके काम के लिए हत्या कर दी गयी। इनमें से 86 फीसदी मामलों में अपराधियों पर सफल मुकदमा नहीं चलाया गया। सीपीजे ने पिछले साल 85 फीसदी मामलों में पाया कि आरोपियों को अपराधमुक्त कर दिया गया।
पिछले कई वर्षों से भारत सबसे अधिक पत्रकार मृत्यु की श्रेणी वाले देशों में एक है। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स ने पत्रकारों के लिए भारत को आठवें सबसे खतरनाक देश के रूप में सूचीबद्ध किया है। इसमें पत्रकार गौरी लंकेश की गोली मारकर बेरहमी से हत्या करने की घटना का ज़िक्र किया गया है। रिपोट्र्स विदाउट बॉर्डर्स ने कहा है कि भारत में पत्रकार कट्टरपंथी राष्ट्रवादियों के ऑनलाइन ज़हरीले प्रचार अभियानों के निशाने पर हैं, जिसमें उन्हें अपमानित किया जाता है और यहाँ तक कि शारीरिक प्रतिशोध की धमकी भी दी जाती है।
गौरी लंकेश हत्याकांड मामले में विशेष जाँच दल (एसआईटी) ने नवंबर, 2018 में 18 व्यक्तियों के िखलाफ 9,235 पन्नों की चार्जशीट दायर की। हालाँकि, इस मामले में बहुत अधिक समय लगने की सम्भावना है; क्योंकि षड्यंत्रकारियों को दो तर्कवादियों की पहले की हत्याओं से जोड़ा गया है और उनके पास इस मामले को खत्म करने की तैयारी कर रहे वकीलों की एक बड़ी फौज है।
26 मार्च, 2018 को 24 घंटे के भीतर योजनावद्ध हिट-एंड-रन मामलों में तीन भारतीय पत्रकारों की हत्या कर दी गयी। मध्य प्रदेश में शक्तिशाली रेत माफिया की जाँच कर रहे न्यूज वल्र्ड के संदीप शर्मा की हत्या कर दी गयी थी। वहीं दैनिक भास्कर के पत्रकार नवीन निश्चल की बिहार में 26 मार्च, 2018 को हत्या कर दी गयी। दूरदर्शन के अच्युतानंद साहू भी 30 अक्टूबर, 2018 को नक्सलवादियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ के दौरान क्रॉसफायर में शहीद हो गये। गीता शेशू और उर्वशी सरकार के पत्रकारों की हत्या और हमलों पर किये गये अध्ययन में पाया गया कि हमलावरों या आरोपियों पर दोष सिद्ध होने का प्रतिशत करीब-करीब शून्य है, जिसका कारण राजनीतिक सत्ता और कानून-प्रशासन के बीच अक्सर रहने वाली बहुत मज़बूत साँठगाँठ है और यही ताकतें जाँच से जुड़े अधिकारियों के साथ मिलकर मामलों को कमज़ोर करा देती हैं। अन्य मामलों में जाँच एजेंसियाँ या तो उदासीन हैं या सह-अपराधी। इससे नतीजतन मामलों में सज़ा की दर बेहद कम है। साल 2010 के बाद से उनके पेशे से जुड़े काम के कारण पत्रकारों की मौतों के 30 से अधिक मामले सामने आये हैं। इनमें से केवल तीन मामलों में दोष सिद्ध किया जा सका।
महिला पत्रकारों पर हमले
महिला पत्रकारों पर हुए हमलों में ऑनलाइन उत्पीडऩ के ज़्यादातर मामले हैं। उन्हें मौत और बलात्कार की धमकियों का सामना करना पड़ा है। भय पैदा करने या अपराध के नज़रिये से उनका पीछा किया गया और उनके निजी डॉटा को ऑनलाइन शेयर किया गया है। उत्पीडऩ की लिंग प्रकृति पर काफी ध्यान केंद्रित किया गया है। रिपोर्ट बताती है कि अक्सर अपनी राय और अपने काम के लिए महिला पत्रकारों को कलंकित किया जाता है या उनका यौन शोषण होता है। गम्भीर और लगातार ऑनलाइन उत्पीडऩ के अलावा इस क्षेत्र में महिला पत्रकारों को ऑफलाइन भी उत्पीडऩ के लिए लक्ष्य किया जा रहा है। साल 2012 में अरुणाचल टाइम्स की सम्पादक टोंगम रीना एक जघन्य हमले में बाल-बाल बच गयीं, जबकि 2017 में गौरी लंकेश को दक्षिणपंथी हिन्दूवादी संगठनों के सदस्यों ने अपनी राजनीति के िखलाफ उनके मज़बूत अभियान के लिए मार दिया।
शिलॉन्ग टाइम्स की संपादक पैट्रिशियन मुकीम के आवास पर पेट्रोल बम से हमले हुए। बस्तर की पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम को प्रताडि़त किया गया। संध्या रविशंकर और एम. सुचित्रा पर अवैध रेत खनन का भंडाफोड़ करने को लेकर हमले हुए। ये तो हमारे सामने गिने-चुने ही उदाहरण हैं, अगर पत्रकारों पर हमले के सभी मामले देखें, तो लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के सिपहसालारों की सुरक्षा को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा पुलिस प्रशासन पर सीधे-सीधे उँगली उठती है। दु:ख इस बात का है कि पत्रकारों की वीभत्स हत्याओं, उत्पीडऩ, यौन उत्पीडऩ और हमलों के बाद भी न तो केंद्र सरकार ने, न राज्य सरकारों ने, न पुलिस प्रशासन ने और न ही न्यायालयों ने इस ओर खास ध्यान दिया है।
खास बातें
सन् 2014-19 के बीच 40 पत्रकारों की हत्या हुई। इनमें से 21 को पत्रकारिता कार्य के कारण जान गँवाने की पुष्टि की गयी है।
सन् 2010 में 30 से अधिक पत्रकारों की हत्याओं में से केवल एक मामले में दोषी को सज़ा हो सकी।
यह तीन मामले 2011 में मारे गये जेडे, 2012 में राजेश मारे गये मिश्रा और 2014 में मारे गये तरुण आचार्य से सम्बन्धित हैं। चौथे मामले में पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की 2002 में हुई मौत है; जिसमें मुख्य आरोपी डेरा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को उम्र कैद की सज़ा देने में पूरे 17 साल लग गये।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014-19 के बीच की अवधि में पत्रकारों पर हमलों के 198 मामले सामने आये, जिनमें केवल 2019 में 36 मामले शामिल हैं।
इसके अलावा पत्रकारों को गोली मारी गयीं। पैलेट गन से उन्हें अन्धा कर दिया गया। कइयों को ज़बरदस्ती शराब, यहाँ तक कि मूत्र पीने को विवश किया गया या उन पर पेशाब किया गया। लात- घूँसों से मारा गया। उनका पीछा किया गया या उनके घरों पर पेट्रोल बम फेंके गये और कई बार तो उनकी बाइक के पेट्रोल पाइप तक कट दिये गये।
संघर्ष या समाचार घटनाओं को कवर करने वाले पत्रकारों का उत्पीडऩ ने केवल चरमपंथियों, अपाराधियों ने किया, बल्कि धार्मिक गुटों के समर्थकों, राजनीति से जुड़े लोगों, छात्र समूहों, वकीलों, पुलिस और यहाँ तक कि सुरक्षा बलों ने भी किया।
इस क्षेत्र में महिला पत्रकारों पर हमले बढऩे की बात सामने आयी है। उन महिला पत्रकारों पर भी लक्षित हमले हुए, जिन्होंने सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की घटना को कवर किया। यह हमले निरन्तर हुए और वीभत्स थे। इस रिपोर्ट में महिला पत्रकारों पर हमलों के 19 व्यक्तिगत हमलों को सूचीबद्ध किया गया है।
हत्याओं और हमलों के आरोपियों में सरकारी एजेंसियाँ, सुरक्षा बल, राजनीतिक दल के सदस्यों, धार्मिक संप्रदायों, छात्र समूह, आपराधिक गिरोह और स्थानीय माफिया तक शामिल हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 63 मामलों में से केवल 25 मामलों में एफआईआर दर्ज की गयी है, जबकि इनमें से भी 18 मामलों की एफआईआर को आगे नहीं बढ़ाया गया है।
अन्य 18 मामलों में पत्रकारों की शिकायतें तो दर्ज कर ली गयीं, लेकिन किसी भी मामले में एफआईआर दर्ज नहीं की गयी। वहीं तीन मामलों में काउंटर शिकायतें दर्ज की गयी हैं। कुल 12 मामलों में कोई जानकारी ही नहीं है। यहाँ तक कि पीडि़त पत्रकारों को भी नहीं बताया गया कि उन पर हुए हमलों की शिकायत के बाद मामले का क्या हुआ?