16 मार्च को जब वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी बजट पेश कर चुके थे और टीवी चैनलों पर इस बात की मायूसी दिख रही थी कि उन्होंने आयकर की मानक रियायतें उतनी नहीं बढ़ाईं जितनी बढ़ानी चाहिए थीं या फिर दो फीसदी सर्विस टैक्स जोड़ दिया जिसकी वजह से लोगों के रेस्टोरेंट से लेकर हवाई जहाज के टिकट तक का खर्च कुछ बढ़ जाएगा, तभी दिल्ली से सैकड़ों मील दूर मीरपुर में बांग्लादेश के खिलाफ खेल रहे सचिन तेंदुलकर अपने उस शतक या महाशतक की तरफ बढ़ते नजर आए जिसका बाजार को काफी बेसब्री से इंतजार था. सचिन के 80 रन तक पहुंचते-पहुंचते टीवी चैनलों का मिजाज बदलने लगा था और नीचे पट्टियां चल पड़ी थीं- सचिन अपने सौवें शतक के करीब. पसीना शायद सचिन के माथे पर भी आ रहा होगा क्योंकि उन्हें बाजार की उस अपेक्षा पर खरा उतरना था जिसके करीब पहुंच-पहुंच कर पिछले कई मौकों पर वे आउट हो चुके थे.
आखिरकार यह शतक पूरा हुआ और टीवी चैनल बजट भूल गए- वह लम्हा आ चुका था जिसकी वे साल भर से राह देख रहे थे और जिसके लिए उन्होंने काफी तैयारी कर रखी थी. इन दिनों सचिन जो भी टेस्ट या वनडे खेलते, उसके पहले अखबारों और चैनलों पर यह चर्चा जरूर होती कि सचिन तेंदुलकर अपना सौवां शतक पूरा कर पाएंगे या नहीं. क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया ने ऐसे मौके पर सचिन को भेंट करने के लिए बाकायदा एक ट्रॉफी तैयार करवाई थी जो हर मैच के साथ शहर-दर-शहर घूमती रही- यह अलग बात है कि सचिन वहां शतक नहीं पूरा कर पाए.
इसलिए जब सचिन का शतक पूरा हुआ तो बजट बिल्कुल पीछे छूट गया. खुद को बहुत संजीदा मानने वाले चैनलों ने भी शाम के पहले से निर्धारित बजट कार्यक्रम आधे कर दिए. अगली सुबह अखबारों में भी सचिन तेंदुलकर का शतक बजट पर हावी दिखा- कम से कम हिंदी अखबारों में. कुछ अखबारों ने सचिन और बजट को मिलाने की कोशिश की- ‘बजट सो सो, सचिन के सौ सौ’ या फिर ‘दिल लिया दर्द दिया’ जैसे शीर्षक चिपकाए और उनके साथ तरफ प्रणब मुखर्जी और सचिन तेंदुलकर की तस्वीर लगाई. असली कमाल ‘राजस्थान पत्रिका’ ने किया जिसका पहला पेज उस दिन ताश के पत्तों की तरह दोनों तरफ से छपा. ऊपर सचिन के शतक की खबर छापी गई और फिर उलटी तरफ से बजट की खबर लगाई गई- यानी उसे पढ़ने के लिए पेज को उलटना पड़ता. कुछ अखबारों- जिनमें झारखंड का सबसे संजीदा माना जाने वाला और खुद को सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध बताने वाला ‘प्रभात खबर’ जैसा अखबार भी शामिल है- पहले पन्ने पर सिर्फ सचिन दिखे.
क्या महज डेढ़-दो दशक पहले तक बजट और क्रिकेट को लेकर अखबारों के इस रवैये की कल्पना की जा सकती थी? उस दौर में शायद किसी आम दिन भी सचिन का तथाकथित महाशतक ज्यादा से ज्यादा पहले पेज के निचले हिस्से या फिर किनारे की खबर बनता और अगर वह बजट का दिन होता, तो बेशक, खेल के पन्ने पर धकेल दिया जाता.
यह शून्य उसे खलता नहीं क्योंकि इस पर उस तथाकथित सफलता का मुलम्मा चढ़ा होता है जो उसने पैसेवाला बनकर पाई है
तो इन दशकों में ऐसा क्या बदला है कि बजट जैसी संजीदा चीज पीछे चली गई और सचिन का महाशतक आगे आ गया? क्या हमारा मीडिया ज्यादा व्यावहारिक और सयाना हो गया है जिसने पुरानी बौद्धिकता का लबादा फेंककर व्यावसायिकता की नई जरूरतों का निर्वाह करना शुरू कर दिया है? या फिर आज का समाज कुछ ऐसा हो गया है जिसे बजट से ज्यादा महत्वपूर्ण सचिन तेंदुलकर का शतक लगने लगा है?
असल में यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि इन पंद्रह-बीस वर्षों में भारत में एक ऐसा खाता-पीता और संपन्न समाज पैदा हुआ है जिसे लगातार जश्न मनाने के अवसर चाहिए. आम तौर पर हम उसके आय वर्ग के हिसाब से इस समाज को उच्च मध्यवर्गीय समाज मान लेते हैं, जबकि मध्यवर्ग की जो पारंपरिक पहचान थी उससे यह नितांत भिन्न है. दरअसल वह अपने चरित्र में मध्यवर्गीय नहीं बचा है, उपभोक्तावादी हो चुका है. वह खूब पैसे कमाना चाहता है चाहे जिन माध्यमों से आए और खूब जश्न मनाना चाहता है, चाहे जैसे मनाए. मुश्किल यह है कि अच्छे पैसे कमाने लायक रोजगार या उद्यम को समर्पित और उसे ही अंतिम लक्ष्य मानकर चलने वाली उसकी यह जीवन शैली अपनी निर्मितियों में इतनी थकी और अपने आप से ऊबी हुई होती है कि चाहे शाम की फुरसत हो या शनिवारों-इतवारों की छुट्टी, उसे किसी रोमांच की तलाश होती है जिसमें तत्काल उसका दिल लग जाए. यहां मद्धिम संगीत उसकी मदद नहीं करता, संयत सांस्कृतिक नृत्य उसे तृप्त नहीं करते, क्रिकेट का शास्त्रीय रूप- यानी टेस्ट क्रिकेट उसे नहीं भाता, कोई धीरे-धीरे पढ़ी जा सकने वाली किताब उसे अच्छी नहीं लगती, और इतने लंबे लेख देखकर भी वह डर जाता है, जो इस कॉलम में छपा करते हैं.
यह सांस्कृतिक शून्य उसे खलता नहीं क्योंकि इस पर उस तथाकथित सफलता का मुलम्मा चढ़ा होता है जो उसने पैसेवाला बनकर अर्जित की है. अब इस पैसे से वह अपने जीवन और सांस्कृतिक पर्यावरण की शर्तें तय करने लगता है. यहां अचानक हम पाते हैं कि बाजार भी उसकी मदद के लिए खड़ा है और बाजार में घुसा मीडिया भी. वह नए-नए ‘इवेंट’ बनाता है और उसे उसके नए ‘सोशल स्टेटस’- सामाजिक रुतबे या हैसियत के लिए जरूरी बताता है. यहीं क्रिकेट का आईपीएल संस्करण आता है और अपने साथ भारत बंद का एलान करता हुआ आता है. यहीं अण्णा हजारे का आंदोलन भी उसके लिए एक ‘इवेंट’ हो उठता है जिसे ऑनलाइन सपोर्ट करके वह अपनी खोई हुई सामाजिकता का फिर से आविष्कार करना चाहता है. यहीं उसे अपने लिए ऐसे नायक चाहिए होते हैं जो उसे जीत का भरोसा दिलाएं.
इस वर्ग की बजट में बस इतनी ही दिलचस्पी होती है कि इससे उसका अपना खर्च कितना घटेगा या उसके अपने बिल कितने बढ़ेंगे. ध्यान से देखें तो अगर सचिन की सेंचुरी नहीं होती तब भी मीडिया में जो बजट आता, वह इसी आधार पर अच्छा या बुरा करार दिया जाता कि उसमें इस बनते हुए नौदौलतिया तबके के लिए पैसा बचाने या कमाने की कितनी गुंजाइश है. दरअसल टीवी चैनलों पर दोपहर तक बजट की जो खबर चली वह भी प्रणब मुखर्जी के भाषण के लाइव प्रसारण के बाद लगभग इन्हीं आशयों के आस-पास घूमती रही. दादा का बजट लोगों को रास नहीं आया तो इसलिए कि उनके मुताबिक दादा ने छूट कम दी, टैक्स बढ़ा दिए. कुछ ज्यादा समझदार समीक्षकों का निष्कर्ष था कि प्रणब मुखर्जी अगले बजट के लिए पैसा बचा रहे हैं- 2014 के चुनावों से पहले वे 2013 में ऐसा गुलाबी बजट पेश करेंगे जिसमें राहतें ही राहतें होंगी. दरअसल यह निष्कर्ष भी भारतीय मीडिया और विशेषज्ञता को लगे उस नए रोग की तरफ इशारा करता है जिसका इलाज सिर्फ आशावाद में खोजने का प्रयास होता है- यानी यह बजट गया तो गया, अगला बजट अपना ही होगा.
मुरलीधरन या शेन वॉर्न के विकेट टेस्ट मैचों और वनडे के अलग-अलग गिने जाते हैं. यह सिर्फ सचिन के रिकॉर्ड हैं जिन्हें बाजार जोड़कर दिखाने पर तुला है
सचिन के अरसे तक प्रतीक्षित महाशतक को रूपक की तरह देखें तो इस प्रवृत्ति को ठीक से समझने में मदद मिलती है. सचिन तेंदुलकर निश्चय ही एक महान खिलाड़ी हैं. क्रिकेट के गंभीर जानकार मानते हैं कि डॉन ब्रैडमैन के बाद दुनिया के जो सबसे बड़े बल्लेबाज हुए उनमें सचिन सबसे आगे होने का दावा कर सकते हैं और इस दावे को गिनती के दो-एक खिलाड़ी ही चुनौती दे सकते हैं. लेकिन जो बाजार क्रिकेट को भारत के नौदौलतिया तबके का इवेंट बनाने में जुटा है वह सीधे ब्रैडमैन और तेंदुलकर की तुलना करता है और इस तुलना के लिए तरह-तरह के आंकड़े खोजता और बनाता है. क्रिकेट और कई दूसरे विषयों के जानकार मुकुल केसवन ने हाल ही में बाजार की इस प्रवृत्ति की खिल्ली उड़ाते और कलई खोलते हुए एक दिलचस्प लेख लिखा और याद दिलाया कि टेस्ट मैचों और वनडे के रिकॉर्ड बिल्कुल अलग-अलग होते हैं और किसी दूसरे खिलाड़ी के संदर्भ में उनको मिलाकर याद नहीं किया जाता. यानी मुरलीधरन या शेन वॉर्न के विकेट टेस्ट मैचों और वनडे के अलग-अलग गिने जाते हैं. यह सिर्फ सचिन के रिकॉर्ड हैं जिन्हें बाजार जोड़कर दिखाने पर तुला है ताकि उसे एक नंबर मिले और महाशतक लगाने वाले सचिन को आत्मतुष्ट-आत्ममुग्ध नए भारतीय मानस के महानायक के तौर पर बेचा जा सके.
लेकिन इस नायकत्व में सिर्फ जीत का तत्व होना चाहिए, हार का नहीं. इसलिए बाजार के ही मानकों पर बांग्लादेश के खिलाफ जिस वनडे में सचिन ने सौ शतकों का चरम हासिल किया, उसमें भारत की हार की खबर पीछे चली गई. सचिन के शतक का जश्न इतना बड़ा हो गया कि हार का जख्म भुला दिया गया.
जाहिर है, मीडिया ने न बजट के साथ न्याय किया, न क्रिकेट के साथ. सचिन के साथ भी नहीं, क्योंकि अगर यह मीडिया का दबाव नहीं होता तो सचिन तेंदुलकर शायद यह तथाकथित महाशतक पहले पूरा कर लेते. सचिन ने माना ही कि अचानक यह शतक उनके लिए बहुत भारी पड़ने लगा था और इसी के फौरन बाद उन्होंने भारतीय मीडिया में जीत के नए नायक के तौर पर उछाले जा रहे विराट कोहली को सलाह दी कि वे इनके दबाव में न आएं. इत्तिफाक से इन दिनों मीडिया यह रिकॉर्ड खोजने में जुटा है कि इस छोटी-सी उम्र में विराट कोहली किन-किनको पीछे छोड़कर वाकई विराट हो गए हैं.
बजट की अनदेखी और सचिन के जश्न में फिर एक रूपक खोजने की इच्छा हो रही है. व्यक्तिगत उपलब्धियों का स्तुतिगान, नए देवताओं का निर्माण और उनके लिए रची जा रही प्रार्थनाएं दरअसल अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से भागने और सामूहिक विफलता को ढकने की एक खोखली कोशिश भर हैं. यह बाजारवादी उत्तर आधुनिकता का भक्तिकाल है जिसमें बाजार के भाट और चारण वास्तविक युद्धों में परास्त नायकों की विरुदावलियां रच रहे हैं- वरना जो अवसर भारत की हार पर शोकगीत रचने का होना चाहिए था, उसमें सचिन का जयगान कैसे लिखा जा सकता था?