संसद, हम शर्मिंदा हैं

पहले कुछ दलित सांसदों के दबाव और बाद में लगभग पूरी संसद के शोर में जिस तरह एनसीईआरटी की राजनीति विज्ञान की ग्यारहवीं की किताब हटा लेने की त्वरित घोषणा हुई, वह सिर्फ शर्मनाक नहीं, सिहराने वाली भी है. कहना मुश्किल है कि यह सिर्फ दलित सांसदों की मांग थी या पूरी कांग्रेस की मंशा कि मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने बड़ी फुर्ती से न सिर्फ माफी मांग ली बल्कि पूरी किताब की ही जांच कराने की घोषणा भी कर दी. इस शोर में संसद ने अपने ही कई वरिष्ठ सांसदों की आवाज भी नहीं सुनी जो याद दिला रहे थे कि सहिष्णुता भी एक मूल्य है और किताब में प्रकाशित कार्टूनों को कहीं ज्यादा व्यापकता और गहराई से देखने की जरूरत है. दुर्भाग्य से हमारे समय की राजनीति जितने सपाट सरलीकरणों पर चल रही है, उसमें इस व्यापकता और गहराई का अवकाश दूर-दूर तक नजर नहीं आता. इसके नतीजे कितने खतरनाक हो सकते हैं, यह इस विवाद ने बताया है. वरना जो किताब अपनी नई तरह की प्रस्तुति और विषयवस्तु के लिए प्रशंसा की पात्र होनी चाहिए थी, उसे इस तरह प्रतिबंधित किए जाने की नियति नहीं झेलनी पड़ती. दरअसल जिस दौर में एनसीईआरटी दुनियाभर में शिक्षा को लेकर बदलते रवैये के साथ अपनी किताबों को ढालने में लगी थी और उन्हें एक आधुनिक रूप दे रही थी, उसी दौर में कई किताबों के साथ यह किताब भी तैयार की गई. नीरस मान ली गई पढ़ने-पढ़ाने की दुनिया में यह किताब एक रचनात्मक हस्तक्षेप की तरह आई.

इसमें शब्दों की एकरसता तोड़ती तस्वीरें थीं और ऐसे कार्टून जो राजनीति विज्ञान की सैद्धांतिकी के समानांतर उसकी व्यावहारिक और सच्ची समझ सुलभ कराते थे. जाहिर है, यह किताब इस नई और आधुनिक अवधारणा के बीच निकली थी कि शिक्षा ऐसी ठोस चीज नहीं है जिसे किसी किताब से उठाकर छात्रों में बांट दिया जाए. वास्तविक शिक्षा लगातार विचार-विमर्श और प्रयोगों के बीच आकार लेती है, वरना रटा हुआ ज्ञान परीक्षा में एक उपयोगितावादी भूमिका निभाने के बाद खत्म हो जाता है. इसी रटे हुए ज्ञान की मार्फत हमने प्रशासक, प्रबंधक, वैज्ञानिक, नेता सब पैदा किए, लेकिन वह प्रयोगशील, साहसी और अंतर्दृष्टि से भरा मनुष्य नहीं बना पाए जो प्रशासन, विज्ञान और राजनीति को नए मूल्य, नई चेतना और नए आविष्कार का सुख देता.

कांग्रेसी नेताओं ने देख लिया था कि किताब के ज्यादातर कार्टून तो उनके पुरखों पर हैं. इसलिए एक चतुर दांव खेलकर इसे कोर्स से हटा दिया गया

इसीलिए एनसीईआरटी ने ऐसी किताबें तैयार कीं जिनमें छात्रों के भीतर एक तरह की वैज्ञानिक चेतना विकसित हो, खुद सोचने-समझने का अभ्यास बने. यह किताब भी इसी परियोजना का हिस्सा थी और इत्तिफाक से यह पहली बार हुआ था जब किसी पाठ्य पुस्तक में अंबेडकर की ऐतिहासिक भूमिका के महत्व को ठीक से रेखांकित किया जा रहा था. लेकिन इतने सकारात्मक बदलावों से भरी, हमारी प्रजातांत्रिक चेतना को नए ढंग से गढ़ती यह किताब एक हल्ले के साथ प्रतिबंधित कर दी गई. इसे तैयार करने वाले पहले दलित विरोधी करार दिए गए और उसके बाद लोकतंत्र विरोधी, उन्हें खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया, उनके विरुद्ध कार्रवाई की मांग की गई. इस पूरे प्रसंग में दलित बुद्धिजीवियों की जो भूमिका रही, उसने जाने-अनजाने अंबेडकर को ही चोट पहुंचाई. तथाकथित श्रद्धा और आस्था की ब्राह्मणवादी शब्दावली के साथ वे समझाने में जुटे रहे कि यह कार्टून कैसे दलितों की भावनाओं पर चोट पहुंचाता है. जो बहस पूरी किताब पर चलनी चाहिए थी, वह शंकर के एक कार्टून पर ठिठक कर रह गई. किसी ने यह सोचना भी जरूरी नहीं समझा कि विधाओं के पाठ के अलग-अलग तरीके होते हैं. कविता अलग तरह से पढ़ी जाती है, निबंध अलग तरह से और कार्टून अलग तरह से. किसी ने यह भी नहीं देखा कि पूरी किताब में पाठ के समानांतर चलते करीब डेढ़ सौ कार्टून हैं जो जितना प्रहार अंबेडकर पर करते हैं, उससे कहीं ज्यादा नेहरू-गांधी परिवार पर. 

लेकिन जो कार्टून के खिलाफ खड़े बुद्धिजीवी नहीं देख पाए, वह कांग्रेसी नेताओं ने देख लिया. उन्हें फौरन समझ में आ गया कि किताब के ज्यादातर कार्टून तो उनके पुरखों पर हैं. इसलिए दलित सांसदों का गुस्सा खत्म करने के नाम पर ऐसी खतरनाक किताब सीधे कोर्स से हटा दी गई. लेकिन आत्मसमर्पण की मुद्रा में की गई इस चालाक राजनीति का खमियाजा वे बच्चे भुगतेंगे जिन्हें अब एक नियोजित- अच्छी-अच्छी बातें बताने वाला, लोकतंत्र के जड़ सिद्धांत रटाने वाला- राजनीति विज्ञान पढ़ना पड़ेगा. इसका खमियाजा हम और आप भुगतेंगे जो नेहरू से लेकर अंबेडकर तक- क्योंकि अगर नेहरू अंतर्विरोधों से घिरे हैं तो अंबेडकर के अंतर्विरोध भी कम नहीं हैं- किसी को हाथ लगाएंगे तो संसदीय सर्वानुमति से हमारे हाथ काट डाले जाएंगे. इसका खमियाजा वे दलित और आदिवासी भुगतेंगे जिन्हें यह कभी समझ में नहीं आएगा कि मौजूदा संसदीय लोकतंत्र उनके साथ कैसे-कैसे छल कर रहा है. 

रहा कार्टूनों को बच्चों की किताब में डालने का सवाल- तो ग्यारहवीं-बारहवीं के बच्चे 17-18 साल के होते हैं- यानी बालिग मतदाता होने की बिल्कुल दहलीज पर. क्या हम नहीं चाहते कि वे बालिग हों? कि वे जितना संसदीय राजनीति की अपरिहार्यता को समझें उतना ही उसके अंतर्विरोधों को, ताकि वे बेहतर नागरिक और संभव हो तो नेता भी बन सकें? कपिल सिब्बल ने जिसे लीगेसी- यानी विरासत- पर चोट कहा, दरअसल वह इसी डर के सैद्धांतिकीकरण की खोखली कोशिश के अलावा कुछ नहीं था. इसके पीछे वह डरी हुई दृष्टि छिपी नहीं रह पाती जो हर तरह की आलोचना से भागती है, कहीं भी कोई स्टैंड लेने से घबराती है, न मकबूल फिदा हुसेन को रोक पाती है, न तसलीमा नसरीन को ठीक से रख पाती है और न ही अपने विद्वानों का, अपने कार्टूनिस्ट का और अपने नेताओं और बच्चों का बचाव कर पाती है.