आधी आबादी। सुनने में यह शब्द अच्छा लगता है। लेकिन यदि संसद की ही बात करें, तो महिलाओं का प्रतिनिधित्व आधा तो दूर, नाम मात्र का ही है। स्थिति यह है कि भारत की लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज़ 14.3 फ़ीसदी है। जबकि पड़ोसी बांग्लादेश में यह 21 फ़ीसदी है। महिलाओं के प्रति भारतीय राजनीति में यह उदासीनता इस सन्दर्भ में भी महत्त्वपूर्ण है कि महिलाओं को 33 फ़ीसदी आरक्षण की बात काग़ज़ों में ही सिमटी है, अभी तक हक़ीक़त का जामा नहीं पहन पायी। ऐसे में प्रियंका गाँधी की उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 40 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को देने की पहल स्वागत योग्य कही जाएगी।
वैसे भारत में लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्त्व लगातार बढ़ा है। लेकिन यह संख्या अभी भी बहुत कम है। देश में महिलाओं की जैसी भागीदारी कारपोरेट या अन्य संस्थानों में बढ़ी है, उस लिहाज़ से देखें तो संसद में यह भागीदारी न के बराबर है। पहली लोकसभा में केवल 5 फ़ीसदी महिलाएँ थीं, जो अब इतने वर्षों में महज़ 14.3 फ़ीसदी हो पायी हैं। सन् 2019 के चुनाव में लोकसभा में 78 महिलाएँ चुनकर आयीं, जबकि लोकसभा के कुल सदस्यों संख्या 543 है।
बहुत-से लोग कहते हैं कि महिलाओं के लोकसभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्त्व नहीं होने का कारण निरक्षरता है। हालाँकि यह कारण सही नहीं है। संसद और विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व की बात छोड़ दें, तो लोकतंत्र के निचले संस्थानों में महिलाओं ने ख़ासा नाम किया है। पंचायतों, पंचायत समितियों और स्थानीय निकायों में चुनकर आयी महिलाओं ने जबरदस्त नेतृत्व किया है। यह सही है कि हमारे पुरुष प्रधान समाज में उन्हें काम करने नहीं दिया जाता। हालाँकि बहुत सारे मामलों में महिलाओं ने इन संस्थाओं में अपने अधिकारों का इस्तेमाल समाज की बेहतरी और विकास के कामों में किया है।
इस लैंगिक असमानता के बावजूद महिला नेतृत्व कई मामलों में उभरकर आया है। यह सब तब है, जब पुरुषों की तुलना में महिलाओं को परिवारों में ज़्यादा वक़्त देना होता है। राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर तो बहुत कुछ कहा जाता है; लेकिन जब बात टिकटों की आती है, तो पुरुष बाज़ी मार ले जाते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस की प्रदेश प्रभारी महासचिव प्रियंका गाँधी ने महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा एक बार फिर विमर्श में ला दिया है। उन्होंने कांग्रेस के 40 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को देने का ऐलान करके दूसरे दलों पर भी दबाव बनाया है। देखना दिलचस्प होगा कि क्या प्रियंका अपने इस वादे पर खरा उतर पाती हैं?
यह बार-बार कहा जाता रहा है कि राजनीतिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर होनी चाहिए। समय आ गया है, जब राज्य विधानसभा और संसदीय चुनावों में महिलाओं के लिए न्यूनतम प्रतिशतता सुनिश्चित की जाए और मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल इसकी पहल करते हुए बाक़ायदा भारत के निर्वाचन आयोग के प्रस्ताव (गिल फार्मूला) को लागू करें। यह भी ज़रूरी है कि देश में महिलाओं को संसद में 33 फ़ीसदी भागीदारी का क़ानून संसद में पास करके इसे अनिवार्यता के दायरे में लाया जाए, ताकि जो पार्टी इस पर अमल करने में विफल रहे, उस पर मान्यता रद्द होने की तलवार टँगी रहे। इसके लिए देश में समानता का माहौल बनाना भी आवश्यक होगा।
‘तहलका’ की जुटायी जानकारी के मुताबिक, देश में कुल 543 लोकसभा सीटों में से 48.4 फ़ीसदी में सन् 1962 के बाद कभी कोई महिला लोकसभा का चुनाव जीतकर नहीं आयी। यह सही है कि महिलाओं की रुचि कम रही है और इसका एक बड़ा कारण उत्पीडऩ का भय भी है। यह आम धारणा हमारे समाज में है कि महिलाओं के लिए राजनीति कोई सम्मानजनक पेशा नहीं। हालाँकि समय-समय पर महिलाओं ने बताया है कि उन्हें भी सम्मानजनक तरीक़े से काम करने का अधिकार है। भारत की संसद में भी महिलाओं ने कई ज्वलंत मुद्दों को उतनी की शिद्दत से उठाया है, जितना उनके समकक्ष पुरुष उठाते रहे हैं। देश में महिला आरक्षण की काफ़ी कोशिश होती रही है। सन् 1998 में पहली बार इस दिशा में बड़ी कोशिश तब हुई, जब लोकसभा में 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण की बात हुई। यह भी कहा गया कि कुछ सीटों को चक्र क्रम में आरक्षण रूप में दिया जा सकता है। हालाँकि इसके बाद इस पर कोई ख़ास काम नहीं हुआ। लेकिन यूपीए जब सत्ता में आयी, तो ख़ासकर इसकी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने महिलाओं को आरक्षण देने के मद्दे पर बहुत दिलचस्पी दिखायी। उन्होंने इसे पार्टी के घोषणा पत्र में शामिल किया।
यूपीए के ही समय में सन् 2010 में महिला आरक्षण का विधेयक बाक़ायदा राज्यसभा में पेश किया गया। इसे पास भी करवा लिया गया। सोनिया गाँधी ने अपने सांसदों से कहा भी कि वे देश की जनता को भी इससे अवगत करवाएँ। बहुत दिलचस्प बात यह है कि यह मामला लटका रह गया। यूपीए के सपा, राजद जैसे घटक इस विधेयक के पक्ष में नहीं थे।
पुरानी बात करें, तो सन् 1974 संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा देश में महिलाओं की स्थिति के आकलन सम्बन्धी समिति की रिपोर्ट में पहली बार उठाया गया था। इसमें राजनीतिक इकाइयों में महिलाओं की कम संख्या का ज़िक्र करते हुए पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने का सुझाव दिया गया था। इसके बाद सन् 1993 में संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के तहत पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया गया।
इसके बाद 1996 में महिला आरक्षण विधेयक पहली बार देवगौड़ा सरकार के समय संसद में पेश किया गया। उस समय 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में इसे संसद में लाया गया था। हालाँकि बाद में देवगौड़ा सरकार अल्पमत में आ गयी और लोकसभा भंग होने के बाद यह मामला फिर लटक गया। लेकिन इस विधेयक को गीता मुखर्जी की अध्यक्षता वाली संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष भेजा गया, जिसने दिसंबर, 1996 में इस पर लोकसभा में रिपोर्ट पेश की।
हालाँकि जून, 1998 में वाजयेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश किया। लेकिन पूरी सम्भावना के बावजूद यह विधेयक पास नहीं हो पाया। जब नवंबर, 1999 में एनडीए वाजपेयी के नेतृत्व में सत्ता में फिर वापस आ गयी, तो फिर महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा में पेश किया गया। दुर्भाग्य से सरकार फिर सफल नहीं हो पायी। सत्ता में रहते हुए वाजपेयी सरकार यह विधेयक सन् 2002 और सन् 2003 में फिर लायी; लेकिन पास नहीं हो सका। महिला आरक्षण विधेयक के पास होने की सम्भावना सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाले यूपीए के सत्ता में आने के बाद काफ़ी मज़बूत बनी; क्योंकि सोनिया गाँधी ख़ुद महिला आरक्षण की मुखर समर्थक रही हैं।
यूपीए ने सत्ता में आते ही अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम (सीएमपी) में महिला आरक्षण विधेयक पारित करने को प्रमुखता से जोड़ा। यूपीए के समय पहली बार मई, 2008 में महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पेश हुआ और उसे क़ानून और न्याय से सम्बन्धित स्थायी समिति के पास भेजा गया। दिसंबर, 2009 में स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट पेश की। हालाँकि सपा, जदयू और राजद ने इसका जबरदस्त विरोध किया। अगले ही साल फरवरी में तब की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने संसद में अपने अभिभाषण में महिला आरक्षण विधेयक पारित करने की प्रतिबद्धता दोहरायी। फरवरी में ही मंत्रिमंडल ने महिला आरक्षण विधेयक को पास किया और मार्च, 2010 के बजट सत्र में महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया। लेकिन इस पर राज्यसभा में ख़ूब हंगामा हुआ।
मुलायम सिंह यादव की एसपी और लालू प्रसाद यादव की राजद ने यूपीए से समर्थन वापस लेने की धमकी दे दी। लेकिन इसके बावजूद 9 मार्च, 2010 को कांग्रेस ने भाजपा, जदयू और वामपंथी दलों के सहारे राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक बड़े बहुमत से पास करवा लिया। हालाँकि इसे लोकसभा में पेश ही नहीं किया गया। इस तरह मामला लटक गया और आज तक लटका हुआ है। इसके बाद सन् 2017 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने इसे लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखी थी, जिसमें उन्होंने आग्रह किया था कि महिला आरक्षण के विधेयक पर आगे बढ़ा जाना चाहिए। हालाँकि उसके बाद इस पर काम नहीं हो पाया।
हमारी संसद में महिलाएँ
लोकसभा चुनाव 2019 में 78 महिलाएँ लोकसभा में जीतकर पहुँची। इनमें सबसे ज़्यादा 40 भाजपा के टिकट पर जीतीं। इस चुनाव में जो 78 महिलाएँ जीतीं उनमें से 27 पहले भी सांसद बन चुकी थीं। उत्तर प्रदेश और बंगाल से सबसे ज़्यादा 11-11 महिला सांसद चुनी गयी थीं। वैसे 2019 लोकसभा चुनाव में कुल 8049 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे; जिनमें 724 महिला उम्मीदवार थीं। हालाँकि इनमें से 78 ही चुनाव जीत पायीं।
इस चुनाव में कांग्रेस ने सबसे ज़्यादा 54, जबकि भाजपा ने 53, बसपा ने 24, टीएमसी ने 23, माकपा ने 10, भाकपा ने चार महिलाओं को और एनसीपी ने एक महिला को उम्मीदवार बनाया था। वहीं 222 महिलाएँ निर्दलीय के चुनाव मैदान में उतरी थीं। भाजपा की ही सबसे ज़्यादा महिला सांसद हैं; जबकि कांग्रेस की एक ही सांसद सोनिया गाँधी हैं।
अन्य देशों की संसदों में महिलाओं का फ़ीसद
रवांडा : 61 फ़ीसदी
दक्षिण अफ्रीका : 43 फ़ीसदी
ब्रिटेन : 32 फ़ीसदी
अमेरिका : 24 फ़ीसदी
बांग्लादेश : 21 फ़ीसदी
फ्रांस : 39.7 फ़ीसदी
जर्मनी : 30.9 फ़ीसदी