स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता हो या मन के भीतर की अनजानी-अनगिनत परतें कृष्ण बलदेव वैद का लेखन इन चुनौतियों से होकर गुजरता है. और सहज ही है कि विवाद उनका पीछा नहीं छोड़ते. ‘उसका बचपन‘ और ‘गुजरा हुआ जमाना‘ जैसे उपन्यासों तथा ‘बदचलन बीवियों का द्वीप‘ जैसी कहानियों के लिए जाने जानेवाले वैद से रेयाज उल हक की बातचीत
आपकी दो किताबें हाल में प्रकाशित हुई हैं. आप इतने लंबे समय से लिखते आए हैं और इस उम्र में भी लिख रहे हैं. इस रचनात्मक सक्रियता का स्रोत क्या है?
दोनों किताबें नई नहीं हैं. इनमें से ‘प्रवास गंगा’ पहले भी छप चुकी है. अभी पेंगुइन ने पांच लंबी कहानियों की सीरीज शुरू की है तो इस सिलसिले में यह दोबारा प्रकाशित हुई है. लेकिन आपने सही कहा. खुशकिस्मती से लिखना बंद नहीं हुआ है. सक्रियता तो घिसा-पिटा शब्द है. सिर्फ एक्टिव नहीं हैं- दौड़ रहे हैं. इसका उम्र से कोई ताल्लुक नहीं है. जब जवान थे तब भी अपने पेस में ही लिखते रहे थे. हमारी यही चाहत रही है कि लगातार लिखते रहो- हाथों और कल्पना में जुंबिश बनी रहे. गालिब का शेर है न: ‘गो हाथ में जुंबिश नहीं आंखों में तो दम है’ इसके अलावा ऐसा भी कोई शारीरिक-मानसिक रोग नहीं हुआ कि उससे नहीं लिखने की प्रेरणा मिलती. जितनी जिंदगी जी है, उस पर कोई पछतावा नहीं है, लेकिन संशय अब भी है. मगर ऐसे संशय नहीं उठे कि लिखना बंद हो जाए.
किस तरह के संशय हैं आपके भीतर?
कई जाती (निजी) संशय हैं. इसके अलावा काम के, दुनिया के, जमीन के और कद्रों (मूल्यों) के बारे में संशय होते हैं. मैं आत्मसंशय के सहारे लिखता रहा हूं. मेरे बहुत व्यक्तिगत किस्म के संशय होते हैं. ये लेखन से संबद्ध भी होते हैं- अनुभव, मुशाहिदे, अंधेरे के बारे में. बहुत सारे लोगों को शिकायत रही है अंधेरे से. मुझे उससे रोशनी मिलती है.
संशय के साथ रह कर कैसे लिखा जा सकता है?
संशय का मतलब दिशाहीन होना नहीं है. लेकिन इसका मतलब पूर्वनिर्धारित भी होना नहीं है. हम संशय के साथ अपने अंधेरे में उतरते हैं. कुछ लोगों का लेखन मुख्यत: बहिर्मुखी होता है और कुछ लोगों का अंतर्मुखी. लेकिन दोनों तरह के लेखक बाहर-भीतर झांकते हैं. कई उपन्यासों-कहानियों में बाहर का मुशाहिदा है. लेकिन जब गहराई में उतरेंगे तो अंधेरा होगा ही. वहां चकाचौंध नहीं होती. गहराई में भी रोशनी उनके भीतर होती है जो संत या पहुंचे हुए लोग हैं. मैं उस गति को नहीं पहुंचा. पर यह बात भी है कि वो लोग लिख नहीं पाते.
एक सवाल लगभग हर लेखक से पूछा जाता है. यह कि उसने कब और कैसे लिखना शुरू किया. एक लेखक से ऐसा सवाल करना कितना जायज है?
इस सवाल का सामना हर लेखक करता है पर हर लेखक शायद जवाब नहीं दे पाता. हो सकता है कि वह जवाब दे पाए या न दे पाए लेकिन वह इसका जवाब खोजता जरूर है.
बहुत कम लेखक होते हैं जब किसी एक पल से वे लिखना शुरू करते हैं. लिखना शुरू करने का अनुभव एक बिखरा सा अनुभव भी होता है. पर मेरे लिए तो यह एक रहस्यमय बात है. मेरे परिवार में लिखने का माहैल नहीं था इसके बावजूद लिखा. कोई ऐसा खास पल नहीं था जब लगा हो कि लिखना है. लिखने में कई लोगों ने प्रभावित किया. शुरू-शुरू के कुछ उस्ताद थे. किसी हद तक पिता का प्रभाव था, हालांकि पिता लिखते नहीं थे. मैं उनको खत लिखता था. इस तरह लिखने का सिलसिला कायम हुआ. कोई ऐसा हादसा नहीं हुआ कि उसको मुखातिब करके कह सकूं कि ऐसे हुआ था शुरू. पर स्कूल के दौर में ही बीज पड़ गया था. बाद में यह इरादा या बीज पुख्ता-सा होता गया.
शुरुआत के बारे में भले न कह सकते हों, लेकिन अपने यह बात कब महसूस की कि आप लिखने लगे है?
जब मैं 21 साल का था. या तो वह एमए का दौर रहा होगा या एमए खत्म होने के बाद का दौर. 22 की उम्र में मैंने पढ़ाना शुरू कर दिया था. उन्हीं दिनों, जब मैं 21 का था विभाजन के बाद दिल्ली चले आए. विभाजन न हुआ होता तो 1948 की जुलाई में एमएम हो गया होता. मगर अब 49 के जून में एमए पूरा हुआ. उसके बाद ही नौकरी भी मिल गई. उन्हीं दिनों लिखना मामूल बन गया. मैं लिखने के बारे में उतना नहीं सोचता मगर न लिखने के बारे में कोसता जरूर हूं खुद को. पर एक तयशुदा वक्त और अवधि पर लिखने की आदत पड़ गई. ऐसा कभी नहीं हुआ कि बरसों कुछ नहीं लिखा. फिर 56 की उम्र में नौकरी छोड़ दी कि इन दो कामों में खास वास्ता नहीं था. ऐसा नहीं था दोनों कामों में बहुत विरोधाभास है. मैंने 31 की उम्र में हेनरी जेम्स की आलोचना लिखी. वह रिसर्च हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुआ. भारत में तो ऐसा है कि कवि या उपन्यासकार शोध नहीं करते हैं. ऐसा करके बहुत से लोगों ने निभाया है दुनिया भर में. मैं यह नहीं कह रहा कि पढ़ाना लिखने का विरोधाभासी है. मैंने लिखना चुना लेकिन हमेशा लिखते रहना भी ठीक नहीं है.
आपने लिखना किस जुबान में शुरू किया? आप अंगरेजी पढ़ाते रहे और अरसे तक देश से बाहर रहे. इस भाषा की पहुंच को देखते हुए अंगरेजी में लिखना बढ़ रहा है. आपने भी कभी सोचा अंगरेजी में लिखने के बारे में?
शुरुआत उर्दू से हुई. पाकिस्तान में कुछ कहानियां छपीं. यहां आने के बाद ज्यादा आसानी से पाकिस्तान के रिसाले नहीं मिलते थे. यह हाल अब भी है. उर्दू से हिंदी में आने की वजह यह थी. हालांकि मैं इन दोनों में कोई फर्क नहीं मानता. मैंने जान-बूझ कर फैसला किया अंगरेजी में नहीं लिखने का. मुझे लगता है कि सिवाय कुछ अपवादों को बहुत से बल्कि सभी लोगों ने मातृभाषा में लिखा है. मैं पंजाब से हूं. मेरी मातृभाषा न हिंदी है न उर्दू. लेकिन पंजाबी में मुझे कुछ नहीं आता है. हालांकि गुरुमुखी एक दिन में सीखी जा सकती है. पर नहीं सीखा. मैंने उर्दू-हिंदी में से चुनाव किया.
अपनी जबान छोड़ कर दूसरी जबान में लिखने वाले अपवाद गिने चुने हैं. जैसे जोसेफ कोनराड. वे पोलैंड के थे पर अंगरेजी में लिखा और खूब लिखा. एक दूसरी मिसाल रूस के नोबाकोव थे. वे अंगरेजी जानते थे और क्रांति के बाद यूरोप और फिर अमेरिका चले आए थे. लेकिन तब भी उन्होंने रूसी में लिखा. तो दूसरी जबान में लिखनेवालों की मिसालें कम हैं. मुल्कराज आनंद, आरके नारायण ने अपनी भाषा में नहीं लिखा और वे अच्छे लेखक हैं, महान नहीं. सैमुअल बेकेट ने अंगरेजी से दूरी बनाने के लिए जानबूझ कर फ्रांसीसी में लिखा. नोबाकोव ने भी जो अंगरेजी में लिखा वह रूसी से बेहतर है. तो इन सब मिसालों के पीछे चलते हुए कोई अंगरेजी में लिखना शुरू कर दे यह ठीक नहीं.
वैसे हमारा मामला अलग है. औपनिवेशिक हुकूमत की वजह से और परिवार की वजह से कई लेखकों को दूसरी कोई जुबान आती ही नहीं है अंगरेजी के सिवा. पहले मुझे लगता था कि किसी और जबान में लिखने वाले गद्दारी कर रहे हैं. अब ऐसा नहीं लगता. अब कुछ दो-चार अच्छे लेखक भी हैं अंगरेजी में.
वैसे हिंदी-उर्दू में लिखना ज्यादा चुनौती भरा काम है. बहुत कम भारतीय लेखक ऐसे हैं जिन्होंने अंगरेजी में लिखते हुए गलतियां न की हों. चूंकि उनकी नजर में विदेशी पाठक रहते हैं. वे अपने लेखन में तड़क-भड़क के साथ स्थानीयता को दिखाने की कोशिश करते हैं. मिसाल के लिए सलमान रुश्दी का एक भी उपन्यास ऐसा नहीं है जिसमें लगे कि वे असली हिंदुस्तान को पेश कर रहे हैं. दूसरी तरफ जब हम रूसी उपन्यास पढ़ते हैं दॉस्ताएव्स्की या टॉल्सटाय को तो लगता है कि यह असली रूस है. उनका रूस गाइड बुक का रूस नहीं है. जो लोग हिंदी में या स्थानीय जुबान में लिखेंगे वे भी कभी ऐसा नहीं करेंगे. अंगरेजी में लिखने पर एक खास किस्म का लेखन होता है.
आपकी कहानियां और उपन्यास पढ़ते हुए लगता है कि आप पाठक से बहुत जल्दी एक आत्मीय रिश्ता कायम कर लेते हैं. या कम से कम उस पर कुछ अधिक ही भरोसा करने लगते हैं.
मेरे खिलाफ हिंदी आलोचकों की एक शिकायत यही रही है कि आम पाठक के लिए आपका लेखन नाकाबिले बरदाश्त है. न उसे भाषा पसंद आएगी न लेखन. आप जिस आत्मीयता की बात कर रहे हैं वह सहज ही होगी, सायास नहीं होगी. मैं लिखते वक्त पाठक को नजअंदाज करता हूं. एक कोई पाठक नहीं होता. पाठक अलग-अलग तरह के होते हैं. आप किस पाठक को अपने सिर पर सवार करेंगे. एक हौवा सा बन गया है- आम पाठक. आम पाठक. मैं इस हौवे के खिलाफ हूं. मैं प्रगतिशीलता के खिलाफ नहीं हूं. प्रलेस के जमाने से ही यह ढर्रा-सा चलता आ रहा है. मैं ‘प्रिय पाठक’ को एक घिसा-पिटा शब्द समझता हूं जो अपना अर्थ खो चुका है. ऐसा नहीं है कि पाठक से नफरत करता हूं. पर पाठक तो बहुवचन है. किसको सामने रखेंगे. इसलिए मैं किसी खास पाठक को संबोधित नहीं करता.
आपके लेखन के बारे में कहा जाता है कि यह भीतर के अंधेरे का लेखन है. दोस्तोयेव्स्की की तरह. भीतर का यह अंधेरा कितनी उम्मीद और कितनी नाउम्मीदी से भरा होता है.
मैं कहता हूं कि मैं किसी राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक आदर्श की रोशनी में अंधेरे में उतरता हूं. कुछ लोग इसे बेहद सरलीकृत बना देते हैं और कहते हैं कि मेरा लेखन निराशावादी है. मुझे यह गलत लगता है, लेकिन मेरा लेखन आशावादी भी नहीं है. मेरा सारा लेखन इसी तलाश का हिस्सा है कि अब्र क्या चीज है हवा क्या है. इन घिसे-पिटे बुनियादी सवालों का मैं मजाक भी उड़ाता हूं अपने लेखन में.
वापस आपकी संशय वाली बात पर आते हैं. संशय के साथ कोई किस तरह लिख सकता है? जब वह इस बुनियादी सवाल को भी नहीं तय कर पा रहा हो कि अब्र क्या चीज है हवा क्या है? आपने अपनी डायरी में लिखा है कि आप नहीं लिख रहे होते तो आत्महत्या कर लेते या पागल हो जाते? क्या इसका संशय वाली बात से भी कुछ ताल्लुक है?
इसका जवाब बहुत तफसील में नहीं है. बस यह है कि संशय लिखने की वजह से काबू में रहता है. लिखना रास्ता दिखाता है संशय से बाहर आने का. आत्महत्या या पागल हो जाने वाली बात मैंने इसी अर्थ में कही थी. जब संशय बढ़ जाता है और जवाब नहीं मिलते तो आदमी वह रास्ता अख्तियार करता है. लिखना इससे बचा लेता है.
आपके लेखन का सबसे चर्चित और विवादित पहलू रहा है उसमें स्त्री-पुरुष संबंधों का चित्रण. आपकी गैरमौजूदगी में भी इस काफी बहस होती रही है. आपको क्या लगता है कि इस पूरे मुद्दे पर सही परिप्रेक्ष्य में बात हो रही है?
उपन्यासों का अंग रहा है स्त्री-पुरुष संबंध. हर कहीं. कोई नई बात नहीं है मेरे लेखन में. मैं नारीवाद के पक्ष में हूं. स्त्री के प्रति अन्याय हुआ है और उसे इंसाफ मिलना चाहिए. मुझ पर यह आरोप कोई बेवकूफ ही लगा सकता है कि मैंने नारी को सेक्स की पुतली के रूप में दिखाया है. यह कह देना अन्याय है मेरे साथ. किसी भी लेखक पर भाषा या विषय के सवाल पर कोई बाहरी बंदिश नहीं होनी चाहिए. एक अच्छा और सजग लेखक जानता है कि उसकी हद क्या है. और वह उस हद को तोड़ता भी है. इतने सालों से इसकी लड़ाई लड़ी जा रही है.
हिंदी में अगर यह बहस चल रही है कि अमुक शब्द अश्लील है या नहीं तो मैं इस बहस को नहीं मानता. जो लोग ऐसी बातें कहते हैं वे खुद अश्लील हैं. छिपे हुए अश्लील हैं. वे खुद अपने जीवन में उन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. मैं तो अश्लीलता के अर्थ पर ही सवाल उठा रहा हूं. यहां अश्लीलता का अर्थ गलत लिया गया. इन लोगों को मुंबइया फिल्में, बाजार और खुद जीवन अश्लील नहीं लगता. करोड़ों रुपए जिन शादियों पर खर्च होते हैं उनमें भिखमंगे जूठन खाते हैं, यह अश्लील नहीं लगता. और शब्द अश्लील लगते हैं. ऐसा नहीं है कि मैं अश्लीलता के पक्ष में हूं, लेकिन इसे सही संदर्भ में और सही अर्थ में लिया जाना चाहिए.