दिल्ली हाई कोर्ट ने निचली अदालत का फैसला उलट दिया। आज़ादी के बाद उत्तरप्रदेश की प्रोविंशियल आमर्ड कांस्टेबुरी (पीएसी) के लोगों को निचली अदालत ने हिरास्त में लिए गए लोगों की हत्या के आरोप से बरी कर दिया था। यह घटना उसके लिए बेहद संतोष की बात थी जिसने तीन दशक पहले इस घटना को देखा था। एक व्यक्ति जिसने तीन दशक तक इस फैसले का इंतज़ार किया। तब आखिर क्यों, जब अपने मोबाइल पर आजमगढ़ के एक दूरदराज के गांव से मिले बधाई के संदेश पर मैं मजबूती से धन्यवाद नहीं कह पाया था।
तीन दशक में उस हैरान कर देने वाली मई 1987 की रात के खौफनाक दृश्यों के साथ जीता रहा। दिल्ली-गाजियाबाद सीमा पर माकनपुर गांव के पास खाइयों के बीच से एक नहर के इर्द-गिर्द खून से लिसड़ी कमीजों के अंदर खून में लथपथ शरीर में मैं जि़ंदगी की तलाश कर रहा था। मुझे लगा मानों हिरासत में बुरी मौत मारे गए लोगों का मैं चश्मदीद गवाह हूं। उस दुर्भाग्यपूर्ण रात में मैंने दो शपथ ली : सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस होने के नाते मैंने तय किया कि इस घृणित अपराध के अपराधियों और इसे उकसाने वालों को मैं कानूनी तौर पर सजा ज़रूर दिलवाऊंगा। मेरे अंदर का लेखक जगा और उसी दिन मैं अपने अनुभवों को लिखने बैठ गया।
एक पुरानी कहावत है कि विचार की कमज़ोर विकल्प होती है भाषा जब मैं किताब लिखने बैठा तो मैंने महसूस किया कि यह कितना भयावह काम है। जो शिकार हुए उनकी पीड़ा और उनके परिवारों में तनाव को बर्दाश्त करना मेरे लिए चुनौती थी। यह चरित्रों की उन कल्पनाओं के ठीक उलट था जिसे पहले कभी मैंने उपन्यास लिखते हुए महसूस भी नहीं किया था। मैं असल जि़ंदगी से ज़रूर कुछ चरित्र उठाता लेकिन वे मेरे अपने गढ़े हुए बन जाते जब भी मैं उन्हें अपने प्लॉट में शामिल करता। वे बदल जाते। वे बढ़ते और मनमानी करते मेरी सनक के अनुसार। कुछ मामलों में तो जितने लोगों से मैं मिला वे अपने चरित्र से खासे प्रभावित होते हैं और मेरी किताबों में से हीरो के विरोध में उभर कर आते हैं। लेकिन मैंने हाशिमपुरा में वह नहीं करा। दरअसल मानों एक बुरा सपना हो जिसमें वे मेरा पीछा कर रहे हों और मुझे इस बात की अनुमति नहीं दे रहे हों कि बतौर लेखक मैं अपनी आज़ादी का इस्तेमाल करूं। हत्याओं की क्रूरता ही इस कदर प्रभावी थी कि मैं इस हद तक शांत हो जाता कि सबसे छोटा अध्याय भी एक बार में पूरा न कर पाता।
जब तक शब्द उन्हें पकड़ पाते इस रात की काली छाया और भी ज्य़ादा गहरा जाती। और भी ज्य़ादा रात पसर जाती। जुबानिसा की ही तरह जिसने 22 मई 1987 को ही अपनी बेटी को जन्म दिया। लगभग इसी समय जब उसके पति को नहर के किनारे बुलेट से छलनी कर दिया गया।
किसी तरह मैं अपनी दूसरी शपथ पूरी कर सका। किताब तो पूरी हो गई। लेकिन उस पहली शपथ का क्या – जिसमें मारे गए लोगों के हत्यारों को ही सजा नहीं दिलवाना था बल्कि उन्हें भी जिन्होंने उन्हें ऐसा करने का हुक्म दिया था? पूरे 31 साल की थकाऊ और ऊबा देने वाली कानूनी लड़ाई। इस बात से कोई खुश नहीं होता कि पीएसी में छोटे स्तर पर काम कर रहे 16 लोगों को सजा मिली पुलिस सेवा में अपने 36 साल गुज़ार देने के बाद मुझे लगा कि एक सब इंस्पेक्टर तो यह फैसला नहीं ले सकता कि पर मुसलमानों को उठवा लिया जाए और उन्हें मरवा दिया जाए। हालांकि अगर वह अपनी मूर्खता में ऐसा करता भी तो जो उसके अधीन जो हैं वे उसके हुक्म की तामील न करने के लिए आज़ाद हैं। हर किसी को पता है कि इसके नतीजे क्या होंगे। एक आदमी हिम्मत करके ऐसा अनोखा काम तभी करेगा जब उसे इस बात का पूरा यकीन होगा कि उसे बचा ज़रूर लिया जाए।
डेढ़ दर्जन हेड कांस्टेबल और कांस्टेबल, प्लाटून कमांडर सुरेंद्र पाल सिंह के आदेशों के तहत थे। उनके लिए वे कुछ भी करने, मरने-खपने के लिए हमेशा तैयार थे क्योंकि उन्हें भरोसा था कि उनका बाल भी बांका न होगा। उसने उन्हें यह भरोसा दे रखा था – वरिष्ठ, पुलिस अधिकारियों ने, राजनीतिकों ने या फिर प्रशासकों ने? उन्हें कुछ हुआ भी नहीं!
कुछ बहुत ही खुले रहस्य हैं। जिसकी जानकारी उन्हें है जो मेरठ में और आसपास के इलाकों में रहते हैं। क्या जांच का काम मेरे हाथ से लेकर 40 घंटे पूरे होने के पहले ही सीआईडी को सौंपा गया। उन्हें क्यों इसकी अनुमति दी गई कि वे पूरे मामले का घालमेल कर सेना का वह रहस्यमय मेजर कौन था जो हाशिमपुरा में संदिग्ध अवस्था में देखा गया था जबकि उसके वहां होने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी?
वह स्त्री कौन थी जिसका भतीजा कुछ घंटों पहले ही मारा गया था जिसके बाद पीएसी के एक ट्रक में उन लोगों का अपहरण किया गया जिन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। जब मैंने सीआईडी के दस्तावेज खंगाले तो मुझे कई ऐसे वाकया दिखे जो अत्याचारियों की ओर इशारा कर रहे थे? क्यों सीआईडी ने अचानक उन वाकयों पर काम करना बंद कर दिया? इन मुद्दों के कारण मैं इस क्षण से बहुत खुश नहीं हो पाता जिसके लिए मैं 30 साल तक इंतजार करता रहा।
हाशिमपुरा की साखा-प्रसाखाएं बहुत दूर तक असर डालेंगे। इस मामले पर जब सेशन कोर्ट का फैसला आया तो जो प्रतिक्रिया हुई उससे मुझे तकलीफ हुई। कई घटनाएं और बहस-मुबाहिसे 21 मार्च के फैसले पर हुईं। इनमें से कुछ में मैंने हिस्सा लिया। कोई भी यह पहचान सकता था कि कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों से बड़ी संख्या में मुस्लिम नौजवान हैं। वे जिस तरह के सवाल पूछ रहे थे उनसे उनकी पहचान सहज थी।
मैंने देखा कि उनमें से कई ने मुझसे तर्क-वितर्क किए और धर्मनिरपेक्षता के रेलेवेंस पर जोर दिया साथ ही हाशिमपुरा पर बातचीत की शुरूआत की। वे एक ऐसी उत्तेजक स्थिति में फंस गए हैं कि वैचारिक तौर पर वे इस्लामी राज चाहते हैं लेकिन अल्पसंख्यक होने के नाते वे यह भी जानते हैं कि भारत में ऐसा संभव नहीं है। एक सम सामाजिक इतिहासकार का मानना है कि ज्य़ादातर मुसलमानों का यह विरोधाभास है कि वे देश में धर्म-निरपेक्षता चाहते हैं लेकिन इसलिए नहीं कि उनका इसमें भरोसा है बल्कि इसलिए ताकि वे इसे हिंदूराष्ट्र के विरोध में खड़ा रख सकें। हाशिमपुरा जैसी घटनाएं न केवल उग्रपंथियों को मजबूत करती हैं बल्कि ये मुसलमानों में जो धर्मनिरपेक्ष लोग हैं उन्हें हताश भी करती हैं।
हाई कोर्ट से आया फैसला भले ही सांत्वना भर हो लेकिन इस मामले मेें हमें याद रखना चाहिए कि भारतीय राज्य के सभी भागीदार – राजनीतिक नेतृत्व, नौकरशाही, पुलिस, मीडिया और न्याय – पूरी तौर पर नाकाम रहे हैं। यदि वाकई हम भारत को धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाए रखना चाहते हैं तो हम यह व्यवस्था भी करनी होगी कि फिर हाशिमपुरा न हो!
लेखक- पूर्व आईपीएस
‘हाशिमपुरा, 22 मई,’
ए क्रोनिकल ऑफ 1987
कस्टोडियल किलिंग्स’,
के चर्चित लेखक।
साभार : इंडियन एक्सपे्रस