संभव है आप फुटबॉल से भी चिढ़ने लगें : स्टैंड बाय

फिल्म  स्टैंड बाय

निर्देशक  संजय सरकार

कलाकार  सचिन खेड़ेकर, आदिनाथ कोठारे, सिद्धार्थ खेर, दिलीप ताहिल

स्टैंड बाय देखते हुए दो बातें बहुत गहराई से महसूस होती हैं. एक तो यह कि ‘चक दे इंडिया’ बनाना वाकई बहुत मुश्किल काम रहा होगा. और दूसरी यह कि क्यों हिंदी फिल्मों में आइटम गीत होने चाहिए. इन दोनों बातों के अलावा कुछ महसूस नहीं होता क्योंकि एक तो संजय सरकार पहले दस मिनट में ही आपको यह समझा देते हैं कि आगे क्या होने वाला है और फिर उम्मीद करते हैं कि आप यह समझाया हुआ भूलकर उत्सुकता से फिल्म देखें. आप शायद देखते भी, अगर उनके पास रोचक दृश्य और अच्छे डायलॉग होते. लेकिन वहां आप पर बस कहानी पूरी सुनने की जिम्मेदारी है. बीच में आदेश श्रीवास्तव जाने किस जमाने का बैकग्राउंड म्यूजिक देते हैं कि रही-सही कसर भी पूरी हो जाती है. इतना पुरानी फिल्मों टाइप संगीत कि आप रोना चाहें, तब भी हंस दें.

फिल्म के पास एक नैतिक प्रश्न वाली पुरानी कहानी है. अमीर बाप का जिद्दी बेटा जिसे किसी भी शर्त पर भारत के लिए फुटबॉल खेलना है और गरीब बाप का प्रतिभाशाली बेटा जिसे भी भारत के लिए खेलना है. तनाव बढ़ाने के लिए दोनों दोस्त भी हैं. और हां, आपने सही पहचाना. गरीब हीरो के पिता का भी सपना फुटबॉलर बनना ही था और अब वे अपने बेटे के माध्यम से यह सपना पूरा करना चाहते हैं. अब सवाल है कि जीतेगा कौन. अजी जीते कोई भी लेकिन हम यह कहानी बहुत पहले से जानते हैं और हमें अच्छा नहीं लगता कि इसी को सुनने के लिए हमें दिलीप ताहिल को झेलना पड़े जो अस्सी-नब्बे के दशक की अपनी फिल्मों के एक से किरदारों में ही कहीं फ्रीज होकर रह गए हैं और समय उनके लिए रुक गया है. सचिन खेड़ेकर और मनीष चौधरी उतना ही कर पाते हैं जितना किसी बुरी फिल्म के लिए कोई अच्छा अभिनेता कर सकता है. दोनों मुख्य किरदार आदिनाथ कोठारे और सिद्धार्थ खेर औसत-सा अभिनय करते हैं, लेकिन फिल्म में जब आपको ग्यारह की टीम में से दो ही चेहरे बार-बार दिखाए जाते हैं तो उन पर ही गुस्सा आता है. इस समय कैमरे का इतना फर्ज तो है ही ना कि वह ऐसा बर्ताव ना करे कि वह हीरो को पहले से पहचानता है. फिल्म की ज्यादातर स्त्रियां टीवी सीरियलों से भी खराब ढंग से भावुक होती हैं और ताली पीटती हैं और उनका मेकअप आपकी आंखों पर चढ़कर पूछता है कि क्या जरूरी है कि कम पैसों से बनी फिल्म का मेकअप भी सस्ती किस्म का हो.

शॉर्ट में कहें तो स्टैंड बाय पूरी तरह से चक दे इंडिया की तर्ज पर बनी है, जो क्रिकेट की लोकप्रियता के देश में एक कम लोकप्रिय खेल और उसके फेडरेशन के भ्रष्टाचार की बात करती है. लेकिन कई जगह पैसे की और कई जगह शायद समझ की कमी के कारण ज्यादातर बातें सतही किस्म के आरोप ही लगाती हैं. न जटिल समस्याओं में उतर पाती हैं और न ही रोचक हो पाती हैं. संजय गाने जरूर कलात्मक ढंग से शूट करते हैं और वे चाहे आएं अचानक, लेकिन अच्छा महसूस करवाते हैं.

गौरव सोलंकी