दुनिया में बिरले ही लोग होते हैं, जिनके जाने के बाद हर कोई उन्हें याद करता है। ये वो लोग होते हैं, जो किसी-न-किसी क्षेत्र में दुनिया भर को अपने काम का लोहा मनवा देते हैं। भारत में हर क्षेत्र में ऐसे लोग हुए हैं। हॉकी में बलबीर सिंह ऐसा ही एक नाम है।
दो साल पहले गोल्ड नाम की एक फिल्म आयी थी। यह फिल्म 1948 के ओलंपिक में हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी में गोल्ड मेडल को जीतने की कहानी थी। खेल में आज़ाद भारत की यह पहली बड़ी जीत थी, जो भारतीय हॉकी टीम ने दिलायी थी। यह जीत इसलिए भी बड़ी थी, क्योंकि करीब 200 साल की ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी से आज़ाद होने के ठीक एक साल बाद भारतीय टीम ने ओलंपिक खेलों में उस ब्रिटेन को उसी की धरती पर हराकर हॉकी का गोल्ड मेडल जीत लिया था। इस जीत से हॉकी खिलाड़ी बलबीर सिंह हीरो की तरह उभरकर सामने आये और उन्हें हॉकी का गोल्ड कहा गया।
यह सच है कि दुनिया भर के हॉकी प्रेमी बलबीर सिंह सीनियर को कभी नहीं भुला पाएँगे। उनकी हॉकी का जादू दुनिया के रहने तक बना रहेगा। सदी के नायक बलबीर अब उन करोड़ों चाहने वालों में बँट गये, जो उनके खेल के दीवाने रहे हैं। उनके रिकॉड्र्स का अलग लेखा-जोखा है। देश को हॉकी के तीन स्वर्ण पदक देने वाले इस खिलाड़ी को देश एक पद्य पुरस्कार के अलावा और कुछ नहीं दे पाया। कमोवेश यही हालत हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की भी हुई। दुनिया भर के हॉकी प्रेमियों ने इन दोनों खिलाडिय़ों को बेहद स्नेह और सम्मान दिया; लेकिन करोड़ों के चहेते ये दोनों खिलाड़ी कभी आधिकारिक तौर पर भारत रत्न नहीं समझे गये। बलबीर सिंह सीनियर ने कभी इस पर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दी। वह इन बातों से बहुत ऊपर थे। वह ऐसे इंसान थे, जिन्हें न तो किसी की चापलूसी पसन्द थी और न ही हाथ पसारकर अपने लिए कुछ माँगने की आदत उनमें थी। उन्हें खेलों की सियासत भी समझ में नहीं आती थी। वह बस खेलते थे और हज़ारों दर्शकों की तालियाँ बटोरते थे। उनके पास अगर कोई खज़ाना था, तो वह था- तालियों, तारीफियों और प्रशंसकों का। इन दोनों (मेजर ध्यानचंद और बलबीर सिंह सीनियर) ने देश की झोली में तीन-तीन स्वर्ण पदक डाले। भारत ने ओलंपिक हॉकी में जो आठ स्वर्ण पदक जीते हैं, उनमें से छ: तो इन दोनों की ही देन हैं।
कृष्णमेनन का हस्तक्षेप
भारतीय हॉकी में उस समय भी भारी राजनीति थी, जब 1948 के लंदन ओलंपिक में भारत भाग लेने गया था। टीम को तिरंगे के साथ मैदान में उतरने का यह पहला अवसर था। उस टीम के कप्तान राइट आऊट किशन लाल थे। युवा बलबीर सिंह सीनियर का पहला ओलंपिक था। बलबीर सिंह को ऑस्ट्रिया के खिलाफ पहले मैच में नहीं खिलाया गया। भारत ने यह मैच 8-0 से जीता। उन्हें दूसरे मैच में खेलने का मौका मिला। यह मैच अर्जेंटीना के साथ था। भारत इस मुकाबले में 9-1 से जीता। भारत के नौ गोलों में से छ: बलबीर सिंह सीनियर ने किये थे। लेकिन टीम की राजनीति के चलते उन्हें स्पेन के खिलाफ मैच में नहीं उतारा गया। भारत इस मैच में बड़ी मुश्किल से 2-0 से जीता। इससे भारतीय दर्शकों में भारी रोष पैदा हो गया। इसके बावजूद उन्हें सेमीफाइनल में नीदरलैंड्स के साथ भी खेलने का अवसर नहीं मिला। दर्शकों का क्रोध बढ़ रहा था। उन्होंने ब्रिटेन में भारत के तत्कालीन उच्चायुक्त वी.के. कृष्णमेनन से शिकायत की; तब उनके हस्तक्षेप के बाद बलबीर सिंह सीनियर को फाइनल में ब्रिटेन के खिलाफ खेलने का अवसर मिला।
बलबीर सिंह सीनियर ने आते ही अपना जलवा दिखा दिया और पहले हाफ में दो गोल करके भारत की जीत लगभग पक्की कर दी। अन्त में भारतीय टीम 4-0 से विजय हासिल कर गयी। बाकी दो गोल पैट जॉनसन ने पेनॅल्टी कॉर्नर पर लिये। यह पहला मौका था, जब ओलंपिक खेलों में ब्रिटेन की हॉकी टीम को हार का मुँह देखना पड़ा। यह खुलासा आज तक नहीं हुआ कि बलबीर को तीन मैचों से दूर क्यों रखा गया?
विश्व रिकॉर्ड
अगले ओलंपिक खेल 1952 में हेलसिंकी (फिनलैंड) में हुए। इस बार टीम की बागडोर सर्वश्रेष्ठ राइट इन के.डी. सिंह बाबू के हाथ थी। भारत ने यहाँ कुल तीन मैच खेले और पहले मुकाबले में ऑस्ट्रिया को 4-0, फिर सेमीफाइनल में ब्रिटेन को 3-1 से तथा फाइनल में नीदरलंड्स को 6-1 से हराया। इस प्रकार भारत ने तीन मैचों में 13 गोल किये और इन 13 में से नौ गोल अकेले बलबीर सिंह सीनियर के थे। फाइनल में भारत के छ: गोलों में से पाँच बलबीर सिंह सीनियर ने किये थे। यह आज भी विश्व रिकॉर्ड है। 1952 से 2016 तक के 64 साल में कोई खिलाड़ी फाइनल में पाँच गोल नहीं कर सका है।
एक और कमाल
यह कमाल हुआ 1956 के मेलबॉर्न ओलंपिक में। युवा शंकर लक्ष्मण पहली बार ओलंपिक खेलने गये। वह गज़ब के गोल रक्षक थे। इस ओलंपिक में भारत ने पाँच मैच खेले और 38 गोल किये पर कोई विपक्षी टीम एक बार भी शंकर लक्ष्मण को नहीं भेद पायी। 1928 के बाद यह पहला मौका था, जब ओलंपिक में भारत पर एक भी गोल नहीं हुआ था। यहाँ भारत ने अपने पहले मैच में अफगानिस्तान को 14-0 से परास्त किया। इन 14 में से पाँच गोल अकेले कप्तान बलबीर सिंह सीनियर ने किये थे। पर इस मैच के दौरान लगी चोट के कारण वे अगले चारों मैचों नहीं खेल पाये। अगले मुकाबलों में भारत ने अमेरिका को 16-0, सिंगापुर को 6-0, सेमीफाइनल में जर्मनी को 1-0 और फाइनल में पाकिस्तान को 1-0 से हराया। इस प्रकार भारत लगातार छठी बार ओलंपिक हॉकी का सरताज बना।
1956 के बाद बलबीर सिंह सीनियर ने कोई ओलंपिक नहीं खेला और इसके बाद के 64 साल में हमें केवल दो स्वर्ण और एक रजत पदक मिले। इसके अलावा हम 1975 का केवल एक विश्व कप जीत सके। बलबीर सिंह सीनियर जैसे महान् खिलाड़ी और शिख्तयत सदियों में पैदा होते हैं और युगों को अपने दामन में बाँधकर साथ ले जाते हैं। औपचारिक तौर पर चाहे उन्हें भारत रत्न से नहीं नवाज़ा गया, लेकिन वह करोड़ों देशवासियों के लिए भारत रत्न ही हैं।
अगर हॉकी के इस गोल्ड मैन पर लिखना शुरू किया जाए, तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है। यही वजह है कि जिस दिन बलबीर सिंह सीनियर ने इस नश्वर संसार को अलविदा कहा, उस दिन पूरी दुनिया, खासकर खिलाडिय़ों और खेल प्रेमियों में शोक की लहर दौड़ गयी और लोग सोशल मीडिया पर उन्हें श्रद्धा-सुमन अॢपत करने लगे। वास्तव में ऐसे महान् खिलाड़ी का संसार से जाना खेल जगत, खासकर हॉकी के लिए बड़ी क्षति है। लेकिन यह तो विधि का विधान है, जिसे कोई नहीं टाल सकता। ‘तहलका’ परिवार भी ऐसे महान् खिलाड़ी को विनम्र श्रद्धांजलि अॢपत करता है और कामना करता है कि ईश्वर उनके परिवार को इस दु:ख को सहन करने की शक्ति प्रदान करे।