शिवराज सिंह चौहान

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बात कोई बीस बरस पहले की है. अयोध्या के विवादित ढांचे पर राम मंदिर बनाने के लिए चलाए गए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के आंदोलन से देश भर में एक नई सियासी लहर चल रही थी. इन दिनों आंदोलन में अग्रणी रहने की वजह से साध्वी उमा भारती एक जाना-पहचाना नाम बन गई थीं. ठीक उन्हीं दिनों कुर्ता- पाजामा और चप्पल पहनने वाला एक दुबला-पतला युवक भाजपा के भीतर अपना राजनीतिक मुकाम तलाश रहा था. पंडित दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानवतावाद’ का समर्थक और भाजपा में युवा नेतृत्व की बागडोर थामने वाले इस युवक के लिए साध्वी से मिलना-जुलना कोई विशेष बात नहीं रह गई थी. बताते हैं कि एक दिन युवक ने बातों ही बातों में साध्वी से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठने के लिए आशीर्वाद मांगा. साध्वी पीछे हट गईं. उसी दिन उन्होंने जान लिया था कि इस युवक की नजर भी मुख्यमंत्री की गद्दी पर है.

जैत (सीहोर) गांव से राजनीति की लंबी परिक्रमा करने के बाद यही युवक आज मप्र में मुख्यमंत्री की गद्दी पर आसीन है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बारे में यह कहानी प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में खूब कही-सुनी गई है लेकिन कितनी सच है, कितनी झूठ यह कहना मुश्किल है. फिर भी इसमें कोई संशय नहीं कि भाजपा के भीतर उमा भारती से उनकी अदावत एक खुली किताब की तरह है.

उस वक्त राजनीति में शिवराज चौहान के आगे बढ़ने की एक वजह यह बताई जाती है कि 1992 के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में कांशीराम, मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जैसे नेता दलित और पिछड़े समुदाय को गोलबंद करने में सफल हो रहे थे. राजनीति में जातिवादी ध्रुवीकरण से भाजपा के हिंदुत्व की राजनीति पिछड़ रही थी. ऐसी स्थिति से निपटने के लिए भाजपा ने भी पिछड़े तबकों से नए नेतृत्व को आगे बढ़ाने की रणनीति अपनाई. और इसी के तहत मप्र में जब पिछड़े तबके से उमा भारती (लोधी) को आगे बढ़ाया गया तो उनके पीछे शिवराज सिंह चौहान का नाम भी आगे बढ़ा. बाद में राजनीति के इतिहास का भी यह अहम तथ्य बना कि मुख्यमंत्री की गद्दी पर उमा भारती चौहान से पहले ही पहुंचीं. यह ठीक एक दशक पहले की बात है जब दस साल पुरानी दिग्विजय सिंह की कांग्रेस सरकार को ऐतिहासिक पटखनी देने के बाद उमा भारती मुख्यमंत्री बनी थीं. मुख्यमंत्री बने अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ था कि उनके खिलाफ 1994 के हुबली (कर्नाटक) दंगों के संबंध में गिरफ्तारी वारंट जारी हुआ. दिल्ली में बैठे भाजपा नेताओं के चौतरफा दबाव के बाद अगस्त, 2004 में उन्हें अपनी गद्दी से उतरना पड़ा. बताते हैं कि तब मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में चौहान का नाम सबसे आगे था. तब वे सांसद थे और उमा भारती विधायकों में से ही किसी को मुख्यमंत्री बनाने की बात पर अड़ गईं. इसीलिए बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री बनाया गया. लेकिन इसके एक साल बाद गौर एक महिला के साथ यौन शोषण के आरोप में ऐसे फंसे कि उन्हें भी मुख्यमंत्री की गद्दी छोड़नी पड़ी. इस बीच चौहान दिल्ली की सियासत में वरिष्ठजनों पर भरोसा जमाते हुए पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बन चुके थे. लेकिन गौर के हटते ही उमा ने एक बार फिर मुख्यमंत्री की गद्दी पर अपना दावा ठोकते हुए चौहान को पीछे धकेलना चाहा. किंतु इस बार पार्टी ने उनकी एक नहीं सुनी. और उसके बाद उन्हें पार्टी ने किनारे कर दिया. नवंबर, 2005 में चौहान ने मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठने के साथ ही उमा से पुराना हिसाब चुकता कर लिया. यह प्रसंग हमें चौहान की राजनीतिक शैली का दर्शन कराता है. जिसका लब्बोलुआब यह है कि वे अपने विरोधियों से पहले विनम्रता से निपटना चाहते हैं. लेकिन जब बात नहीं बनती तो विरोधी होकर भी बिना विरोध दिखाए एक दिन अपनी मंजिल पहुंचते हैं. और देर तक ठहरते हैं.

मॉडल स्कूल (भोपाल) के दिनों के साथी रहे उनके कई मित्र बताते हैं कि कबड्डी के खेल में माहिर चौहान ने मैदान में जमकर उठापटक की है. यह और बात है कि किसी साथी के गुस्सा होने पर वे उसे मनाने में भी देर नहीं लगाते थे. ‘समन्वय की राजनीति’ का ही ताबीज पहने हुए 1975 को वे मॉडल स्कूल छात्र संघ के अध्यक्ष बन गए. आज इसी मंत्र का उच्चारण करते हुए उनकी राजनीतिक यात्रा अपने 37वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है. इस दौरान ‘सबको साथ लेकर चलने’ के रास्ते पर चलते हुए  वे विधायक (1990), सांसद (1991-2004) और भारतीय राष्ट्रीय युवा मोर्चा के अध्यक्ष (2000-2003) पद तक पहुंचे. जहां तक उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद की बात है तो प्रदेश की भाजपा में कई ऐसे नेता हैं जो मौका मिलने पर शिवराज पर भारी पड़ सकते हैं. इनमें एक नाम राज्य के कद्दावर मंत्री कैलाश विजयवर्गीय का है. लेकिन बुजुर्गों के पेंशन घोटाले में नाम आने के बाद से वे शिवराज पर हावी नहीं हो पाए. इसी कड़ी में रहली विधानसभा क्षेत्र से लगातार छह बार विधायक बनने वाले गोपाल भार्गव में बुंदेलखंड (सागर) का बड़ा नेता बनने की संभावना है. लेकिन चौहान ने उसी इलाके से दमोह विधायक जयंत मलैया का अपनी सरकार में कद बढ़ाकर भार्गव के पंख कतर दिए. इसी तरह, ग्वालियर से अनूप मिश्रा की चुनौती से निजात पाने के लिए चौहान ने उसी इलाके से विधायक नरोत्तम मिश्रा को राज्य सरकार का प्रवक्ता बनाया और रिश्ते में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा को घुटने के बल बैठा दिया. यह चौहान की सियासी सूझ-बूझ का ही नतीजा है कि आज मप्र में भाजपा पूरी तरह से उनके कंधों पर निर्भर हो चुकी है.

mpशिवराज ही भाजपा, भाजपा ही शिवराज
मध्य प्रदेश में बीते कुछ सालों से हालात ऐसे बने हुए हैं कि थोड़ी देर के लिए भी शिवराज को यदि नजरअंदाज कर दिया जाए तो यहां भाजपा शून्य नजर आने लगती है.

इसके पीछे चौहान के बीते आठ साल का कामकाज और उससे ज्यादा अपने कामकाज को जनता के सामने लाने के तरीके रहे हैं. इस दौरान मुख्यमंत्री ने ‘शिवराज’ को एक ‘ब्रांड’ बनाया और मप्र में होने वाले हर विकास कार्य का श्रेय केवल अपनी झोली में डालते हुए खुद को विकास पुरुष के तौर पर प्रचारित किया. इससे मप्र की राजनीति में चौहान का कद इतना ऊंचा होता गया कि भाजपा के बाकी नेता उनके सामने बौने दिखाई देने लगे. वरिष्ठ पत्रकार विनय दीक्षित के मुताबिक, ‘सरकार में रहते हुए शिवराज ने जिस आत्मकेंद्रित तरीके से अपने ब्रांड का प्रचार किया उससे उन्होंने प्रदेश में खुद को भाजपा का पर्याय बना लिया है.’

चौहान के विकास कार्यों को यदि बारीकी से देखें तो उन्होंने व्यक्तिगत लाभ से जुड़ी योजनाओं के जरिए अपनी व्यक्तिगत छवि बनाई है. उदाहरण के लिए, तीर्थ दर्शन योजना है तो बुजुर्गों के लिए लेकिन उसके मार्फत उन्होंने बुर्जुगों के परिवारों तक पैठ बना ली. इन्हीं योजनाओं के जरिए वे अपने लिए समाज में मामा, भाई, बेटा और साथी जैसे रिश्ते भी गढ़ते चले गए.

चौहान की एक पहचान ऐसे मुख्यमंत्री की भी है जिन्होंने सूबे के हर वर्ग पर लक्ष्य साधते हुए राजनीति की है. दीक्षित बताते हैं, ‘मुख्यमंत्री आवास पर चौहान ने विभिन्न वर्गों की जिन पंचायतों का आयोजन किया उससे उनका हर वर्ग तक सीधा जुड़ाव ही नहीं हुआ, अच्छी पकड़ भी बनी है.’ वहीं चौहान ने अपने कार्यकाल में लोगों को जनता दरबार में कभी नहीं बुलाया. इसके स्थान पर लोगों तक सीधे पहुंचने के लिए उन्होंने मप्र के कोने-कोने तक दौरे किए. शिवराज भाजपा की मजबूरी भी हैं. कहा जाता है कि पार्टी की आंतरिक सर्वेक्षण रिपोर्ट से यह तस्वीर साफ हुई है कि मुख्यमंत्री तो सूबे के लोकप्रिय नेता हैं लेकिन उनके मंत्रियों की बदनामी पार्टी के लिए बड़ा खतरा बन गई है. यही वजह है कि पार्टी अब अपने मंत्रियों के खिलाफ भड़की नाराजगी को शांत करने के लिए शिवराज की लोकप्रियता भुनाना चाहती है.

चौहान को भी अपने मंत्रिमंडल के कुछ सहयोगियों और कई विधायकों की कारगुजारियों के चलते बने सत्ता विरोधी रुख का अंदाजा है. उन्होंने चुनाव प्रचार के लिए जुलाई से अक्टूबर तक तकरीबन 7 हजार किलोमीटर यात्रा की है. इस दौरान उन्होंने 185 विधानसभा क्षेत्रों में करीब साढ़े पांच सौ सभाओं को संबोधित भी किया. इस पूरी प्रचार यात्रा का सबसे दिलचस्प पक्ष  है कि इसमें उन्होंने अपने मंत्रियों से दूरी बनाए रखी. दरअसल वे जानते हैं कि भाजपा का पूरा चुनाव अभियान उनकी साख पर लड़ा जा रहा है. उन्हें डर है कि यदि मंत्रियों को अपने साथ रखा तो सत्ता विरोधी रुख बढ़ न जाए. यात्रा के दौरान चौहान ने अपने मंत्रियों के खिलाफ भड़की नाराजगी से ध्यान हटाने की भी कोशिशें की हैं. इसके लिए उन्होंने यात्रा के हर पड़ाव में जहां मौका मिला वहीं कहा, ‘केवल मुझे देखो..कमल देखो…और वोट दे दो.’

आगे शिवराज, पीछे मारकाट
इस समय भोपाल में भाजपा कार्यालय और पार्टी प्रदेश अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर का आवास सुबह से देर रात तक टिकटार्थियों के लिए शक्ति-प्रदर्शनों के अड्डे बने हुए हैं. चार हफ्ते से ऐसा कोई दिन नहीं गया जब कम से कम पांच सौ कार्यकर्ताओं ने यहां प्रदर्शन न किया हो. हर बार विधानसभा चुनाव में टिकट-वितरण के बाद आक्रोश सामने आता था. किंतु इस बार टिकट-वितरण से पहले ही कार्यकर्ताओं का आक्रोश देखकर पार्टी दिग्गज भौचक हैं. हालांकि एक महीने पहले तक भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर मप्र में कार्यकर्ताओं के विरोध को पार्टी का अंदरूनी लोकतंत्र बता रहे थे. लेकिन यह विरोध अब प्रदेश के हर जिले में विद्रोह का रूप धर चुका है. राजनीतिक जानकारों के मुताबिक भाजपा बनने के बाद मप्र में यह पहला मौका है जब टिकटों को लेकर कार्यकर्ताओं में इतना घमासान मचा है. भाजपा के एक संगठन मंत्री अनौपचारिक चर्चा में कहते हैं, ‘एक-एक सीट पर दस-दस दावेदार खड़े हो गए हैं. इसलिए पार्टी अब इस चिंता में पड़ गई है कि ये दावेदार यदि भाजपा प्रत्याशी के खिलाफ ही चुनाव में कूदे तो पार्टी को कितना नुकसान उठाना पड़ सकता है.’

यदि भाजपा के भीतर विरोध की नई परंपरा में जाएं तो एक बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि मप्र में बीते दस साल से भाजपा की ही सरकार बनी रहने से पार्टी के कार्यकर्ता सशक्त और समृद्ध हुए हैं. वरिष्ठ पत्रकार गणेश साकल्ले बताते हैं, ‘पार्टी का ढांचा जो पहले विचारधारा के आधार पर चलता था, उसमें तेजी से व्यक्तिवादी नजरिया हावी हुआ है. इसी दौरान पार्टी की शह पर शिवराज ने अपने आप को हीरो बनाया. उसका नतीजा यह हुआ पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच हीरो बनने का चलन तेजी से पनपा. आज उनकी महत्वाकांक्षा इस हद तक हावी हो चुकी है कि वे विधायक बनने का सपना देख रहे हैं.’ हालांकि किसी कार्यकर्ता के लिए विधायक बनने का सपना देखना गलत नहीं है. लेकिन पार्टी में पनपी व्यक्तिवादिता की यही प्रवृत्ति इन दिनों चौहान के करियर के लिए बड़ी बाधा बनती दिख रही है. वजह यह है कि उन्हें टिकटार्थियों के बागी होने का खतरा सता रहा है.

चौहान के करीबियों की मानें तो विरोध की इस ऐतिहासिक चुनौती से निपटने के लिए उन्होंने संगठन को एकजुट और सक्रिय बनाने की योजना पर काम शुरू कर दिया है. इस काम के लिए मुख्यमंत्री को सालों तक हाशिये पर रहे संगठन के वरिष्ठ पदाधिकारी भगवतशरण माथुर और माखन सिंह की शरण में जाना पड़ा है. माथुर बुंदेलखंड, महाकौशल और विंध्य क्षेत्र में विरोधियों को बागी होने से बचाएंगे. वहीं माखन सिंह मालवा क्षेत्र में इस जिम्मेदारी को निभाएंगे. किंतु चुनाव में एक महीने से भी कम समय बचा है. इसलिए चौहान को डर है कि यह विद्रोह कहीं उनकी सियासी यात्रा में बड़ी बाधा न बन जाए.

कांग्रेस का एकता राग सबसे बड़ी बाधा
बात बीते साल के 19 नवंबर की है. ग्वालियर के नदी गेट चौराहे पर साथ-साथ लगे भाजपा और कांग्रेस के झंडे आपसी सहमति की खुशनुमा तस्वीर दिखा रहे थे. पूर्व केंद्रीय मंत्री माधवराव सिंधिया की आदमकद प्रतिमा के अनावरण के मौके पर उनके पुत्र और केंद्र में  राज्य मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ खड़े मुख्यमंत्री चौहान उस दिन वहां उपस्थित होने पर खुद को धन्य बता रहे थे. इस समारोह में मंच पर लंबे अरसे के बाद पूरा सिंधिया परिवार एक साथ दिखा. भाजपा सांसद और ज्योतिरादित्य सिंधिया की आत्या (बुआ) यशोधरा राजे ने माधवराव सिंधिया को याद करते हुए कहा, ‘कितने अच्छे दिन थे जब हम सब साथ थे. बाद में कुछ लोगों ने मतभेद पैदा करने की कोशिश की.’ ज्योतिरादित्य ने जवाब दिया, ‘आइए आत्या, कौन रोक रहा है आपको एक होने से?’ आखिर में चौहान ने कहा, ‘महाराज, आप निश्चिंत रहें, आत्या से आपको कोई परेशानी नहीं होगी.’ उन्होंने आगे जोड़ा, ‘लेकिन झंडे और डंडे अलग-अलग रहेंगे.’ समय का पहिया घूमते ही आज मप्र का सियासी परिदृश्य बदला हुआ है. सत्ता वापसी के मार्ग में सिंधिया अब चौहान के सामने सबसे बड़ी बाधा बने हुए हैं.

दरअसल उन्हें कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी के निर्देश पर मप्र चुनाव अभियान समिति का मुखिया बनाया गया है. वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर के मुताबिक, ‘कांग्रेस जानती है कि चौहान की सबसे बड़ी परेशानी फिलहाल भाजपा के कलंकित नेताओं से निपटना है. ऐसी स्थिति में पार्टी की कोशिश है कि चौहान के सामने सिंधिया को एक निष्कलंक नेता के तौर पर पेश किया जाए.’

यह दृश्य कांग्रेस की सत्ता परिवर्तन यात्रा के दौरान बीते दिनों होशंगाबाद की एक सभा का है. अपने भाषण के अंत में सिंधिया ने नारा लगाया- ‘हम सब एक हैं’. मंच पर बैठे पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया और केंद्रीय मंत्री कमलनाथ सहित तमाम नेताओं ने जवाब दिया, ‘एक हैं.’ चौहान के लिए यह इसलिए एक बड़ी चुनौती है कि 1993 के विधानसभा चुनाव के बाद पहली बार कांग्रेस एकजुट हुई है. जाहिर है कि चुनावी चक्रव्यूह में चौहान कांग्रेस के उन क्षत्रप नेताओं के निशाने पर हैं जिनकी ताकत पर यदि कांग्रेस ने एकजुट होकर चुनाव लड़ा तो तो चौहान की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. लेकिन सवाल है कि क्या कांग्रेस इस एकजुटता के बावजूद सत्ता विरोधी माहौल का फायदा उठा पाएगी. कांग्रेस के एक दिग्गज नेता इसका जवाब हां में देते हैं. तहलका के साथ अनौपचारिक बातचीत में वे बताते हैं, ‘भाजपा की सबसे बड़ी ताकत दरअसल उसकी बड़ी कमजोरी भी है. कांग्रेस को पता है कि भाजपा की तरफ से चौहान ही अकेले स्टार प्रचारक हैं. ऐसी स्थिति का फायदा उठाने के लिए कांग्रेस ने चौहान के खिलाफ अपने सभी क्षत्रप नेताओं को अलग-अलग मोर्चे पर तैनात किया है. जैसे-जैसे चुनावी सरगर्मियां बढें़गी आप देखेंगे कि चौहान कई मोर्चों पर चौतरफा घिरते जाएंगे.’ दरअसल कांग्रेस की योजना सिंधिया के आकर्षण, दिग्विजय सिंह की मैदानी जमावट और जनजाति अंचलों में भूरिया की उपस्थिति पर टिकी है. पार्टी मानती है कि यदि सिंधिया, सिंह और भूरिया के बीच तालमेल ठीक रहा तो चौहान को घेरा जा सकता है.

कांग्रेस को यह भी पता है कि चुनाव में राज्य सरकार का भ्रष्टाचार चौहान की सबसे बड़ी परेशानी है. यही वजह है कि बीते 17 अक्टूबर को ग्वालियर की आमसभा में राहुल गांधी ने भाजपा सरकार पर हमला बोलते हुए कहा, ‘जो लोग भ्रष्टाचार की बात करते हैं उन्हीं ने मप्र में भ्रष्टाचार की यूनीवर्सिटी खोल रखी है.’ इसी कड़ी में प्रदेश कांग्रेस ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हुए चौहान से दस सवाल किए. इसमें राज्य की जांच एंजेसियों के मोर्चे पर चौहान को घेरते हुए पूछा गया है कि लोकायुक्त जांच में फंसे 13 मंत्रियों को आपकी सरकार ने क्यों बचाया? वहीं कांग्रेस की सत्ता परिवर्तन यात्रा के दौरान सिंधिया ने पूर्वी मप्र में एक स्थान में सभा करते हुए पूछा, ‘केंद्र ने प्रदेश को अरबों रुपये का बजट दिया. वह बजट कहां चला गया?’ उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र से बिजली व्यवस्था के लिए मप्र को जो 50 हजार करोड़ रुपये आया उसे चौहान ने अटल ज्योति अभियान के नाम पर पानी की तरह बहा दिया. वहीं उन्होंने मप्र में रेत माफियाओं के बढ़ते प्रभाव पर कटाक्ष करते हुए कहा, ‘चौहान यदि सत्ता में वापस आए तो लोगों को रेत भी राशन की दुकानों से लेनी पड़ेगी.’ वहीं किसानों के मोर्चे पर दिग्विजय सिंह ने बिजली चोरी के मामले में एक लाख सात हजार किसानों को थाने में घसीटे जाने का मुद्दा उठाया है. सिंह का कहना है, ‘यदि किसानों की तरक्की हुई है तो किसानों की आत्महत्या के मामले में मप्र आगे क्यों बढ़ रहा है?’

प्रदेश में भाजपा प्रबंधकों को लग रहा था कि सत्ता परिवर्तन की शुरुआती सभाओं के बाद कांग्रेस का एकता राग ठंडा पड़ जाएगा. किंतु आचार संहिता लगने के बाद मुख्यमंत्री की सभाओं की अपेक्षा कांग्रेस की महारैलियों में उमड़ रही भारी भीड़ ने चौहान की चिंता बढ़ा दी है. लिहाजा सत्ता विरोधी मतों को कांग्रेस की झोली में जाने से रोकने के लिए उन्होंने चार मोर्चों पर तैयारी की है. जैसा कि कहा जा चुका है उन्होंने अपना चुनावी अभियान विकास कार्यों पर केंद्रित रखा है. ऐसे में कांग्रेस यदि उनके विकास को छलावा बताती है तो उनके पास केंद्र की कांग्रेसनीत यूपीए सरकार द्वारा मप्र सरकार की उपलब्धियों पर दिए गए पुरस्कारों की लंबी सूची है. वरिष्ठ पत्रकार आत्मदीप बताते हैं, ‘विकास के मोर्चे पर उनका कांग्रेस से सामना होगा तो वे यह कहकर कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करेंगे कि केंद्र की कांग्रेस ने उनकी उपलब्धियों का सम्मान किया है तो राज्य की कांग्रेस उनकी उपलब्धियों को झूठा कैसे बता सकती है.’ वहीं चौहान को पता है कि कांग्रेस उनकी सरकार के भ्रष्टाचार को चुनावी रंग देना चाहती है. लिहाजा उन्होंने भ्रष्टाचार को केंद्र का मुद्दा बनाया है. बीते दिनों उन्होंने खंडवा में कहा कि जमीन का घोटाला, पनडुब्बी में घोटाला और आसमान में हेलिकॉप्टर घोटाला करके कांग्रेस ने दुनिया भर में भारत की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला दी.

ज्योतिरादित्य का संबंध ग्वालियर के राजघराने से हैं. लिहाजा चौहान की कोशिश है कि यह चुनावी मुकाबला ‘महाराजा बनाम आम आदमी’ हो जाए. वे बार-बार यह दोहरा भी रहे हैं कि कांग्रेस के काल में मुख्यमंत्री जनता से दूरी बनाते थे, जबकि उन्होंने यह दूरी खत्म कर दी. हालांकि यह बात सही है कि चौहान ने अपने कार्यकाल के दौरान प्रदेश में ‘मुख्यमंत्री’ को लेकर प्रचलित ‘राजा’ और ‘महाराजा’ जैसे मिथकों तो तोड़ा है. ऐसी स्थिति में उनकी कोशिश है कि वे जनता के लिए ‘भगवान’ और खुद के लिए ‘सेवक’ जैसे जुमले गढ़कर सिंधिया पर भारी पड़ जाएं. चौहान का आखिरी हथियार विपक्ष को बिखरा और नाकारा बताकर मप्र की राजनीति में खुद को प्रासंगिक बताना है. इसके लिए वे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के दस साल के शासनकाल की विफलताओं को मुद्दा बनाकर उन्हें ‘मिस्टर बंटाधार’ बता रहे हैं. वहीं उनके पीछे भाजपा का प्रचार तंत्र सिंधिया को ‘महाराजा’, भूरिया को ‘नाकारा’ और कमलनाथ को ‘बाहरी’ बता रहा है. कुल मिलाकर, मप्र में भाजपा का प्रचार तंत्र ‘एक आम आदमी’ के रूप में एक बार फिर चौहान का रास्ता आसान बना रहा है.