रूस और यूक्रेन के बीच जारी जंग में इन दोनों देशों में रह रहे भारतीय नागरिकों और मेडिकल विद्यार्थियों की चर्चा देश भर में ख़ूब रही। ये लोग एक ओर मुसीबत वतन वापसी की चिन्ता में रहे, तो वहीं दोनों युद्धरत देशों के पड़ोसी देशों द्वारा भारतीयों को शरण देकर सुरक्षित निकालने जैसी राहत भरी ख़ूबरें सामने आयीं। इसके साथ ही दोनों देशों में रह रहे भारतीय नागरिकों व विद्यार्थियों को निकालने के लिए रूस और यूक्रेन में सुरक्षित गलियारे पर सहमति बनी है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर डॉ. ए.के. सिंह ने बताया कि 24 फरवरी को यूक्रेन पर रूस के हमले के पहले ही वहाँ पर रहे भारतीयों को यूक्रेन छोडऩे के सरकार ने दिशा-निर्देश जारी किये थे। इसके बावजूद 15,000 से ज़्यादा भारतीय नागरिक और विद्यार्थी वहाँ फँसे रह गये थे, तब भारत में हाहाकार की स्थिति बनी थी।
जेएनयू के पूर्व छात्र नेता व रूस और यूक्रेन के मामलों के जानकार कुमार पंकज का कहना है कि जब देश के पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे थे, तब ऑपरेशन गंगा के तहत सरकारी ख़र्च पर भारतीय नागरिकों को लाया गया है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि यूक्रेन और रूस के युद्ध को लेकर हमारे देश के नागरिकों और सरकार को सचेत होने की ज़रूरत है। साथ ही इस बात पर ग़ौर करने की भी कि सरकार को धरातल पर काम करने की ज़रूरत है। भारत में मेडिकल कॉलेजों की संख्या और बढ़ाने की ज़रूरत है, ताकि हमारे देश के होनहार विद्यार्थी अपने ही देश में रहकर अपने डॉक्टर बनने के सपने को पूरा कर सकें। क्योंकि जो बच्चे यूक्रेन से मेडिकल की पढ़ाई छोडक़र आ रहे हैं, अब उनकी पढ़ाई का क्या होगा? यह आने वाले दिनों में विकट समस्या का विषय बन सकती है। क़रीब 20,000 से अधिक मेडिकल विद्यार्थियों की पढ़ाई युद्ध के चलते बाधित हुई है; जो कब तक बाधित रहेगी? इसे लेकर कुछ नहीं कह सकते। ऐसे में इन विद्यार्थियों के हित में भारत सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को कुछ सार्थक क़दम उठाने होंगे, ताकि इन बच्चों का भविष्य बर्बाद न हो। फॉरेन मेडिकल एसोसिएशन के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने बताया कि एक तो हमारी सरकारें, चाहे वो राज्य सरकारें हों या फिर केंद्र सरकार; जानबूझकर देश में कम-से-कम मेडिकल कॉलेज खोलने में विश्वास करती रही है। इसके पीछे देश में निजी शिक्षा माफिया का बड़ा खेला दशकों से चल रहा है, जो सुनियोजित तरीक़े से अपने लाभ के लिए कई देशों में भारतीय पैसों वालों के बच्चों को पढ़ाई के लिए भेजते हैं। इसके पीछे कुछ सियासी लोगों का हाथ भी होता है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन कई बार यह माँग रख चुका है कि मेडिकल कॉलेजों में सीटें बढ़ायी जाएँ।
डॉ. दिव्यांग देव गोस्वामी ने भारत सरकार और स्वास्थ्य मंत्रालय से माँग की है कि युद्ध के चलते जो विद्यार्थी अधर में पढ़ाई छोडक़र मजबूरन देश वापस आ रहे हैं, उनकी पढ़ाई सुचारू रखने के लिए कारगर क़दम उठाए। इन बच्चों की पढ़ाई का रास्ता भारत सरकार, राज्य सरकारों और मेडिकल प्रशासन को निकालना होगा। अगर सरकारी मेडिकल कॉलेजों में इन विद्यार्थियों को दाख़िला देने की क्षमता नहीं है, तो अन्य विकल्पों को निकालना चाहिए। यूक्रेन से मेडिकल की पढ़ाई छोडक़र आये विद्यार्थियों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बात की करके मेडिकल की सीटें बढ़ाने का भरोसा दिलाया है, तो यह सन्तोष करने वाली बात है। लेकिन सवाल यह है कि सीटें कब तक बढ़ेगी? विदेशों में पढ़ाई करने वालों की संख्या हर साल तीन से चार गुना बढ़ रही है। अगर भारत सरकार अपने ही देश में शिक्षा संसाधनों को बढ़ाएगी, तो देश की अर्थ-व्यवस्था मज़बूत हो सकती है। आर्थिक मामलों के जानकार सचिन सिंह का कहना है कि ऑपरेशन गंगा की तरह सरकार को देश में शिक्षा में सुधार करना चाहिए। आख़िर सरकार कब तक पिछली सरकारों को दोष देकर बचती रहेगी। देश में हर साल लगभग आठ लाख विद्यार्थी ही मेडिकल शिक्षा के लिए नीट परीक्षा पास करते हैं। उनमें से 90,000 ही सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों में दाख़िला ले पाते हैं। बाक़ी विद्यार्थी देशी-विदेशी कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में दाख़िला लेने के लिए मोटा पैसा देने के लिए भी तैयार हो जाते हैं, जिसका फ़ायदा शिक्षा माफिया उठाते हैं। केंद्र व राज्य सरकारें इस दिशा में कोई काम करें, ताकि देश में डॉक्टरों की कमी को भी पूरा करने के साथ-साथ देश की अर्थ-व्यवस्था को भी मज़बूत किया जा सके और देश बच्चों की पढ़ाई देश में हो सके।