मज़बूत शिक्षा व्यवस्था किसी भी देश के विकास और समृद्धि का आधार होती है। चाणक्य ने कहा है कि शिक्षा के बिना इंसान का जीवन कुत्ते की पूँछ की तरह होता है। जिस प्रकार कुत्ते की पूँछ उसके किसी काम की नहीं होती, ठीक उसी प्रकार शिक्षा विहीन मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं होता। शिक्षा की शुरुआत घर और समाज से होती है। इसके बाद स्कूल आता है। पिछले एक दशक में भारत में शिक्षा व्यवस्था पर कमज़ोर होने के आरोप लगे हैं। एक तरफ़ जहाँ स्कूलों तक बच्चों के जाने की सुविधाएँ बढ़ रही हैं, स्कूलों की ख़राब होती दशा और कोरोना में ठप हुई बच्चों की पढ़ाई ने चिन्ता बढ़ायी है। हालाँकि पिछले चार-पाँच दशक में दाख़िले के आँकड़े बढ़े हैं, जिसके पीछे छात्रवृत्ति और मिड-डे मील जैसी योजना का योगदान रहा है। लेकिन इससे न ही शिक्षा की गुणवत्ता में ख़ास सुधार हुआ और न ही निम्न वर्ग से आने वाले बच्चों की दशा में।
इसी का नतीजा रहा कि झारखण्ड में शिक्षा का स्तर भी गिरा और मज़हबी जुनून भी हावी हुआ। राज्य के विभिन्न ज़िलों में स्थानीय लोगों के दबाव में स्कूल के नाम में उर्दू शब्द जुड़ गया। मज़हब के तौर पर स्कूलों का इस्तेमाल किया जाने लगा है। रविवार की जगह शुक्रवार को साप्ताहिक अवकाश होने लगा। वहीं बच्चे हाथ मोडक़र प्रार्थना करने लगे हैं। यह लम्बे अर्से से चल रहा। जब मामले का ख़ुलासा हुआ, तो सरकार हरकत में आयी। स्कूलों के नाम ठीक कराये गये। अधिकारियों और शिक्षकों पर दबाव बनाया गया। हालाँकि कुछ इलाक़ों के स्कूलों की स्थिति थोड़ी बदली है। लेकिन कितने समय तक बदली रहेगी और भविष्य में इस तरह की घटना दोबारा नहीं होगी, यह कहना मुश्किल है। क्योंकि समस्या सामाजिक है। दरअसल समाज में जो धर्म का ज़हर घुल रहा, उसका असर झारखण्ड के स्कूली शिक्षा व्यवस्था पर दिख रहा। इसे दूर करने की ज़रूरत है। न कि दबाव बनाकर तात्कालिक लीपापोती कर मामले को टालने की। नहीं तो आने वाले दिनों में मामला फिर से तूल पकड़ सकता है।
519 स्कूलों में बदलाव हैरानी की बात है कि झारखण्ड में राज्य के गढ़वा, दुमका और जामताड़ा समेत कई ज़िलों में सरकारी स्कूलों के नाम बदल दिये गये। सरकारी स्कूलों के नाम में उर्दू शब्द जुड़ गया और स्कूल के बोर्ड पर भी लिख गया। इन स्कूलों का नाम राजकीय प्राथमिक विद्यालय या राजकीय प्राथमिक मध्य विद्यालय था। इन्हें एक साज़िश के तहत बदलकर ‘राजकीय उर्दू प्राथमिक विद्यालय’ और ‘राजकीय उर्दू प्राथमिक मध्य विद्यालय’ लिख दिया गया। ऐसे एक-दो नहीं, बल्कि पूरे राज्य में 519 स्कूल थे। इसी तरह इन स्कूलों में रविवार की जगह शुक्रवार को साप्ताहिक अवकाश होने लगा। विभागीय जानकारी के अनुसार, देवघर के 156 स्कूलों, गोड्डा के 88, गिरिडीह के 67, पलामू के 50, दुमका के 10, जामताड़ा के 10, गढ़वा के 10, साहिबगंज के आठ, लातेहार के सात, पूर्वी सिंहभूम के पाँच, कोडरमा, चतरा, रामगढ़ और रांची के दो-दो और गुमला व सरायकेला के एक-एक स्कूल के नाम बदले दिये गये थे। वहीं राज्य के इन ज़िलों के 519 स्कूलों में रविवार की जगह शुक्रवार को छुट्टी हो रही थी। हालाँकि इस तरह के स्कूल सरकारी आँकड़े से अधिक हों, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।
घातक प्रयास
स्कूल वो जगह है, जहाँ बच्चों का भविष्य बनाया जाता है। उन्हें अच्छी शिक्षा के साथ-साथ अच्छा नागरिक बनने का भी पाठ पढ़ाया जाता है। समानता, समरसता का पाठ पढ़ाने के लिए खोली गये इन्हीं स्कूलों में अगर नौनिहालों का मन बदलने का प्रयास हो, तो यह भविष्य के लिए घातक साबित होगा। राज्य के 519 स्कूलों में कुछ ऐसा ही हो रहा है। कुछ स्कूलों में बच्चे नियम के तहत प्रार्थना नहीं करते। वे हाथ जोडऩे के बजाय हाथ बाँधकर खड़े रहते हैं। कई बच्चे हैं, जो हाथ जोडक़र या खोलकर प्रार्थना करने का अर्थ भी नहीं समझते हैं। फिर हाथ न जोडऩे की सोच उनमें कौन भर रहा है? स्कूलों के नाम बदलने में भी बच्चों की भूमिका का सवाल नहीं है। ज़ाहिर है कुछ परिवारों और समाज से यह मानसिकता स्कूलों तक पहुँच रही है।
विधानसभा में उठा मामला
स्कूलों के नाम बदलने और छुट्टी के दिन बदलने का मामला मानसून सत्र के दौरान झारखण्ड विधानसभा में उठा। विधायक अनंत कुमार ओझा ने स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग से इस सम्बन्ध में जानकारी माँगी थी। विभाग ने बताया है कि इस सम्बन्ध में विभिन्न ज़िलों से प्रतिवेदन प्राप्त हुआ है। वस्तुस्थिति यह है कि राज्य के 407 स्कूलों में स्थानीय स्तर पर उसे उर्दू स्कूल घोषित किया गया था। इसी तरह से राज्य भर के 509 ऐसे स्कूलों का पता लगा, जिसमें रविवार को निर्धारित सरकारी अवकाश की बजाय शुक्रवार को साप्ताहिक अवकाश दिया जा रहा था। कई स्कूलों में एक विशेष समुदाय द्वारा हाथ जोडक़र प्रार्थना करने से मना किये जाने के सवाल पर भी स्कूली शिक्षा विभाग ने जानकारी दी।
एनआईए जाँच की माँग
पिछले दिनों लोकसभा के मानसून सत्र के दौरान गोड्डा सांसद निशिकांत दूबे ने भी इस मुद्दे को उठाया था। सांसद निशिकांत दुबे ने दावा किया कि झारखण्ड में 1,800 स्कूलों में रविवार की बजाय शुक्रवार को छुट्टी हो रही है। उन्होंने कहा कि यह प्रमाणित करता है कि देश इस्लामीकरण की तरफ़ बढ़ रहा है। उन्होंने सदन में शून्यकाल के दौरान यह विषय उठाते हुए कहा कि इस मामले की जाँच राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (एनआईए) से कराई जाए, ताकि कड़ा सन्देश दिया जा सके।
देरी से उठा पर्दा
राज्य के 24 ज़िले हैं। यह मामला 16 ज़िलों तक पहुँचा। यह साज़िश लम्बे समय का परिणाम है। हालाँकि यह सब सरकारी या विभागीय आदेश पर नहीं हुआ। विशेष समुदाय के स्थानीय लोगों और नेताओं के दबाव में हुआ। लेकिन हैरानी है कि इसकी भनक शिक्षा विभाग और स्थानीय अधिकारियों को नहीं लगी। या यह कहें कि इस गतिविधि को नज़रअंदाज़ किया गया। सवाल यह है कि आख़िर स्कूलों के शिक्षकों ने इस बारे में शिक्षा विभाग के उच्चाधिकारियों को इसकी सूचना क्यों नहीं दी? सरकार भी काफ़ी देर बाद तब जागी, जब मीडिया में इस मामले का ख़ुलासा हुआ। फ़िलहाल स्कूल के नाम से उर्दू शब्द हटाने का आदेश जारी कर दिया गया। शुक्रवार की जगह रविवार को अवकाश बनाये रखने का आदेश दिया गया। सवाल यह है कि सरकार कब तक विशेष समुदाय की इस सोच पर रोक लगा सकेगी? क्योंकि जिन स्कूलों में यह सब हुआ, वो सभी मुस्लिम बहुल क्षेत्र में हैं। लेकिन यहाँ सनातन और दूसरे धर्मों के भी बच्चे हैं। बच्चों को इस राजनीति का अंजाम नहीं मालूम है, उन्हें तो सिर्फ़ मोहरा बनाया जा रहा है। समाज में घर्म का नशा घोला जा रहा है। नौनिहालों को इसमें शामिल किया जाना समाज और देश के लिए घातक है।
स्कूल केवल शिक्षा का मन्दिर
मैं ख़ुद एक क्रिश्चन माइनॉरिटी स्कूल का छात्र रहा हूँ। स्कूल में ईसाई समुदाय की तरह प्रार्थना कराया जाता था। प्रार्थना के शब्द ‘अवर फादर, हू आर्ट इन हेवन….’ लगभग 32 साल बाद आज भी याद हैं। इसे सभी छात्र करते थे। चाहे वे किसी भी धर्म के हों। मेरी तरह लाखों-करोड़ों की संख्या में लोग होंगे, जो जिस भी स्कूल में पढ़ते थे, वहाँ के निर्धारित तरीके से ही प्रार्थना करते थे। स्कूल में या बच्चों में मज़हब और धर्म जैसे शब्द नहीं होते थे। स्कूल केवल शिक्षा का मन्दिर हुआ करता था।
कालांतर में इसमें बदलाव आने लगा है, जो धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है। राजनीतिक और सामाजिक गड़बड़ी और कुरीतियों का असर शिक्षा पर छाने लगा। यही झारखण्ड के स्कूलों में भी हुआ। सामाजिक दबाव, राजनीति के खेल और वोट बैंक ने स्कूलों की व्यवस्था को बदला। बच्चों की सोच को बदलने का प्रयास किया जा रहा। ऐसी बातों को प्रश्रय देने का सीधा-सीधा निहितार्थ यही है कि धर्म के आधार पर समाज का बँटवारा। धार्मिक वैमनस्यता की विष बेल रोपना स्वीकार्य नहीं हो सकता। इस तरह तो एक नई और बेहद विध्वंसक परम्परा की शुरुआत हो जाएगी। स्कूली शिक्षा को इससे अलग रखना आवश्यक है। इस पर समाज के सभी वर्ग, जाति, धर्म और सम्प्रदाय के लोगों को सोचना होगा। शिक्षा का वह मन्दिर जहाँ हम इकबाल का लिखा हुआ गीत एक सुर में सीख कर गाते हैं कि ‘हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्ताँ हमारा।’ इसे कायम रखना होगा। तभी भविष्य सुदृढ़ हो सकेगा। समानता, समरसता का पाठ पढ़ाने के लिए खोली गयी संस्थाएँ राजनीति का अखाड़ा बनाने से रोकना होगा। तभी भविष्य में धर्म और जाति का विष बेल बड़ी होकर समाज को और नहीं बाँट सकेगी।