इस दौर में ज्यादातर लोगों को चार तरह के घरों में जाना बुरा लगता है. एक वे जिनमें जूते बाहर उतार अंदर जाना पड़े. दूसरे वे जहां पैर छूने को परंपरा/संस्कृति की सर्वोत्तम कसौटी माना जाए. तीसरे वे जहां 40 पार का मनुष्य दूसरे 40 पार के मनुष्य को सामने देखते ही चेहरे की झुर्रियों में चिंता भर सिर्फ ‘तबीयत’ से जुड़े सवाल-जवाब करता मिले, ‘कैसी तबीयत है आपकी?’,‘तबीयत ठीक नहीं लग रही, आराम करिए आप’. और फिर चौथे वे घर जहां लोग चेहरे पर, कपड़ों पर और बातों में रुपये-पैसे चिपकाए घूमते-बैठते मिलें. आपका फेसबुक इन चारों तरह के घरों से अलग है. यहां न भेद है, न वेद है. यह यत्र तत्र सर्वत्र है.
आभासी दुनिया की किसी चीज को इस तरह रूपक से जोड़ना अपने आप में एक नया अनुभव है. आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लदी-फदी यह किताबी चेहरे वाली दुनिया कब इतनी मानवीय हो लोगों रूपी बिंदुओं को जोड़ते-जोड़ते खूबसूरत पोर्ट्रेट हो गई, पता ही नहीं चला. इसका ऐसा भविष्य होना किसी ने सोचा भी नहीं था. मार्क जकरबर्ग ने भी नहीं. जब 2005 में एक इंटरव्यू के दौरान ‘द फेसबुक’ के भविष्य पर सवाल किए गए तो जवाब देने में संघर्ष करता 20 साल का यह लड़का इतना ही कह पाया था, ‘कोई जरूरी नहीं है कि फेसबुक अभी दी जा रही सुविधाओं के अलावा भी कुछ नया, या आज से ज्यादा बेहतर आने वाले वक्त में दे सके.’
लेकिन फेसबुक ने काफी कुछ दिया. बहुत सारे परिवर्तन किए और खुद कई बार परिवर्तित भी हुआ. इसलिए आपके फेसबुक पन्ने को घर कहना, पूरे फेसबुक को एक शहर कहना बतकही नहीं है. किसी एक उपमहाद्वीप की किसी खास तरह की मिट्टी वाली जमीन पर इसकी बसाहट नहीं है फिर भी दुनिया के नक्शे के हर कोने को छूते इस शहर में बने घरों में रह हम सब खुश हैं. आप शिकागो के हैं, फिर भी आप शिकोहाबाद को जान सकते हैं. शिकोहाबाद की रबड़ी पर लोगों के साथ वाद-विवाद कर सकते हैं, देसी घी वाली सोन पपड़ी और बेड़ई-सब्जी के जायकों की तस्वीरों से इलाके के लोगों के रहन-सहन की झलक ले सकते हैं. हूबहू ऐसे ही एक शिकोहाबादी शिकागो से भी रूबरू हो सकता है. और फिर यह भी तो है कि घर बनाने के लिए यहां किसी को भी किसी राजीव गांधी आवास योजना की जरूरत नहीं! उसके आगे-पीछे की राजनीति की भी नहीं.
फेसबुक की तरह ही विशाल शहर है ट्विटर. लेकिन वहां घर नहीं है. घर के होने वाली जगहों पर बड़े-बड़े होर्डिंग हैं जिन पर लिखे 140 अक्षरों के ज्ञान को रंग-बिरंगे लट्टुओं की झालर से जगमग-चकमक कर दुनिया के सामने रोशन करने की कवायद रोज का कारोबार है. फेसबुक में ‘घर-घर’ खेल वाली आत्मीयता है तो ट्विटर में बड़े-ऊंचे लोगों के बीच जगह बनाने की कोशिश करने वाले एक प्रवासी का संघर्ष. और 140 अक्षरों की ऐंठन. जहां ट्विटर की कुलीनता कुछ वक्त बाद काटने को दौड़ती है, फेसबुक का घरेलूपन परायेपन को काटता है. लोगों को अपनाता है. शायद यही वजह है कि हर महीने ट्विटर का सक्रिय रूप से उपयोग करने वाले 23.2 करोड़ वाले उसके संपूर्ण यूजर बेस के बराबर के लोगों को तो फेसबुक सिर्फ पिछले साल ही अपने से जोड़ चुका है. अर्थात, पिछले साल फेसबुक अपने अंदर एक पूरा ट्विटर बसा चुका है!
इस चार फरवरी को जब फेसबुक दस का हुआ तो एक दिन बाद अभिषेक बच्चन 48 में दस कम के हुए. 2004 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में जब एक 19 साल का सोफोमोर (दूसरे साल का अंडर ग्रैजुएट) छात्र ‘द फेसबुक’ लॉन्च कर चुका था तब तक अभिषेक बच्चन 13 खराब फिल्मों में 13 बार खराब अभिनय कर चुके थे. और इत्तफाकन, द फेसबुक के लांच होने के बाद ही उन्होंने पहली बार अच्छा अभिनय किया और पहली बार ही किसी हिट बॉलीवुड शाहकार का हिस्सा रहे. ये क्रमश: युवा और धूम थीं! लेकिन उसके बाद कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो उनका फिल्मी करियर कट चुकी पतंग के जमीन पर गिर चुकने से पहले के जीवन को चरितार्थ कर रहा है. ठीक इसी तरह का जीवन फेसबुक के पहले-साथ-बाद आए कई दूसरे सोशल नेटवर्क भी चरितार्थ कर रहे हैं/थे. ये एक जमाने में फेसबुक के प्रतिद्वंद्वी थे, अब अभिषेक बच्चन हैं.
फेसबुक पर आज हर महीने करीब 1.2 अरब एक्टिव यूजर अपना वक्त गुजारते हैं. यह आंकड़ा लिंक्डइन, ट्विटर और गूगल प्लस अपने-अपने यूजरों को एक साथ जोड़ कर भी नहीं छू पा रहे हैं. अपने प्रतिद्वंद्वियों के लिए फेसबुक शुरू से ही इतना अपराजेय रहा है. फेसबुक शुरू होने के एक साल बाद ‘कॉलेज टूनाइट’ (college tonight) आया, और चुपचाप गायब हो गया. ‘एनीबीट’ (anybeat) भी आया और उसकी भी चाप कोई नहीं सुन पाया. इन छोटे और कम सुने नामों के अलावा ‘मायस्पेस’ (Myspace) था, जो 2008 के बाद से ही फेसबुक की छाया से मुक्त नहीं हो पाया और अब नए सिरे से शुरुआत करने को विवश है. ऐसा ही कुछ ‘फ्रेंडस्टर’ (Friendster) के साथ भी हुआ. और समीक्षकों द्वारा सराहे गए ‘डाइस्पोर’ (diaspora) के साथ भी. आज के जीवित दूसरे सोशल नेटवर्कों में लिंक्डइन और ट्विटर अपनी सीमाओं की वजह से फेसबुक जैसा नहीं बन पा रहे, वहीं गूगल प्लस की कहानी में मनोरंजन ज्यादा है. जीमेल की बदौलत मिले वृहत यूजर बेस के बावजूद गूगल प्लस की असफलता के बाद अब जब कोई ज्ञानी फेसबुक और गूगल प्लस की तुलना करता है तो लगता है जैसे कोई वालमार्ट और वी-मार्ट पर तुलनात्मक शास्त्रार्थ कर रहा हो!
लेकिन ऐसी कई सफलताओं के बावजूद फेसबुक को शुरू से खारिज करने वालों की बड़ी संख्या रही है. इनका निराशावाद से सामंजस्य ऐसा है कि इन लोगों व संस्थाओं द्वारा फेसबुक आज भी खारिज हो रहा है. कभी कोई इनवेस्टर आने वाले कुछ सालों में फेसबुक के गायब होने की भविष्यवाणी कर देता है तो कभी कोई लेखक लिखता है कि फेसबुक इंटरनेट के इतिहास में सिर्फ एक फुटनोट बन कर रह जाएगा. प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने हाल ही में निष्कर्ष निकाला है कि फेसबुक 2015 तक खत्म हो जाएगा. इंटरनेट के जनक विंट सर्फ जो गूगल के वाइस प्रेजिडेंट भी हैं, ने 2011 में कहा कि फेसबुक चारों तरफ से बंद एक ऐसा गार्डन बन चुका है जो अपने उपभोक्ताओं की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरेगा और जल्द ही एओएल (AOL – America Online Inc.) की तरह हो कर असफल हो जाएगा. 2012 में जब फेसबुक अपना आईपीओ लाया, तब उसके शेयर खरीदने के लिए लगी लंबी कतार में वॉरेन बफे (विश्वप्रसिद्ध निवेशक और दुनिया के सबसे धनी लोगों में शुमार) नहीं थे. उनका तर्क था कि फेसबुक जैसी कंपनियों की कीमत आंकना टेढ़ा काम है क्योंकि यह अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है कि आने वाले 5-10 साल में फेसबुक कहां पहुंचेगा. वॉरेन बफे के बिजनेस पार्टनर चार्ली मुंगर थोड़े ज्यादा तीखे थे, ‘मैं उन चीजों में निवेश नहीं करता जिन्हें मैं नहीं समझता. और मैं फेसबुक को समझना ही नहीं चाहता.’ युवा भी पीछे नहीं थे. आईपीओ के समय रेडिट (Reddit) के को-फाउंडर ऐलेक्स ओहानियन भी तल्ख थे, ‘अगर फेसबुक ऐसे ही यूजर्स की प्राइवेसी का अनादर करता रहा तो वह जल्द ही गुजरे कल की बात हो जाएगा.’
लेकिन फेसबुक टिका है. दुनिया की आबादी के 17 प्रतिशत से ज्यादा लोगों को सक्रिय रूप से खुद से जोड़कर. और हर महीने 1.23 अरब एक्टिव यूजर और एक अरब के नजदीक पहुंचते मोबाइल यूजरों के साथ. इन आंकड़ों में चीन शामिल नहीं है क्योंकि चीन के ज्यादातर हिस्सों में फेसबुक पर पाबंदी है. लेकिन एक-दूसरे से विपरीत दिशा में होने के बावजूद चीन और फेसबुक आने वाले वक्त में एक अनोखे रिश्ते में बंध सकते हैं! एक अनुमान के अनुसार अगर फेसबुक का यह यूजर बेस इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो 2015 तक इस सोशल नेटवर्क के यूजर्स चीन की जनसंख्या से ज्यादा हो जाएंगे. इस जनसंख्या विस्फोट को संभालने के लिए अभी फेसबुक के पास 6,000 से ज्यादा कर्मचारी और विश्व भर में 37 से ज्यादा दफ्तर हैं. वैसे यह वही 2015 है जब फेसबुक के खत्म हो जाने की भविष्यवाणी शोध के माध्यम से की जा चुकी है! लेकिन इंटरनेट कंपनियों के बाजार को समझने वाले जानते हैं कि दस साल तक अपना ऑनलाइन साम्राज्य और अस्तित्व बनाए रखना इस युग में कितना मुश्किल है. कुछ ही और इंटरनेट कंपनियां हैं जो दस साल में फेसबुक जैसी ऊंचाइयों पर पहुंची हैं. और गूगल, अमेजन जैसी एक-दो कंपनियों को छोड़ शायद ही कोई हो जिसके आने वाले भविष्य पर इतने विमर्श होते हों. यही वजह है कि बाजार उन अटकलों से भरा पड़ा है कि आने वाले दस साल में फेसबुक क्या-क्या करेगा.
फेसबुक के पिछले दस साल वैसे ही गुजरे जैसा मार्क जकरबर्ग को शुरू में अपने इस स्टार्ट-अप से उम्मीद थी. हालांकि उसका दायरा उम्मीदों से ज्यादा वृहत होता गया लेकिन वह विचार, कि आभासी दुनिया में एक ऐसा स्पेस बनाया जाए जहां नए लोग मिलें और आपस में नई जानकारियां बांटें आज भी कंपनी के काम का आधार है. फेसबुक के शुरुआती दिनों में जकरबर्ग का कहना था, ‘जब हमने इसे लॉन्च किया तो उम्मीद थी कि 400 से 500 लोग इससे जुड़ेंगे. अब जब एक लाख लोग फेसबुक से जुड़ चुके हैं, हो सकता है हम एक ‘कूल’ चीज बना जाएं.’ फेसबुक के कूलत्व ने उसके दस साल के सफर को तो आरामदायक बना दिया, लेकिन अब आने वाले दस साल का क्या?
फेसबुक की सबसे बड़ी सफलता है कि इसमें ‘सभी कुछ’ है. यह एक सर्च इंजन है, लोगों को जोड़ने वाला नेटवर्क है, डेटिंग साइट है, फैमिली फोटो एलबम है, एक एड्रेस बुक है, इंस्टेंट चैट है, बर्थडे अलार्म है, नई-नवेली शादी का उद्घोषक है, कॉलेज के दोस्तों की रि-यूनियन है, और एक अखबार है. लेकिन फेसबुक की यही सफलता – सोशल मीडिया की सारी जरूरी चीजों को समाहित कर सभी कुछ एक जगह देना – अब उसे परेशान कर रही है. मतलब अब ऐसा क्या नया है, जो फेसबुक खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए कर सकता है?
पिछले दो पैराग्राफों के आखिर में किए दो सवालों के जवाब आगे के तीन सवालों में हैं. क्या आने वाले वक्त में फेसबुक अभी की तरह एक ‘सोशल नेटवर्क’ ही रहेगा या एक ‘मीडिया कंपनी’ बनेगा? जिस तरह आज गूगल को लोग एक सर्च इंजन के तौर पर कम और एक बड़ी मीडिया कंपनी के तौर पर ज्यादा जानते हैं, क्या आने वाले दस साल में फेसबुक भी उसी राह पर चलेगा? क्या 2024 का फेसबुक अपने आज के यूजर बेस में एक और अरब लोगों को जोड़ने वाला सोशल नेटवर्क होते हुए भी एक मीडिया कंपनी के तौर पर ज्यादा जाना जाएगा? फेसबुक द्वारा उठाए गए कुछ नए कदम उसकी मीडिया कंपनी की आधारशिला की तरफ ही इशारा करते हैं.
पहला कदम है मोबाइल स्पेस में उसकी बदली हुई रणनीति. आपको आपके फेसबुक मोबाइल पर नए-नए फीचर देने की बजाय फेसबुक अब गूगल जैसी मीडिया कंपनी के तरह अलग-अलग प्रकार के एप बाजार में ला रहा है और उन्हें मोबाइल पर आपके फेसबुक पेज से जोड़ रहा है. जैसे पहले मैसेंजर एेप आया, व्हाट्सएप को टक्कर देने के लिए. उसके बाद स्नैपचैट को टक्कर देने के लिए पोक आया. हालांकि मैसेंजर साधारण निकला और पोक बुरी तरह फ्लॉप रहा, लेकिन इससे 2014 में कई नए एप बाजार में लाने की फेसबुक की स्ट्रैटजी पर कोई फर्क नहीं पड़ा. और इसी रणनीति के तहत अपनी दसवीं वर्षगांठ के ठीक एक दिन पहले फेसबुक ने ‘पेपर’ नाम का एेप लांच किया. ‘पेपर’ ने ही इस बात को पुख्ता किया है कि आने वाले वक्त में फेसबुक की मंशा खुद को एक मीडिया कंपनी के तौर पर स्थापित करना ही है. किसी भी मीडिया कंपनी के लिए कंटेंट क्रिएट करना एक मुख्य काम होता है. और ‘पेपर’ का कंटेंट सिर्फ यूजर्स से ही नहीं आ रहा. खबर है कि फेसबुक ने इसके कंटेंट को रचने के लिए खास तौर पर एडिटरों की नियुक्ति की है. अभी संपादक आए हैं, हो सकता है कुछ समय बाद फेसबुक लेखकों को नियुक्त करे, और फिर अभिनेताओं को. और इन सभी को साथ लेकर हो सकता है आने वाले समय में फेसबुक टीवी शो भी प्रोड्यूस करे! ये पतंग को कुछ ज्यादा ऊंचा उड़ाना लग सकता है लेकिन कुछ वक्त पहले किसने सोचा था कि अमेजन जैसी विशालतम ई-कॉमर्स कंपनी अपने खुद के टीवी शो और फिल्में बनाएगी?
अगर ऐसा हुआ और फेसबुक कंटेंट रचने लगा तो उसके बाद एपल, गूगल और अमेजन को टक्कर देने के लिए उसे हार्डवेयर के बाजार में भी उतरना होगा. और इसके बाद आपको आपका पन्ना देने वाला एक सोशल नेटवर्क एक विशाल मीडिया कंपनी में तब्दील हो जाएगा, जिसका मुख्य लक्ष्य आज की तरह सिर्फ लोगों को अपने सोशल नेटवर्क से जोड़ना नहीं रह जाएगा. 2024 का फेसबुक ऐसा ही होने की उम्मीद है. लेकिन उम्मीद यह भी है कि फेसबुक का उपयोग करने वाले यूजर्स के लिए यह तब भी लोगों से जुड़ने और संवाद स्थापित करने का माध्यम बना रहेगा. क्योंकि हमारे लिए कल भी फेसबुक का आज जैसा होना ही जरूरी है.
फेसबुक के आज के स्वरूप के परिपक्व होने की कई वजहें हैं. ये वजहें परिवर्तन है. वे परिवर्तन जो फेसबुक अपने मौजूदा रूप में दुनिया भर के समाज में लाया है. दुनिया छोटी है, इसे फेसबुक ने ही सच किया. जितने लोगों को फेसबुक ने आपस में जोड़ा, उतने लोगों को आज तक के इतिहास में किसी और कंपनी ने आपस में नहीं जोड़ा. आपस में जुड़ने के बाद जिस तरह लोग एक-दूसरे से कनेक्ट हुए, पहले कभी नहीं हुए. पूरी दुनिया को ‘ऑनलाइन’ करने का परिवर्तन फेसबुक ही लाया. फेसबुक ने यूजर को आत्म-मोहित नहीं बनाया, उसे सोशल शेयरिंग का नया चलन सिखाया जिसमें लोगों ने ऐसी चीजों को भी खूब शेयर किया जिसमें ‘वे’ नहीं थे, सिर्फ उनसे जुड़ी खबरें, गाने, वीडियो नहीं थे. और इसी नये चलन वाली शेयरिंग ने ‘न्यूज फीड’ को एक गैर-पारंपरिक और मजेदार अखबार बना दिया. फेसबुक ने राजनीति को भी बदला. लगभग हर देश की. ओबामा ने 2008 में जिस तरह फेसबुक का अपने कैंपेन के लिए उपयोग किया उसकी नकल हम आज-कल भारत के फेसबुक पन्नों पर देख ही रहे हैं. लेकिन फेसबुक ने सबसे ज्यादा राजनीति को मिडिल ईस्ट में बदला, इतना कि फेसबुक को उस क्रांति का ‘जीपीएस’ तक कहा गया. फेसबुक ने भाषा को भी बदला. इंग्लिश शब्दकोशों को फ्रेंड, लाइक, पोक, वॉल, टैग, अनलाइक, अनफ्रेंड जैसे हर्फों के नए अर्थ देकर.
हिंदुस्तान में फेसबुक ने कई चीजों के साथ हिंदी को भी बदला. क्षेत्रीय भाषाओं को भी. नए लेखक दिए. चिरकुट नज्म लिखने वाले कवियों को अपने-अपने पन्नों पर छपने का मौका भी. अभिव्यक्ति की एक नई और बड़ी खिड़की खोली. जिज्ञासु मगर हिंदी साहित्य से दूर हिंदी प्रेमियों को ‘नौकर की कमीज’ और मुक्तिबोध से परिचित करवाया. खत्म होते जा रहे ब्लॉग कल्चर को नया ‘लिंक’ दिया. भाषाओं को सहेजा, उनमें नए शब्द जोड़े.
भाषाओं से हटकर, इसने हमें प्यार भी करवाया. यह भी बताया कि एक किताब है जो कभी खत्म नहीं होगी. और वैसे तो यह फेसबुक के नाम प्रेम-पत्र नहीं है, लेकिन उसके लिए हमारा प्रेम कम भी नहीं है!