भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) से इस्तीफा देने वाले कश्मीर कैडर के शाह फैसल की खबरों पर मेरी पहली सहज प्रतिक्रिया आश्चर्य की बात थी। एक सुखद आश्चर्य। कोई भी सिविल अधिकारी अपने करियर के चरम पर इस्तीफा देने की बात नही सोचता। यह एक दुर्लभ अपवादों में से एक है। एक नाराज़ या विद्रोही नौकरशाह लंबी छुट्टी ले लेगा या अपनी छुट्टी आगे बढ़ा लेगा । लेकिन वास्तव में अपने पद से इस्तीफा नहीं देगा जो उसे पूर्ण शक्ति प्रदान करता है।
इसके अलावा राजनीतिक शासकों के साथ नौकरशाहों की निकटता के महत्वपूर्ण तथ्यों को नजऱअंदाज नहीं किया जा सकता । वे हमेशा राजनीतिक मालिकों के साथ रहते हैं। कभी भी राजनीतिकों की बात नहीं काटते। शायद ही वे कभी राजनीतिक मालिकों के खिलाफ गए हों। यहां तक कि सबसे असंतुष्ट नौकरशाह भी सेवानिवृति के बाद अपने संस्मरणों को लिखते हैं जब सेवानिवृति के सभी लाभ उन्हें मिल चुके होते हैं।
मंैं इस बात पर ध्यान देना नहीं चाहती की नौकरशाह सिविल सेवा से इस्तीफा देने का विकल्प क्यों नहीं चुनते मैं इस आसमान्य मामले पर ध्यान देना चाहती हूं जहां एक युवा कश्मीरी नौकरशाह शाह फैसल ने इस्तीफा देने का फैसला किया जिसने 2010 की सिविल सेवा परीक्षओं में टॉप किया था। शुक्र है वह उन दुनियावी एक लाइन वाले लोगों जैसा नहीं है जो व्यक्तिगत कारणों से इस्तीफा देते हैं न ही वह कमजोर और बहाना बनाने वालों में से है। इसके विपरीत उसने ज़ोर देकर और स्पष्ट रूप से कहा,’कश्मीर में कथित हत्याओं और इन मामलों में केंद्र की ओर से गंभीर प्रयास नहीं करने के कारण मैंने भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा देने का फैसला किया है। कश्मीरी जीवन मेरे लिए मायने रखता है’।
शाह फैसल ने कश्मीरी अवाम तक पहुंचने के लिए इस्तीफा दिया। यह स्पष्ट संकेत है कि एक सिविल अधिकारी के रूप में वह लोगों तक नहीं पहुंच सकता था और अगर वह उन तक पहुंच भी जाता तो वास्तव में अपने राज्य के लोगों की सही तरह सेवा नहीं कर सकता था। शायद तब उसके रास्ते में राजनीतिक हस्तक्षेप बहुत ज़्यादा होता।
इसके अलावा इस बात का भी पता चला है कि पुराने सरकारी सेवा नियम सरकारी कर्मचारियों को खुलकर और दिल से बोलने की अनुमति नहीं देते हैं। हां आज के ‘विकसित भारत’ में सरकारी कर्मचारियों से उम्मीद की जाती है कि वे चुपचाप काम करें उन्हें बोलने, बहस करने और असंतोष जाहिर करने की बहुत कम आजादी होती है। याद कीजिए कुछ महीने पहले आज के विकसित भारत में घट रही रेप की घटनाओं पर शाह द्वारा की गई टिप्पणी के संबंध में उसके वरिष्ठ अधिकारियों ने उससे पूछताछ की थी।
बेशक नौकरी छोडने के बाद, बहुत पुराने नौकरशाही प्रणाली के पुराने तरीकों से दूर शाह फैसल बोलने में सक्षम है और वे सत्ता के गलियारों से दूर है जहां आवाज़ को बहुत व्यवस्थित ढंग और बेरहमी से चुप करा दिया जाता है।
शाह फैसल की तीखी टिप्पणियां केंद्र में मोदी की नेतृत्व वाली दक्षिणपंथी सरकार के लिए बहुत तकलीफ देह साबित हो सकती हैं। यह युवा नौकरशाह बहुत मुखर रहा है। उसने अपने विचारों को दूसरे लोगों की तरह नहीं दबाया जिससे सारे संस्थान अभी हाल के वर्षों में प्रभावित हुए हैं।
देश में हिंदुवादी ताकतों के हाथों लगभग 2000 लाख भारतीय मुसलमानों को हाशिए पर धकेलने और उन्हें दूसरी श्रेणा का दर्जा दने, राज्य की विशेष पहचान पर हमला और असहिष्णुता की बढ़ती संस्कृति और नफरत की घटनाएं बढ़ रही है। आरबीआई, सीबीआई और एनआईए जैसी सरकारी संस्थाओं को नुकसान पहुंचाया जा रहा है, देश की संवैधानिक व्यवस्था को खत्म किया जा रहा है। इस देश में तर्क की आवाज़ को लंबे समय तक दबाया नही जा सकता। यदि हम सच्चे लोकतंत्र की शुरूआत करना चाहते हैं तो इस घेराबंदी के माहौल को समाप्त करना होगा।
शाह फैसल सरकार की आलोचना करने में स्पष्टवादी हैं । वास्तव में इस 35 वर्षीय नौकरशाह ने बताया है कि ईमानदार नौकरशाहों को क्या करना चाहिए। जब तक सरकारी कर्मचारी सरकार को नहीं संभालते तब तक कुछ भी ज़्यादा होने की उम्मीद नही की जा सकती। हम लगातार मूक दर्शक की तरह बैठे रहते हंै। जब तक कि विनाश, भ्रष्टता और गिरावट अनियंत्रित सीमा तक नहीं फैल जाते।
वास्तव में 2002 में हुए गुजरात दंगों के तुरंत बाद गुजरात कैडर के कई सिविल अधिकारियों ने इसकी आलोचना की । गुजरात कैडर के आरबी श्रीकुमार ने इन दंगों में सरकार की भूमिका को उजागर करने के बारे में बहुत कुछ लिखा । उन्होंने नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे उस समय किए गए दावों की पोल खोल दी थी।
उसी समय एक अन्य सिविल अधिकारी हर्ष मंडूर ने सैकडों दंगा प्रभावित लोगों के लिए काम करने के लिए इस्तीफा दे दिया। मंडेर ने भी उन वास्तविकताओं को ध्यान में रख कर लिखा जिन्हें हम भारतीय वर्षों से देख रहे हैं। कुछ अन्य नौकरशाहों ने भी राजनीतिक शासकों के खिलाफ जाने की हिम्मत दिखाई। ऐसे बहादुर साहसी नौकरशाह केवल कुछ मु_ी भर ही हैं। वे वास्तव में सच्चे इनसान हंै।
आज एक भारतीय मुस्लिम के रूप में मैं व्यवस्था में फैली दुर्गन्ध से पूरी तरह निराश और परेशान हूं। चार साल पहले ऐसे लोगों ने जो किसी पक्ष में नहीं थे ने तंज किया कि, ” दक्षिणपंथी क्या नुकसान कर सकते हैं वे तो एक संवैधानिक ढांचे के अंदर कार्य करते है।’लेकिन उस ढंग को देखिए जिसमें संस्थान चल रहे हैं और नष्ट हो रहे है। यह बुरे दिन हैं जहां अराजक दलों को ढील देकर हमारे बीच छोड दिया गया है। हम देखते हैं कि कई दागी लोग लगातार शासन कर रहे हैं जबकि वे राज्य में हुई हत्याओं के मामले में अभियुक्त हंै। यह सब फर्जी सबूतों के आधार पर हो रहा है।