प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को 74वें स्वतंत्रता दिवस पर अपने 86 मिनट के राष्ट्रीय सम्बोधन में सुरक्षा व सम्प्रभुता को लेकर सरकार का कड़ा रुख साफ करने के साथ-साथ बड़े आर्थिक व सामाजिक सुधारों का ज़िक्र किया। इसी के साथ उन्होंने देश की अवाम को इससे भी अवगत कराया कि सरकार लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु पर फिर से विचार कर रही है। प्रधानमंत्री ने कहा कि लड़कियों की शादी की उपयुक्त उम्र क्या होनी चाहिए, इस बारे में केंद्र सरकार विचार कर रही है। चर्चा है कि सरकार की मंशा लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु 18 वर्ष से बढ़ाकर लड़कों के बराबर 21 वर्ष करने की है।
इस विषय पर बात करने से पहले थोड़ा पीछे लौटते हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सदन में अपने 2020-2021 वित्तीय भाषण में ऐलान किया था कि महिलाओं की शादी की न्यूनतम आयु की समीक्षा के लिए एक टॉस्क फोर्स का गठन किया जाएगा, जो शादी की आयु के मातृ स्वास्थ्य, पोषण पर पडऩे वाले प्रभावों का अध्ययन करेगा और छ: माह के भीतर अपनी अनुशंसाएँ सौंप देगा। वित्त मंत्री ने यह भी कहा कि 1978 में 1929 के शारदा कानून में संशोधन करके लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु 16 से बढ़ाकर 18 साल कर दी गयी थी। देश प्रगति की राह पर अग्रसर है और महिलाओं के लिए उच्चतर शिक्षा व करिअर के अवसर भी बढ़ रहे हैं। मातृ मृत्यु-दर को कम करना भी अति आवश्यक है और इसके साथ-साथ पोषण के स्तर में सुधार लाना भी ज़रूरी है। एक लड़की किस उम्र में मातृत्व अवस्था में प्रवेश करे? इस मुद्दे को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। लिहाज़ा मैं एक टॉस्क फोर्स गठित करने का प्रस्ताव रख रही हूँ। विधि मंत्रालय के अधिकारियों की भी राय है कि मातृ व बाल स्वास्थ्य में सुधार के लिए शादी की उम्र एक अहम तत्त्व है। विशेषज्ञों का भी मानना है कि इस बात के साक्ष्य हैं कि जिन लड़कियों की शादी 18 साल से पहले कर दी जाती है, उनके अवांछित गर्भधारण करने की सम्भावना अधिक होती है और वे यौन रोगों की चपेट में भी आ सकती हैं। दरअसल भारत में लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु को बढ़ाने वाले मुद्दे के पक्ष व विरोध में आवाज़ें भी सुनायी पड़ती हैं। अब प्रधानमंत्री ने इसे अपने स्वतंत्रता सम्बोधन में उठाया है, तो यह मुद्दा फिर से गरम हो गया है। गौरतलब है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के ऐलान के बाद केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय ने 02 जून को टॉस्क फोर्स का गठन कर दिया। इस टॉस्क फोर्स की अध्यक्ष समता पार्टी की पूर्व अध्यक्ष जया जेटली हैं और इस समिति में नीति आयोग के सदस्य डॉ. विनोद पॉल भी हैं और कई विभागों के उच्च अधिकारी भी हैं। इस टॉस्क फोर्स का मकसद शादी की उम्र व मातृत्व में पारस्परिक सम्बन्धों को देखना, मातृ मृत्यु-दर को कम करना, महिलाओं में पोषण के स्तर को सुधारने का आकलन करने के साथ-साथ गर्भावस्था, शिशु के जन्म और उसके बाद माँ व नवजात, शिशु के पोषण स्तर का शादी की उम्र के साथ पारस्परिक सम्बन्ध वाले अहम बिन्दुओं पर भी ध्यान देना है। इसके साथ ही यह अहम मापदण्डों जैसे कि शिशु मृत्यु-दर, मातृ मृत्यु-दर, कुल प्रजनन-दर, जन्म के समय लिंगानुपात और बाल लिंगानुपात को भी ध्यान में रख रही है और शादी की उम्र 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करने की सम्भवानाओं की जाँच करना है।
भारत में शादी के लिए न्यूनतम आयु वाले कानूनी ढाँचे की शुरुआत सन् 1880 में होती है। बाल विवाह निषेध अधिनियम-1929, जो कि शारदा अधिनियम से भी जाना जाता है; उसमें लड़कियों के लिए न्यूनतम शादी की उम्र 16 साल और लड़कों के लिए 18 साल रखी गयी थी। उसके बाद सन् 1978 में संशोधन कर लड़कियों के लिए यह आयु 18 साल और लड़कों के लिए 21 साल कर दी गयी है। सन् 1978 से वर्तमान में यही आयु सीमा शादी के लिए वैध है। अब सवाल यह है कि जब संविधान महिला व पुरुष को बराबरी के अधिकार देता है। 18 साल की आयु में लड़की, लड़के को मतदान का अधिकार, ड्राइविंग लाइसेंस, कम्पनी शुरू करने का अधिकार है, तो शादी की उम्र में भेदभाव क्यों? वैसे कानून में ऐसा करने का कोई तर्क नहीं दिया गया। कानून तो रीति-रिवाज़ों व धर्मिक परम्पराओं का संहिताकरण है। लॉ कमीशन के एक पेपर में भी कहा गया कि विभिन्न कानूनी मानक रूढि़वादिता को ही दर्शाते हैं कि पत्नी पति से उम्र में छोटी होनी चाहिए। वैसे प्रसंगवश यहाँ ज़िक्र किया जा रहा है कि प्राचीन काल में भी लड़की और लड़के की शादी की न्यूनतम आयु में भिन्नता वाला मुद्दा उठता रहता था।
लाला लाजपत राय की किताब ‘अ हिस्ट्री ऑफ द आर्य समाज’ में इसका ज़िक्र है कि विवाह की न्यूनतम उम्र लड़कों की 25 वर्ष और लड़कियों की 16 वर्ष निर्धारित की गयी थी। यह अन्तर लैंगिक रूप से (स्त्री-पुरुष) उनकी भौतिकीय (शारीरिक बनावट) के बारे में हिन्दू विचारों पर आधारित था। महिला अधिकार कार्यकर्ताओं की भी सोच है कि कानून भी इस रूढि़वादिता को जारी रखते हैं कि महिलाएँ पुरुषों के समान आयु होने पर भी पुरुषों से अधिक प्रौढ़ होती हैं, इसलिए उन्हें जल्दी शादी करने की इजाज़त दी जानी चाहिए।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी महिला व पुरुष की शादी की न्यूनतम उम्र एक समान करने की ज़रूरत कई बार बतायी। लॉ कमीशन ने भी 2018 में फैमिली लॉ (पारिवारिक कानून) सम्बन्धित परामर्श पत्र में यह सुझाव दिया था कि सभी धर्मों में महिला व पुरुष के लिए शादी की न्यूनतम वैध आयु 18 वर्ष होनी चाहिए। यह अनुशंसा करते हुए साफ किया था कि पति व पत्नी की आयु में अन्तर का कोई कानूनी आधार नहीं है। जैसे ही दो लोग जीवन-साथी बनते हैं, वे हर तरह से बराबर होते हैं और उनकी भागीदारी भी बराबर वालों के बीच वाली ही होनी चाहिए। गौरतलब है कि महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभावों को समाप्त करने वाले सम्मेलनों में भी ऐसे कानूनों को खत्म करने का आह्वान किया गया था, जो यह मान लेते हैं कि महिलाओं की शारीरिक व बौद्धिक वृद्धि दर पुरुषों से भिन्न होती है। दुनिया के 140 देशों में महिला व पुरुष के लिए शादी की न्यूनतम आयु 18 साल है। भारत में भी लॉ कमीशन ने पुरुष के लिए भी महिला के समान शादी की न्यूनतम आयु 18 साल करने की अनुशंसा की थी। एक खबर यह भी सामने आयी थी कि सरकार ऐसा कर सकती हैं; लेकिन यह विचार इसलिए आगे नहीं बढ़ सका कि ऐसा करने से देश की आबादी में और अधिक वृद्धि हो सकती है। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सन् 2019 के स्वतंत्रता सम्बोधन में बढ़ती आबादी वाला बिन्दु भी उठाया था। बहरहाल उन्होंने फिर कहा कि सरकार इस पर विचार कर रही है कि लड़कियों की शादी की उपयुक्त उम्र क्या होनी चाहिए? महिला की शादी की उम्र क्यों बढ़ानी चाहिए? इसके पीछे दलील दी जाती है कि जल्दी गर्भधारण करने से महिला व बच्चे का स्वास्थ्य तथा पोषण प्रभावित होता है। बाल व मातृ मृत्यु-दर बढ़ जाती है। नवीनतम सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के अनुसार देश में मातृ मृत्यु-दर प्रति लाख 122 है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 (2015-16) के आँकड़ें बताते हैं कि देश में बाल विवाह में भी कमी आयी है। लेकिन भारत में बाल विवाह अभी भी एक गम्भीर समस्या है। यूनिसेफ का अनुमान है कि भारत में हर साल 18 साल से कम उम्र की करीब 15 लाख लड़कियों की शादी हो जाती है। भारत बालिका वधु के सन्दर्भ में विश्व में पहले नम्बर पर आता है, दुनिया की एक-तिहाई बाल-वधु भारत में ही हैं। 15-19 आयु-वर्ग की 16 फीसदी किशोरियाँ शादीशुदा हैं। बाल-विवाह का सम्बन्ध गरीबी व शिक्षा के स्तर से भी जुड़ता है।
ताज़ा उदाहरण देखें, तो कोविड-19 महामारी में स्कूल बन्द हैं। ऑनलाइन पढ़ाई की सुविधा हरेक के पास नहीं है। लिहाज़ा अभिभावक विवश होकर नाबालिग लड़कियों की शादी कर रहे हैं। बच्चों के अधिकारों व संरक्षण के लिए बनी चाइल्ड हेल्पलाइन को बीते चार महीनों में देश भर से 5,584 बाल विवाह की घटनाओं के बारे में जानकारी मिली और हस्तक्षेप किया। महाराष्ट्र में करीब 200 बाल विवाह रुकवाये। बच्चियाँ पढऩा चाहती हैं; लेकिन स्कूल बन्द हैं और गरीबी बढ़ी है। अभिभावकों का मानना है कि इस महामारी में शादियों पर सामान्य दिनों की तुलना में बहुत कम खर्च करना पड़ रहा है और लड़की का बोझ हल्के में उतर रहा है। शिक्षा व लड़कियों की शादी की उम्र के बीच भी पारस्परिक सम्बन्ध है। आँकड़े बताते हैं कि 18 साल की कम उम्र की शादीशुदा लड़कियों में 44.7 फीसदी ऐसी हैं, जो बिल्कुल अनपढ़ हैं। प्राइमरी शिक्षा हासिल करने वाली ऐसी लड़कियाँ 39.7 फीसदी, सेकेंडरी शिक्षा प्राप्त लड़कियाँ 23.2 फीसदी, तो हायर शिक्षा पाने वाली लड़कियाँ 2.9 फीसदी हैं। इससे एक बात तो साफ है कि सरकार को गरीबी कम करने वाली योजनाओं का वास्तविक परिणाम व असर देखने के लिए उन्हें ज़मीनी स्तर पर लागू करने हेतु ठोस कदम उठाने होंगे। लड़कियों की शिक्षा को और अधिक बढ़ावा देने के लिए बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ को और अधिक कारगर बनाने की ज़रूरत है। कोविड-19 में चाइल्ड हेल्पलाइन को बाल-विवाह के बारे में जो कॉल आ रही हैं। इन पर जो सूचनाएँ मिल रही हैं, वह इस बात की तस्दीक करती हैं कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का आकलन करना कितना अहम है। अब सवाल यह है कि क्या महिला की शादी की न्यूनतम आयु 18 साल से अधिक करने से सरकार अपना लक्ष्य हासिल कर लेगी। या सरकार को शादी की उम्र बढ़ाने वाले उपाय की बजाय गरीबी कम करने व लड़कियों को शिक्षा के लिए अधिक प्रोत्साहित करने व उन्हें उनके सशक्तिकरण के लिए अधिक सुविधाएँ देकर अपना लक्ष्य हासिल करना चाहिए।
उपलब्ध आँकड़े बताते हैं कि लड़कियों के सशक्तिकरण की राह में घर का आर्थिक स्तर, उनकी शिक्षा की अहम भूमिका होती है। लिहाज़ा सरकार को इस पर अधिक फोकस करना चाहिए; लेकिन इसके साथ ही एक वर्ग लड़की-लड़का बराबर वाले सिद्धांत को शादी की न्यूनतम आयु में भी अमल होते देखने के पक्ष में है। एक आशंका यह भी ज़ाहिर की जा रही है कि उम्र 18 से 21 करने पर बाल विवाह, किशोरावस्था विवाह के मामले और बढ़ेंगे, बाल विवाह और नाबालिग यौन उत्पीडऩ को रोकने वाले कानूनों को प्रभावशाली बनाने के लिए कड़ा रुख अपनाना होगा। इसके अलावा अन्य कई चुनौतियाँ भी सामने आएँगी, तो ऐसे में सरकार को ऐसी आशंकाओं व चुनौतियों से निपटने वाले निगरानी तंत्र को क्रियाशील तंत्र में तब्दील करना होगा, ताकि लैंगिक सूचकांक में भारत की रैकिंग में सुधार हो; मातृ व नवजात मृत्यु-दर कम हो; महिलाओं व बच्चों के पोषण स्तर में सुधार हो।