देश का राजनीतिक वर्ग तात्कालिक फायदों के लिए संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं से बार-बार टकराकर न सिर्फ लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है बल्कि खुद अपनी जड़ें भी खोद रहा है. हिमांशु शेखर की रिपोर्ट.
‘सीएजी सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं है. उसे अपनी रिपोर्ट में सरकार की आलोचना करने का अधिकार मिला हुआ है. संसद में अगर कोई सीएजी की आलोचना करता है तो इसका अर्थ यह माना जाएगा कि वह बगैर किसी भय और पक्षपात के साथ उसके कार्य करने के संवैधानिक अधिकार को चुनौती दे रहा है.’
जवाहरलाल नेहरू, भारत के पहले प्रधानमंत्री
‘मैं देश को आश्वस्त करना चाहता हूं कि हमारा पक्ष काफी मजबूत और विश्वसनीय है. सीएजी की बातें विवादास्पद हैं और जब यह मामला संसद की लोक लेखा समिति के सामने आएगा तो इन्हें चुनौती दी जाएगी.’
मनमोहन सिंह, प्रधानमंत्री
भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) को लेकर ये दो बातें दो कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों ने अपने-अपने समय में कही हैं. जब 1952 में भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में सीएजी पर हमले होते देखा तो वे उसके बचाव में उठ खड़े हुए थे. हालांकि उस वक्त भी सीएजी पर हमले करने वाले नेता कांग्रेसी थे, लेकिन पंडित नेहरू को चिंता एक ऐसी संवैधानिक संस्था को लेकर थी जिसका गठन संविधान निर्माताओं ने देश में लोकतंत्र की खूबसूरती को बनाए रखने के मकसद से किया था. इसके 60 साल बाद जब सीएजी रिपोर्ट से कांग्रेस के नेताओं और खुद प्रधानमंत्री को परेशानी होती है तो पहले पार्टी अपने दूसरे नेताओं को आगे करती है और फिर खुद प्रधानमंत्री सामने आ जाते हैं.
कोयला ब्लॉक आवंटन में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है. कोयले ने अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग लोगों का साम्राज्य विस्तार किया है. लेकिन जब सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि 2006 से 2010 के बीच कोयला ब्लॉकों के आवंटन से देश को 1.86 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है तो बवाल मच गया. ये आवंटन उसी दौरान हुए जब कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास था. इसलिए विपक्ष उनके इस्तीफे की मांग पर अड़ा रहा और संसद के मॉनसून सत्र की बलि ले ली. अपने दफ्तर में पंडित नेहरू की तस्वीर टांगने वाले और गाहे-बगाहे अपने भाषणों में उन्हें याद करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अन्य कांग्रेसी नेताओं ने सीएजी को लेकर नेहरू की राय को खारिज करने में देर नहीं लगाई और सीएजी विनोद राय पर तरह-तरह के आरोप मढ़ डाले.
क्या बदल गई सियासी संस्कृति?
सवाल यह है कि 60 साल में एक ही पार्टी के प्रधानमंत्री की राय बदलने का मतलब सिर्फ पार्टी के चरित्र का बदलना है. या फिर देश की सियासी संस्कृति इस कदर बदल गई है कि वह हर संवैधानिक संस्था को ही कठघरे में खड़ा कर देना चाहती है? यहां मामला सिर्फ सीएजी पर हमले का नहीं है. जब चुनाव आयोग चुनाव आचार संहिता के कड़ाई से पालन की कोशिश करता है तो सत्ता में रहने वाले उस पर हमले करने से भी बाज नहीं आते. अगर देश की सर्वोच्च अदालत जनविरोधी नीतियों के खिलाफ कोई राय रखती है तो उसे सरकार की तरफ से हद में रहने की चेतावनीनुमा हिदायत दी जाती है तो उसके निर्णयों को संविधान संशोधन और नए कानूनों के रास्ते चुनौती दी जाती है. और तो और, देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद को ही अपने ढंग से चलाने के हठ के आगे सरकार जनभावनाओं और दूसरे दलों की बातों की अनदेखी करने से बाज नहीं आती. संसदीय समितियों का भी हाल बुरा है. लोक लेखा समिति (पीएसी) और संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) में झगड़ा इसलिए हो जाता है कि कहीं अपनी पार्टी पर आंच न आ जाए. तो स्थायी समितियों में किसी विधेयक को सिर्फ इसलिए लटकाए रखा जाता है कि कहीं दूसरा दल इसका चुनावी फायदा न उठा ले.
तो क्या यह माना जाए कि पंडित नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह के बीच सिर्फ वक्त का नहीं बल्कि राजनीतिक संस्कृति का फर्क कुछ इस तरह से पैदा हो गया है कि लोगों के प्रति जवाबदेही और सहनशीलता की जगह असहनशीलता और किसी भी कीमत पर तात्कालिक जीत हासिल करने की प्रवृत्ति राजनीति पर हावी हो गई है? इसे जानने के लिए कुछ संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थिति और पिछले कुछ साल में इनके प्रति राजनीतिक वर्ग के बदले रवैये को समझना होगा.
जब बोफोर्स मामले पर सीएजी ने रिपोर्ट जारी की थी तो कांग्रेसी नेताओं ने सीएजी पर खूब हमले किए. लेकिन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सीधे कभी कुछ नहीं कहा
सीएजीः चौतरफा हमलों का लक्ष्य…
जब आजाद भारत का संविधान बन रहा था तो ड्राफ्टिंग समिति के प्रमुख भीमराव आंबेडकर ने संविधान सभा की बैठक में कहा कि भारत के संविधान के तहत सीएजी सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी होगा. 30 मई, 1949 को सभा की बैठक में उनका कहना था, ‘मेरा मानना है कि सीएजी का कार्य न्यायपालिका के कार्य से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है.’ इसके बाद संविधान के अनुच्छेद-148 से 151 के तहत सीएजी का गठन किया गया. तय किया गया कि सीएजी की नियुक्ति छह साल के लिए होगी और किसी वजह से उसे हटाने के लिए वही प्रक्रिया अपनाई जाएगी जो उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के लिए अपनाई जाती है. यानी महाभियोग की. माना गया कि इससे सीएजी के कार्य पर कोई दबाव नहीं रहेगा.
सीएजी को केंद्र और राज्य सरकारों के खर्चों का लेखा-जोखा रखने का अधिकार दिया गया. सीएजी के कर्तव्यों, अधिकारों और सेवा की शर्तों को निर्धारित करने के लिए 1971 में संसद ने एक खास कानून भी बनाया. सीएजी हर साल 64,000 ऑडिट करती है. रॉ, आईबी और एनटीआरओ के खर्च की जांच सीएजी के दायरे में नहीं है. लेकिन फिर भी सरकार जरूरत पड़ने पर इनकी ऑडिट सीएजी से करा सकती है. ऐसी रिपोर्टें सार्वजनिक नहीं की जातीं बल्कि अतिगोपनीय रखी जाती हैं. सैन्य बलों की रणनीतिक परियोजनाओं की ऑडिट के लिए भी विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है.
सीएजी ने जब-जब ऐसी रिपोर्ट दी जिससे सरकार को दिक्कत हुई तब-तब इस पर हमले किए गए. लंबे समय के बाद सीएजी अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में तब चर्चा में आई जब बोफोर्स मामले में इसकी रिपोर्ट आई. उस वक्त देश के महालेखा परीक्षक टीएन चतुर्वेदी थे. सरकार को परेशान करने वाली रिपोर्ट जब सीएजी ने जारी की तो उस पर खूब हमले हुए. लेकिन प्रधानमंत्री ने सीधे तौर पर हल्ला नहीं बोला. हालांकि, कांग्रेसी नेता लगातार हमले कर रहे थे. माहौल कुछ इस तरह का बना कि खुद चतुर्वेदी ने लोकसभा और राज्यसभा के स्पीकर को पत्र लिखकर यह कहा कि अगर सरकार को उनसे इतनी दिक्कत हो रही है तो महाभियोग लाकर उन्हें हटा दे. यह जानकारी तहलका को देते हुए चतुर्वेदी कहते हैं, ‘अभी की तुलना में उस वक्त अच्छी बात यह थी कि खुद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कभी हमला नहीं किया.’ मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ अपने राज्यसभा के दिनों को याद करते हुए चतुर्वेदी कहते हैं, ‘हम दोनों राज्यसभा में साथ रहे हैं. मुझे वे एक सज्जन व्यक्ति लगे लेकिन अब जब मैं उन्हें सीएजी पर हमला करते हुए देखता हूं तो मुझे हैरानी होती है. मुझे हैरानी होती है कि कैसे कोई प्रधानमंत्री संसद में यह कह सकता है कि सीएजी की रिपोर्ट को पीएसी में चुनौती दी जाएगी. पीएसी सरकार की नहीं होती बल्कि संसद की होती है और इसके कामकाज का निर्धारण सरकार का मुखिया नहीं कर सकता.’
प्रधानमंत्री ने भले ही पिछले दिनों संसद में सीएजी पर सीधा हमला किया हो लेकिन परोक्ष रूप से उन्होंने पहले भी सीएजी को हद में रहने की सलाह दी थी. जब पिछले साल वे समाचार चैनलों के संपादकों से मिले थे तो एक सवाल के जवाब में कहा था, ‘ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि सीएजी ने प्रेस वार्ता की हो. जबकि मौजूदा सीएजी ऐसा कर रहे हैं. इसके पहले कभी भी सीएजी ने नीतिगत मसलों पर टिप्पणी नहीं की. सीएजी को संविधान के तहत परिभाषित भूमिका में ही रहना चाहिए.’ इसके पहले 16 नवंबर, 2010 को भी प्रधानमंत्री ने सीएजी के 150 साल पूरा होने पर आयोजित कार्यक्रम में हिस्सा लेते हुए कहा था कि गड़बडि़यों और गलतियों के फर्क को समझते हुए रिपोर्ट तैयार करनी चाहिए क्योंकि सीएजी की रिपोर्ट को न सिर्फ मीडिया बहुत गंभीरता से लेता है बल्कि जनता, सरकार और संसद भी.
दरअसल, मौजूदा सरकार में सीएजी पर हल्ला बोलने वालों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पहले या आखिरी व्यक्ति नहीं हैं. हां, उनके सामने आने से इतना जरूर हुआ कि कांग्रेस में जिस नेता की कोई हैसियत भी नहीं है, वह भी सीएजी के खिलाफ बोलने लगा है. 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन पर आई सीएजी की रिपोर्ट के बाद तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए राजा को इस्तीफा देना पड़ा था. राजा के बाद दूरसंचार मंत्रालय संभालने वाले कपिल सिब्बल ने न सिर्फ सीएजी पर हल्ला बोला बल्कि यह तक कह डाला कि आवंटन से तो कोई नुकसान ही नहीं हुआ है. कुछ ऐसी ही बात कोयला ब्लॉक आवंटन को लेकर चिदंबरम ने भी कही थीं, लेकिन बाद में उन्हें अपने बयान को बदलना पड़ा. सिब्बल की ‘जीरो लॉस’ की थ्योरी भी नहीं चल पाई और सर्वोच्च न्यायालय ने 122 लाइसेंस रद्द करके सीएजी की बातों को मजबूती दी. अब सरकार इनकी नए सिरे से नीलामी करने वाली है और इससे एक लाख करोड़ रुपये से अधिक की आमदनी होगी.
सीएजी पर हमला करते-करते कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह उस स्तर तक चले गए जो लोकतंत्र और इसकी संस्थाओं के लिए बिलकुल ठीक नहीं है. मनीष तिवारी ने विनोद राय पर भाजपा के एक नेता के इशारे पर काम करने का आरोप लगाया. वहीं दिग्विजय सिंह ने कहा कि सीएजी राय जिस तरह से काम कर रहे हैं उससे लगता है कि उनका अपना एक राजनीतिक एजेंडा है. उन्होंने टीएन चतुर्वेदी का उदाहरण देते हुए बताया कि वे सेवानिवृत्त होने के बाद भाजपा के टिकट पर राज्यसभा चले गए और बाद में राज्यपाल भी बने. दिग्विजय सिंह की मानें तो विनोद राय भी किसी ऐसे ही एजेंडे पर काम कर रहे हैं. लोकसभा के महासचिव रहे और कानून विशेषज्ञ सीके जैन कहते हैं, ‘अगर राजनीतिक दलों को ऐसा लगता है तो वे संविधान में संशोधन करके संवैधानिक पदों पर रहने वाले लोगों के लिए इस बारे में प्रतिबंध लगा सकते हैं. संवैधानिक पदों पर रहने वालों के लिए यह नियम पहले से है कि वे सेवानिवृत्ति के बाद केंद्र या राज्य सरकार में कोई पद नहीं ले सकते हैं और न ही कोई संवैधानिक पद. लेकिन राजनीतिक पद को लेकर उन पर कोई प्रतिबंध नहीं है.’ अगर संवैधानिक पदों से हटने के बाद किसी दल से जुड़ने की दिग्विजय सिंह की बात को ही आधार माना जाए तो कांग्रेस भी आरोपों के घेरे में होगी. मुख्य चुनाव आयुक्त रहे मनोहर सिंह गिल को इस पद से हटने के बाद कांग्रेस ने केंद्र में मंत्री बनाया.
1962 में लोक सभा के स्पीकर ने कहा था कि सीएजी के खिलाफ टिप्पणी नहीं की जा सकती. इसके बाद रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन को माफी मांगनी पड़ी थी
संवैधानिक प्रक्रियाओं की जानकारी रखने वाले लोग सरकार की इस बात पर भी आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं कि वह सीएजी की रिपोर्ट पर संसद में चर्चा कराना चाहती है. क्योंकि सीएजी की रिपोर्ट में संसद में नहीं बल्कि पीएसी में चर्चा हो सकती है. विपक्ष की तरफ से इस संवैधानिक गड़बड़ी के बारे में कुछ नहीं बोला जा रहा है. मशहूर सांसद और सातवें दशक में लोक लेखा समिति के अध्यक्ष रहे एरा सेझियन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान पर इन शब्दों में हैरानी जताते हैं, ‘मैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की प्रतिक्रिया से सहम गया हूं.’ चतुर्वेदी कहते हैं, ‘प्रक्रिया यह है कि सीएजी अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजता है. इसके बाद रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश की जाती है. फिर इसे पीएसी के पास भेजा जाता है. वहां इस पर चर्चा होती है और कार्रवाई रिपोर्ट तैयार होती है.’
अगर मनमोहन सिंह अपनी ही सरकार के सहयोगी मंत्री वीरप्पा मोइली से विचार-विमर्श कर लेते तो शायद वे सीएजी पर हमले नहीं करते. वीरप्पा मोइली हाल तक कानून मंत्री रहे हैं और उन्हीं की अगुवाई में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन हुआ था. 2007 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में उन्होंने सिफारिश की थी कि सीएजी अपनी जांच में जैसे ही घोटाले को पाए वैसे ही वह ऐसी व्यवस्था करे कि सरकार को उसका पता चल जाए. इससे पहले मोइली ने ही 2006 में एक गोष्ठी में कहा था, ‘सीएजी की रिपोर्ट पर कार्रवाई करने के लिए समुचित व्यवस्था होनी चाहिए. व्यवहार में सरकार कार्रवाई करने के लिए अनिच्छुक रहती है.’
केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने तो सीएजी पर हमला करने के क्रम में यह भी कह डाला कि कुछ संवैधानिक संस्थाएं और बड़ी हस्तियां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि खराब करने का षड्यंत्र कर रही हैं. जब पत्रकारों ने उनसे नाम जानना चाहा तो उनका जवाब था कि आप सब अच्छी तरह से उनके बारे में जानते हैं. यहां 50 साल पहले की एक घटना का उल्लेख जरूरी हो जाता है. 1962 में जब उस समय के रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने सेना जीप खरीद पर सीएजी की रिपोर्ट पर सीएजी के खिलाफ टिप्पणी की थी तो उनके खिलाफ अवमानना का नोटिस दिया गया था और उस वक्त लोक सभा के स्पीकर ने कहा था कि सीएजी के खिलाफ टिप्पणी नहीं की जा सकती. इसके बाद कृष्ण मेनन को माफी मांगनी पड़ी थी. सीएजी पर हो रहे हमलों पर लोकसभा के महासचिव रहे और कानून विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं, ‘यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. अगर इस तरह से संवैधानिक संस्थाओं पर हमले होंगे तो देश का लोकतांत्रिक ढांचा कमजोर होगा.’
विपक्ष भी नहीं पाक साफ
ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस संवैधानिक संस्थाओं को अपमानित करने का काम कर रही है. पिछले कुछ समय से यह देखा जा रहा है कि जो भी दल सत्ता में रहता है, वह इन संस्थाओं पर अपनी सुविधानुसार हमले करता है. भाजपा की अगुवाई वाली सरकार जब केंद्र में थी तो उस वक्त भी इसकी तरफ से सीएजी पर कई बार हमले हुए. एक बार तो यहां तक कहा गया कि इस संस्था को अंग्रेजों ने स्थापित किया था इसलिए यह बेवकूफी वाली संस्था है. यह बात 2001 में उस समय के विनिवेश मंत्री अरुण शौरी ने मुंबई के सेंटूर होटल को 145 करोड़ रुपये में बेचने के मामले में आई सीएजी रिपोर्ट पर जवाब देते हुए कही थी. करगिल की लड़ाई के बाद सामने आए ताबूत घोटाले पर चर्चा करते हुए अरुण जेटली ने एक टेलीविजन चैनल पर यह कहा था कि ऑडिट करने वाले अधिकारी जंग लड़ने नहीं जाते लेकिन सेना के जनरल जाते हैं.
सीएजी कार्यालय की नींव रखते हुए नई दिल्ली में देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने जुलाई, 1954 में कहा था, ‘एक ऐसे समय में जब सरकार कल्याणकारी योजनाओं पर काफी पैसे खर्च कर रही है तब यह जरूरी हो जाता है कि हर रुपये का हिसाब रखा जाए. यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सीएजी पर है.’ जिस वक्त राजेंद्र प्रसाद काफी खर्च की बात कर रहे थे, उस वक्त सरकार का कुल बजट खर्च 1,354 करोड़ रुपये था. आर्थिक समीक्षा के मुताबिक यह 2011-12 में बढ़कर 22.92 लाख करोड़ रुपये हो गया है. जाहिर है कि सीएजी की भूमिका और जिम्मेदारी बड़ी हो गई है. अगर वह यह जिम्मेदारी सही से न निभाए तो देश के लाखों करोड़ रुपये कहां और कैसे खर्च हो रहे हैं इसका कोई निष्पक्ष हिसाब-किताब देश के पास होगा ही नहीं.
सुधार की मांग
बढ़ी जिम्मेदारियों को देखते हुए सीएजी ने तीन सुधारों का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा है. हालांकि, दो साल पहले भेजे गए इन प्रस्तावों पर सरकार ने अब तक अपनी तरफ से स्थिति साफ नहीं की है. इनमें सबसे पहला यह है कि सरकारी संस्थाओं के लिए सूचना के अधिकार की तर्ज पर सीएजी द्वारा मांगे गए दस्तावेज मुहैया कराने के लिए 30 दिन की समयसीमा निर्धारित की जाए. अक्सर जब सीएजी रिपोर्ट तैयार कर रही होती है तो उसे दस्तावेज मिलने में काफी दिक्कतें आती हैं.
दूसरी बात यह है कि जब सीएजी की रिपोर्ट सरकार को मिले तो वह इसे जल्द से जल्द संसद में पेश करे. अभी होता यह है कि सरकार महीनों तक सीएजी की रिपोर्ट दबाकर बैठी रहती है. कोयला ब्लॉक आवंटन की रिपोर्ट भी सरकार को पिछले संसद सत्र में ही मिल गई थी लेकिन इसे पेश किया गया मॉनसून सत्र में. दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन की रिपोर्ट भी साल भर बाद पेश की गई थी.
पीएसी में कांग्रेसी सांसदों ने हल्ला मचाया तो 2जी पर बनी जेपीसी की बैठक में भाजपा सांसदों ने यही काम किया और बैठक से बाहर निकल गए
सीएजी की तीसरी मांग यह है कि पिछले बीस साल में जिस तरह से सरकार की आर्थिक गतिविधियों में बदलाव आया है इसके आधार पर उसके ऑडिट के दायरे के बारे में स्थिति और साफ की जाए. दरअसल, सीएजी इसके जरिए सार्वजनिक निजी भागीदारी यानी पीपीपी मॉडल के तहत चल रही परियोजनाओं और संयुक्त उपक्रमों के ऑडिट का अधिकार भी चाहती है. एक अनुमान के मुताबिक 80,000 करोड़ रुपये से अधिक का सालाना खर्च सीएजी के ऑडिट दायरे से बाहर है. इस वजह से संसद को भी यह पता नहीं चल पाता कि यह पैसा कैसे खर्च हो रहा है. चतुर्वेदी कहते हैं, ‘जो लोग यह कह रहे हैं कि सीएजी को नीतिगत मसलों पर टिप्पणी का अधिकार नहीं है, उन्हें यह पता होना चाहिए कि सीएजी ऐसे मामलों में अपनी बात रख सकती है जिससे सरकारी खजाने को नुकसान उठाना पड़ रहा हो.’
दलीय राजनीति की शिकार संसदीय समितियां
सीएजी अपनी रिपोर्ट संसद की जिस पीएसी के पास भेजती है उसकी हालत भी खराब है. इस समिति का मुख्य कार्य है सीएजी की रिपोर्ट का परीक्षण करना. आम तौर पर 22 संसद सदस्यों वाली इस समिति का अध्यक्ष विपक्ष का कोई वरिष्ठ नेता होता है. 1967 से यही परंपरा चली आ रही है. बात पिछले साल की है जब 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन पर आई सीएजी की रिपोर्ट पर पीएसी में विचार-विमर्श हो रहा था. विचार-विमर्श के बाद भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली इस समिति ने जब अपनी रिपोर्ट का मसौदा तैयार किया तो इसे कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के सदस्यों ने खारिज कर दिया. इस रिपोर्ट में 2जी मामले को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उस समय के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की भूमिका की आलोचना की गई थी. जब समिति में तनातनी काफी बढ़ गई तो समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी बैठक से निकल गए. इसके बाद विरोध कर रहे सदस्यों ने कांग्रेस नेता सैफुद्दीन सोज को अध्यक्ष चुन लिया और जोशी की अनुपस्थिति में रिपोर्ट के मसौदे को खारिज कर दिया. इसके बाद संवैधानिक जानकारों ने रिपोर्ट खारिज किए जाने को यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया कि राज्यसभा का सदस्य पीएसी की बैठक की अध्यक्षता नहीं कर सकता. सोज राज्यसभा के सांसद हैं.
पीएसी में कांग्रेस और उनके समर्थक सांसदों ने हल्ला मचाया तो 2जी पर बनी संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की बैठक में भाजपा सांसदों ने यही काम किया और बैठक से बाहर निकल गए. इतना ही नहीं भाजपा सांसदों ने समिति से बाहर निकलने की धमकी भी दी. दरअसल, जेपीसी में विवाद तब पैदा हुआ जब भाजपा सांसद लगातार यह मांग करते रहे कि 2जी मामले में पूछताछ के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी चिदंबरम को बुलाया जाए. इस पर कांग्रेस सांसद तैयार नहीं हुए. बाद में इस जेपीसी के अध्यक्ष और कांग्रेस के नेता पीसी चाको ने यह बयान दिया कि बैठक से वाकआउट करने की स्थिति पैदा नहीं हुई थी बल्कि भाजपा सांसद ऐसा करने की तैयारी के साथ आए थे. वहीं भाजपा सांसदों का आरोप था कि उनके साथ बैठक में अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया गया. जैन कहते हैं, ‘आज यह हालत सिर्फ पीएसी और जेपीसी की नहीं है बल्कि संसद की ज्यादातर समितियों की है. जिन समितियों का गठन दलीय दायरे से ऊपर उठकर लोकतंत्र की रक्षा के लिए किया गया था, वे भी आज दलीय राजनीति की शिकार हो गई हैं.’
स्थायी संसदीय समितियां इसकी उदाहरण हैं. इसमें सबसे दिलचस्प मामला है ग्रामीण विकास पर संसद की स्थायी समिति का है. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों से पहले पिछले साल जब राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में लगातार दौरे करके किसानों के मसलों को उठा रहे थे तो उन्होंने कई जगह पर कहा था कि संप्रग सरकार जल्द से जल्द किसानपरस्त जमीन अधिग्रहण कानून लाएगी. इसके बाद सात सितंबर, 2011 को सालों से लटक रहे जमीन अधिग्रहण कानून के नए मसौदे को संसद में पेश कर दिया गया. 13 सितंबर को इसे स्थायी संसदीय समिति में भेज दिया गया. समिति में दलीय राजनीति इसके बाद शुरू हुई. भाजपा और बसपा को लगा कि अगर जमीन अधिग्रहण कानून संसद के शीतकालीन सत्र में पारित हो गया तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता है. इसलिए समिति में इन दोनों दलों के सदस्यों ने यह सुनिश्चित किया कि किसी भी तरीके से विधेयक का मसौदा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के पहले संसद को नहीं लौटाया जाए. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव निपटने के तकरीबन दो महीने बाद ही इस विधेयक को स्थायी संसदीय समिति ने संसद को भेज दिया. यह घटना बताती है कि किस तरह से सियासी दल अपने चुनावी नफा-नुकसान को देखते हुए स्थायी संसदीय समितियों का इस्तेमाल कर रही हैं.
संकट संसदीय मर्यादा का
जैन कहते हैं कि पीएसी, जेपीसी और स्थायी संसदीय समितियां ही क्यों, आज तो पूरी संसद ही अपनी जिम्मेदारियों से अनजान दिखती है. मौजूदा सरकार पर यह आरोप लग रहा है कि इसने संसद की गरिमा को भी ठेस पहुंचाई है. संसदीय व्यवस्था को ठीक ढंग से समझने वाले लोग इस संदर्भ में कुछ मामले गिनाते हैं. इनमें सबसे प्रमुख है लोकपाल का विषय. लोकपाल का मसौदा लोकसभा में कई संशोधनों के साथ पारित होने के बाद राज्यसभा में पहुंचा. 31 दिसंबर, 2011 की रात 12 बजे राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी ने अचानक ही लोकपाल के मसले पर चल रही संसद की कार्यवाही अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी. इसके लिए सफाई यह दी गई कि राष्ट्रपति से उन्हें इससे अधिक समय तक राज्यसभा चलाने की अनुमति नहीं मिली थी. लेकिन विपक्ष और कई जानकार यह मानते हैं कि अंसारी ने ऐसा सत्ता पक्ष की मुश्किलों को कम करने के लिए किया था. कई लोग तो बतौर उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की दोबारा हुई नियुक्ति को भी सत्ता पक्ष के प्रति उनके समर्पण से जोड़कर देखते हैं.
इसके बाद एक घटना हाल की है. जब कोयला ब्लॉक आवंटन पर संसद लगातार विपक्ष के हो-हल्ले का शिकार होकर नहीं चल पा रही थी तो एक दिन संसदीय कार्य राज्य मंत्री राज्यसभा के उपसभापति पीजी कूरियन को यह सलाह देते हुए सुने गए कि हंगामा होने वाला है इसलिए पूरे दिन के लिए सदन की कार्यवाही स्थगित कर दीजिए. इस घटना पर जैन कहते हैं, ‘राजीव शुक्ला को बतौर संसदीय कार्य राज्य मंत्री ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है. राजीव शुक्ला ने जो किया वह सिर्फ सभापति का अपमान नहीं है बल्कि यह तो सदन का अपमान है. क्योंकि सभापति को सदन चुनता है और उसे डिक्टेट करने का मतलब यह है कि आप पूरे सदन को डिक्टेट कर रहे हैं.’
आज संसद की हालत यह है कि अगर सत्ता पक्ष से बाहर का कोई सांसद सरकार की स्वस्थ आलोचना भी करे तो सत्ता पक्ष के सांसद उस पर टूट पड़ते हैं. यह बात खास तौर पर तीन लोगों के बारे में दिखती है. सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मनमोहन सिंह. जब पिछले साल अगस्त में अन्ना हजारे रामलीला मैदान में अनशन कर रहे थे उसी दौरान राहुल गांधी ने संसद में इस मसले पर बोलते हुए लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने की बात की थी. जब राहुल गांधी अपना लिखा हुआ भाषण पढ़ रहे थे उसी वक्त विपक्ष के कुछ सदस्यों ने टोका-टाकी की तो कांग्रेस के युवा नेताओं की फौज विपक्षी सदस्यों पर बुरी तरह टूट पड़ी थी.
स्थायी समिति में भाजपा और बसपा के सदस्यों ने यह सुनिश्चित किया कि किसी भी तरीके से विधेयक का मसौदा विधानसभा चुनाव के पहले संसद को नहीं लौटाया जाए
अब एक बार फिर से यहां पंडित नेहरू का उल्लेख जरूरी हो जाता है. बात 1963 की है. संसद में योजना आयोग के उस दावे पर बहस हो रही थी जिसमें कहा गया था कि देश में गरीब आदमी की आमदनी पंद्रह आने है. यानी एक रुपये से भी कम. उस बहस में हिस्सा लेते हुए राममनोहर लोहिया ने यह साबित किया कि देश के 27 करोड़ लोगों की आमदनी तीन आने से भी कम है. इसका नतीजा यह हुआ कि सरकार ने अपने अनुमान को खिसका कर आठ आने कर दिया. इसी बहस के दौरान लोहिया ने पंडित नेहरू की तरफ इशारा करते हुए कहा था, ‘इन हजरत को देखिए. इनके कुत्ते का रोज का खर्च 25 रुपये है और देश के आम आदमी की रोजाना आमदनी 25 पैसे से भी कम है.’ उस वक्त नेहरू अपने बाएं हाथ पर अपनी ठोड़ी टेके हुए यह वार चुपचाप झेल गए थे. किसी कांग्रेसी सांसद ने नेहरू की नजर में अपना नंबर बढ़ाने के लिए लोहिया पर हल्ला बोलने का साहस नहीं जुटाया था. क्या अब ऐसा दृश्य संभव है?
पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा संसद के अवमूल्यन के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं, ‘देश के प्रधानमंत्री को जब भी समय मिलता है तो वह संसद के सदन में आकर बैठता है. चाहे वह लोकसभा में बैठे या राज्यसभा में. जब संसद में प्रश्नकाल चल रहा होता है तब मनमोहन सिंह सदन में आते हैं. इसके बाद शून्य काल शुरू होता है और सांसद कहते रह जाते हैं कि मैं प्रधानमंत्री जी को यह बताना चाहूंगा, वह बताना चाहूंगा लेकिन मनमोहन सिंह इन बातों की अनदेखी करते हुए सदन से उठकर चले जाते हैं. संसद की इतनी अवज्ञा और किसी शासन में नहीं हुई जितनी मनमोहन सिंह सरकार के दौरान हुई है.’
यशवंत सिन्हा जो कह रहे हैं, वह एक तथ्य है लेकिन क्या संसद की साख को कम करने आरोप सिर्फ मनमोहन सिंह या कांग्रेस पर लगाया जा सकता है? मुख्य विपक्षी दल भाजपा समेत दूसरे दलों की इसमें कोई भूमिका नहीं है? यह भी एक तथ्य है कि कई मौके ऐसे आए हैं जब भाजपा पर भी संसद के अवमूल्यन का आरोप लगा. 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला ब्लॉक आवंटन के मामले में भाजपा द्वारा संसद को पूरी तरह से ठप कर देने की भी आलोचना न सिर्फ कांग्रेस ने बल्कि संसदीय परंपरा के कई जानकारों ने की. भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जब देश की जनता द्वारा चुनी गई संप्रग सरकार को अवैध बताया तो उनके इस बयान की आलोचना भी संसद की परंपरा को जानने-समझने वालों ने की. हालांकि, तुरंत ही आडवाणी ने इस मामले पर माफी मांग कर इसे रफा-दफा किया. अभी हाल में जब प्रोन्नति में आरक्षण देने को लेकर राज्यसभा में संविधान संशोधन विधेयक सरकार ने पेश किया तो समाजवादी पार्टी के नरेश अग्रवाल और बहुजन समाज पार्टी के अवतार सिंह करीमपुरी के बीच हाथापाई तक हो गई. सबने टेलीविजन पर देखा कि इसे रोकने के बजाय दोनों दलों के कुछ और सदस्य इस झगड़े में शामिल हो गए. बाद में मार्शलों को बुलाना पड़ गया. जानकारों का मत है कि ऐसे मामलों में संसद को कठोर कार्रवाई करके नजीर पेश करना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं किया गया. पहले भी कई मौके ऐसे आए हैं जब विपक्षी दलों ने संसद की मर्यादा को ठेस पहुंचाई है. इस आधार पर नतीजा यह निकलता है कि संसद के अवमूल्यन के लिए सीधे तौर पर देश का पूरा राजनीतिक वर्ग जिम्मेदार है.
आज संसदीय बहस का स्तर गिरते हुए इस कदर दलीय दायरों में सिमटकर रह गया है कि सत्ताधारी दल का कोई भी सांसद ऐसे सवाल नहीं पूछता या ऐसी कोई भी बात नहीं बोलता जिससे उसके दल के किसी मंत्री को कोई परेशानी हो. जबकि एक वक्त वह था जब अपने ही दल के लोग जनहित के मसलों पर प्रधानमंत्री पर हमला करने से भी नहीं परहेज करते थे. बात 1965 की है. उस वक्त लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे. अनाज के संकट की वजह से महंगाई बढ़ रही थी. सरकार नाकाम और जनता परेशान दिख रही थी. 24 मार्च को कांग्रेसी सांसद विजय लक्ष्मी पंडित ने लोकसभा में सरकार पर जमकर हल्ला बोला. शास्त्री की ओर देखते हुए उन्होंने कहा, ‘लोग कहीं भी ठोस निर्णय नहीं ले रहे हैं. ऐसे में आगे की राह में रोड़े ही रोड़े दिखते हैं. केरल से कश्मीर ओर शेख अब्दुल्ला से लेकर वियतनाम तक कोई फैसला नहीं किया जा रहा है. हम अनिर्णय के शिकार हो रहे हैं.’ हमला होता रहा, पक्ष-विपक्ष के सांसद प्रधानमंत्री की ओर देखते रहे लेकिन शास्त्री चुपचाप इस हमले को झेल गए. लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के कार्यकाल में जब तेलंगाना ओर विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक के मसले पर पार्टी के सांसद केशव राव ने पार्टी लाइन से अलग लाइन ली तो उनके पर कतरने में देर नहीं की गई.
चुनाव आयोग पर चोट
मौजूदा सरकार में शामिल लोगों ने चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था पर भी हमले करने से परहेज नहीं किया. इसी साल हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दौरान चुनाव आचार संहिता की खुलेआम धज्जी उड़ाने वालों में दो केंद्रीय मंत्री भी शामिल हो लिए. विवाद तब शुरू हुआ जब आचार संहिता लगने के बाद केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो मुसलमानों को सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में नौ फीसदी आरक्षण दिया जाएगा. चुनाव आयोग ने इसे आचार संहिता का उल्लंघन माना. इसके बावजूद खुर्शीद ने फर्रुखाबाद में एक चुनावी सभा में कहा कि अगर उन्हें चुनाव आयोग सूली पर भी लटका दे तो वे यह सुनिश्चित करेंगे कि पसमांदा मुसलमानों को उनका हक मिले.
इसके बाद विवाद गहरा गया और चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद की औपचारिक शिकायत की और तत्काल हस्तक्षेप की मांग की. हर तरफ से जब सरकार पर दबाव बढ़ा तो सलमान खुर्शीद को इसके लिए औपचारिक तौर पर माफी मांगनी पड़ी. इसके ठीक दो दिन बाद केंद्रीय इस्पात मंत्री और उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी नेता बेनी प्रसाद वर्मा ने भी मुसलमानों को आरक्षण देने संबंधी बयान देकर चुनाव आचार संहिता या यों कहें कि चुनाव आयोग को अपमानित करने का काम किया. उन्होंने आयोग को चुनौती के लहजे में कहा कि अगर वह उनके खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकता है तो करके दिखाए. वर्मा फर्रुखाबाद के जिस चुनावी मंच से आयोग को चुनौती दे रहे थे उस पर उनके साथ सलमान खुर्शीद और दिग्विजय सिंह भी मौजूद थे.
इस पूरे मामले पर मुख्य चुनाव आयुक्त के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद एसवाई कुरैशी का कहना था, ‘कुछ नेताओं ने आयोग पर हमले किए और हमने नियम के हिसाब से उनके खिलाफ नोटिस जारी किए और अंततः उन्हें माफी मांगना पड़ा. लेकिन सरकार की नीयत और समय अहम है. जिस तरह से और जिस समय चुनाव आचार संहिता में बदलाव की बात कुछ नेताओं ने उठाई उससे उनकी मंशा को लेकर संदेह पैदा होता है…किसी संस्था में बदलाव की आवश्यकता तब महसूस होती है जब वह ठीक से काम नहीं कर पा रही हो. जबकि चुनाव आयोग का प्रदर्शन शानदार रहा है.’ जो बात कुरैशी बचते-बचाते कह रहे हैं उसे सुभाष कश्यप सीधे तौर पर रखते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि सलमान खुर्शीद को चुनाव के कायदे नहीं पता थे. इसके बावजूद अगर वे आयोग से टकरा रहे हैं तो इसके छिपे अर्थों को समझना होगा. एक ऐसे समय में जब देश की ज्यादातर संवैधानिक संस्थाओं की साख घटती जा रही है, चुनाव आयोग पर जिम्मेदार मंत्रियों द्वारा इस तरह के हमले किया जाना लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है.’
हालांकि, चुनाव आयोग पर हमला करने के मामले में भाजपा भी पीछे नहीं रही है. 2002 में गुजरात में हुए दंगों के बाद जब उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह ने कड़ा रुख अपनाते हुए पहले चुनाव कराने से इनकार कर दिया था तो उस वक्त भाजपा चुनाव आयोग पर जमकर हमले बोल रही थी. खुद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सार्वजनिक सभाओं में बार-बार लिंगदोह का पूरा नाम जेम्स माइकल लिंगदोह दोहराकर यह संदेश देना चाह रहे थे कि चुनाव आयोग उन्हें जान-बूझकर धार्मिक आधार पर निशाना बना रहा है.
हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दौरान चुनावी आचार संहिता की खुलेआम धज्जी उड़ाने वालों में दो केंद्रीय मंत्री भी शामिल थे
सीवीसी का राजनीतिकरण
केंद्रीय सतर्कता आयोग भी एक ऐसी संवैधानिक संस्था है जिसके अवमूल्यन का आरोप कांग्रेस पर है. मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति में कांग्रेस ने नैतिक और कानूनी तकाजों की अनदेखी की और वर्ष 2010 में केरला काडर के प्रशासनिक अधिकारी पीजे थॉमस को यह पद दे दिया. उन पर पामोलिन तेल आयात घोटाले में शामिल होने के आरोप थे. यह मामला उच्च स्तरीय चयन समिति में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने उठाया भी था लेकिन कांग्रेसी बहुलता वाली समिति ने उनकी अनदेखी करते हुए थॉमस को नियुक्त कर दिया. कांग्रेस ने इस बात की ओर ध्यान देना ही जरूरी नहीं समझा कि जिस व्यक्ति पर खुद भ्रष्टाचार के आरोप हों उसे ऐसे मामलों की जांच की सबसे बड़ी जिम्मेदारी कैसे दी जा सकती है. नियुक्ति का यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा और वहां थॉमस की नियुक्ति को अवैध बता दिया गया. इसके बाद थॉमस को सीवीसी के पद से इस्तीफा देना पड़ा और सरकार की बड़ी फजीहत हुई.
न्यायपालिका को चुनौती
कांग्रेस की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के प्रतिनिधियों ने कई मौकों पर परोक्ष रूप से ही सही न्यायपालिका को भी अपने दायरे में रहने की सलाह दे डाली है. इस सरकार को उच्चतम न्यायालय से सबसे अधिक दिक्कत हो रही है. क्योंकि सरकार को परेशान करने वाले कुछ मामले अदालत ने खुद अपने हाथ में ले लिए हैं और कुछ जनहित याचिका के जरिए उस तक पहुंचे हैं. जिस ढंग से 2जी मामले की जांच की निगरानी सर्वोच्च अदालत ने अपने हाथ में ली है, उससे भी सरकार को दिक्कत हो रही है. हालांकि, न्यायपालिका के भ्रष्टाचार के मामले उठते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ समय से न्यायालयों खास तौर पर उच्चतम न्यायालय ने जिस तरह से काम किया है उससे लोगों का इस तंत्र पर भरोसा बढ़ा है.
सरकार और अदालत का टकराव उस वक्त ज्यादा बढ़ता हुआ दिखता है जब अदालत चुनावी लाभ से चलाई जा रही सरकारी योजनाओं पर चोट करती है. ताजा मामला हज सब्सिडी का है. सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को हाल ही में यह निर्देश दिया है कि हज सब्सिडी कम करते हुए इसे अगले दस साल में खत्म किया जाए. सरकार के स्तर पर दबी जुबान में ही सही उच्चतम न्यायालय के इस फैसले का विरोध हुआ.
पिछड़ी जाति के लोगों को प्रमोशन में आरक्षण के लिए उच्चतम न्यायालय ने कुछ शर्तें रखी थीं. इनका पालन न करने की वजह से हाल ही में अदालत कई राज्यों में इस तरह के आरक्षण को रद्द कर चुकी है. अब सरकार ने इन शर्तों से छुटकारा पाने के लिए संविधान संशोधन विधेयक राज्यसभा में पेश कर दिया है. जानकार बता रहे हैं कि इस संशोधन का उच्चतम न्यायालय द्वारा खारिज किया जाना लगभग तय है. इस बारे में अटॉर्नी जनरल जीई वहानवती ने कानून मंत्रालय को एक पत्र लिखकर पहले ही बता दिया था कि प्रोन्नति में जाति के आधार पर आरक्षण देने के मामले में कई कानूनी अड़चनें हैं और सरकार के ऐसे किसी फैसले को उच्चतम न्यायालय पलट सकता है. इसके बावजूद सरकार ने जरूरी संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश कर दिया. जानकार मानते हैं कि यह एक ऐसा मामला है जिसमें सरकार तीन-तीन संस्थाओं का अवमूल्यन कर रही है. पहली बात तो यह कि सरकार अटॉर्नी जनरल की राय को कोई महत्व नहीं दे रही. दूसरी तरफ वह न्यायपालिका के निर्णय की काट के तौर पर संविधान संशोधन का रास्ता अपना रही है. और तीसरी बात यह कि यदि सरकार का यह फैसला उच्चतम न्यायालय पलट देता है तो फिर यह संसद के लिए भी अपमानजनक स्थिति होगी.
भविष्य के संकेत
टीएन चतुर्वेदी, सीके जैन और सुभाष कश्यप समेत संविधान की जानकारी रखने वाले लोगों का स्पष्ट मत है कि संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं की साख गिराने से अंततः लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होंगी और मौजूदा व्यवस्था पर से लोगों का भरोसा उठने लगेगा. जो लोग बिना सोचे इस प्रकार का काम कर रहे हैं आखिर में इसका भारी नुकसान उन्हें भी उठाना होगा. खतरा यह है कि पहले से ही विश्वसनीयता के संकट से सबसे अधिक जूझ रहे राजनीतिक वर्ग के औचित्य पर ही देश की जनता सवाल न उठाने लगे. अगर हम सभी संस्थाओं को कमजोर करते रहे तो फिर पूरी व्यवस्था में कोई भी केंद्र ऐसा नहीं बचेगा जिस पर लोग भरोसा कर सकें. ऐसे में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर अराजकता का खतरा स्वाभाविक है. ऐसे में न सिर्फ वह सपना कहीं खो जाएगा जिसके सहारे आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी बल्कि उस दृष्टि का भी कोई मोल नहीं रहेगा जिसे आधार बनाकर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की बुनियाद रखी गई थी.
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