बात इसी फरवरी के पहले दिन की है. भारत के एक प्रमुख हिंदी अखबार के पहले पन्ने पर एक खबर छपी. बिहार में सत्तासीन जद यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव के हवाले से छपी खबर का लब्बोलुआब यह था कि यादव के मुताबिक उनकी पार्टी आम चुनाव के बाद फिर से एनडीए का हिस्सा बन सकती है. यानी भाजपा का साथ ले-दे सकती है.
यह बयान छपते ही पटना के जदयू कार्यालय में एक अजीब-सा माहौल दिखने लगा. ऐसा लग रहा था जैसे न किसी को कुछ उगलते बन रहा है, न निगलते. शरद के हवाले से मीडिया में आई यह बात एक ऐसी बात थी, जिससे साफ तौर पर नीतीश का राजनीतिक नुकसान होता था और उनकी साख पर बट्टा लगाने के लिए भी यह बड़ी बात थी. फिर भी पार्टी के गलियारों में फुसफुसाहट में ही बात होती रही. और वह भी बस इतनी कि शरदजी को ऐसा नहीं कहना चाहिए था. हालांकि एक छोटे खेमे का यह भी कहना था कि शरदजी ने कोई गलत बात नहीं कही है, वे जानते हैं कि ऐसा हो सकता है, इसलिए कहा है. सबसे हैरत वाली बात यह थी कि कोई भी ऐसा नहीं मिला जो डंके की चोट पर कह सके कि शरद यादव ऐसा कह ही नहीं सकते.
अगले दिन उसी अखबार में शरद यादव के हवाले से छपी बातों का खंडन हुआ. कहा गया कि जदयू के फिर से एनडीए का हिस्सा बन जाने की संभावना वाला बयान बेबुनियाद है. इसके तुरंत बाद जदयू के छुटभैय्ये नेताओं से लेकर बड़े सूरमाओं तक के बयान आपस में टकराने लगे. सबने एक सिरे से मीडिया को झूठ-झूठ-झूठ कहना शुरू किया. उधर, शरद यादव की ओर से स्पष्टीकरण आया कि जहां नीतीश हैं, वहां वे हैं और पार्टी में नीतीश और उनकी राय अलग-अलग नहीं है.
दरअसल कुछ समय पहले तक एनडीए के राष्ट्रीय संयोजक रहे शरद यादव अब हाशिये पर हैं. जानकार बताते हैं कि बिहार में सत्तासीन जद यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष का काम बस अब घोषणा करना रह गया है. उनका आधिकारिक जिम्मा बस यही है कि नीतीश कुमार उन्हें जो भी पर्ची थमाएं, वे बिना हिचकिचाहट उसका वाचन कर दें.
हालांकि नीतीश कुमार कहते हैं कि पार्टी के सभी फैसले सर्वसम्मति से होते हैं. यह भी कि बतौर पार्टी अध्यक्ष व नेतृत्वकर्ता शरद यादव कोई भी फैसला लेने या सलाह देने के लिए आधिकारिक तौर पर अधिकृत हैं और ऐसा होता भी है. खुद शरद यादव भी कहते हैं कि जो वे कहते हैं और जो नीतीश कहते हैं, दोनेों में पार्टी के स्तर पर कोई फर्क नहीं होता, लेकिन हाल में कई बार दिखा है कि अाधिकारिक धमक होने की बजाय उनके सुर में घोषणा भर कर देने की एक औपचारिकता दिखती है. हैं. ऐसा उस दिन भी देखा गया था जिस दिन दिल्ली से पटना पहुंचे शरद यादव को भाजपा से अलगाव का आधिकारिक ऐलान करना था. शरद यादव एलान करते वक्त संकोच भाव से, कृत्रिम तरीके से बात कहे जा रहे थे और उनके पास खड़े नीतीश कुमार किसी बच्चे की तरह कुरता पकड़कर बार-बार उन्हें याद दिला रहे थे कि एनडीए के संयोजक पद से भी इस्तीफा देने की घोषणा कीजिए, आप भूल क्यों रहे हैं? तब भी इसकी हल्की झलक दिखी जब जदयू की ओर से राज्यसभा के लिए तीन नामों की घोषणा हो रही थी. महिला आयोग की अध्यक्ष कहकशां परवीन, वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व कर्पूरी ठाकुर के बेटे रामनाथ ठाकुर. इन तीनों नामों की घोषणा शरद यादव ने ही आधिकारिक तौर पर की. तीनों राज्यसभा के लिए निर्विरोध निर्वाचित भी हो चुके हैं, लेकिन जदयू के लोग जानते हैं कि शरद यादव ने यह घोषणा भी अध्यक्ष रहते हुए वाचिक परंपरा का निर्वहन करके ही की थी. शरद यादव की पार्टी में क्या स्थिति रह गई है इसका सबसे ताजा आकलन जदयू के फिलवक्त जारी एक अभियान को देखकर किया जा सकता है. नीतीश कुमार इन दिनों लोकसभा चुनाव के पहले फेडरल फ्रंट बनाने की कवायद में पूरी ऊर्जा लगाए हुए हैं. दिल्ली से लेकर पटना तक की दौड़ लगा रहे हैं. बैठकों पर बैठकें हो रही हैं. मुलायम सिंह यादव, नवीन पटनायक, एसडी देवगौड़ा, प्रकाश करात, एबी वर्धन समेत 11 दलों के नेताओं के साथ बैठकी के बाद यह तय हो चुका है कि मार्च में फेडरल फ्रंट की घोषणा के लिए पटना में एक विशाल रैली होगी. कह सकते हैं कि यह जदयू की ओर से लोकसभा चुनाव के पहले चलाया जा रहा एक राष्ट्रीय अभियान है. लेकिन पार्टी के इस राष्ट्रीय अभियान के सूत्रधार भी राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव नहीं बल्कि नीतीश कुमार ही बने हुए हैं. वे ही पहलकर्ता हैं और सूत्रधार भी. राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर शरद यादव फिर से अपनी ही बातों को बदलकर एक अनुसरणकर्ता और वाचक की भूमिका में आकर बार-बार सिर्फ दुहरा भर रहे हैं- इस मोरचे का गठन बेहद महत्वपूर्ण है. यह एक बड़ी कोशिश है. सार्थक राजनीतिक प्रयास है. आदि-इत्यादि. शरद यादव की यह बेबस भाषा है. नहीं तो कुछ माह पहले सरकारी न्यूज चैनल दूरदर्शन के एक इंटरव्यू में उनहोंने साफ-साफ एलानिया अंदाज में ही कहा था- कोई तीसरा या अन्य किस्म का मोर्चा चुनाव के पहले नहीं बनेगा.
शरद यादव और नीतीश कुमार एक ही दल में रहते हुए अलग-अलग बयान देने के लिए पहले भी सुर्खियों में आ चुके हैं. कुछ समय पहले जब गुजरात में विधानसभा चुनाव होनेवाला था तो जदयू की ओर से यह घोषणा हो चुकी थी कि नीतीश कुमार भी गुजरात में चुनावी मैदान में उतरे जदयू प्रत्याशियों का प्रचार करने जाएंगे. लेकिन नीतीश ने इसे एक सिरे से खारिज कर दिया था. उसके बाद जब भाजपा से अलगाव के पहले दोनों दलों यानि जदयू-भाजपा में रार ठनी हुई थी, तब भी दोनों के बयान अलग-अलग आए थे. नीतीश कुमार बार-बार कह रहे थे कि भाजपा को चाहिए कि वह प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम पहले घोषित कर दे. जदयू के अधिकांश नेता भी इस पक्ष में थे लेकिन तब शरद यादव ने सबसे विपरीत जाते हुए यह बयान देकर सबको चौंका दिया था कि प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम घोषित करने की हड़बड़ी क्या है, यह तो आराम से चुनाव के बाद भी हो सकता है. छपरा में हुई मिड डे मील त्रासदी में भी दोनों नेताओं के अलग-अलग सुर सुने गए. सवाल तब भी यही उठे थे कि आखिर क्यों शरद और नीतीश एक ही दल के दो बड़े नेता होने के बावजूद, कभी-कभी दो ध्रुवों के नेता दिखते हैं? क्यों शरद कभी-कभी नीतीश कुमार की बातों को एक सिरे से खारिज करने की कोशिश करते हैं?
इसका बड़ा ही विचित्र जवाब जदयू से फिलहाल बागी रुख अपनाए हुए पार्टी के एक चर्चित नेता देते हैं. वे कहते हैं, ‘शरद यादव की परेशानी को समझना होगा. वे राष्ट्रीय राजनीति मंे हमेशा कुछ महत्वपूर्ण जिम्मेवारी चाहते हैं जिससे दिल्ली में उनका रसूख बना रहे. जब तक भाजपा-जदयू साथ थे और जदयू एनडीए का हिस्सा था, तब तक एनडीए संयोजक होने के नाते उनके पास एक भ्रमयुक्त पद भी था. लेकिन जदयू-भाजपा के अलगाव के बाद वह पद भी गया. रही बात जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष होकर कुछ खास करने की तो उसकी संभावना नीतीश कुमार ने बहुत पहले से ही खत्म कर दी है.’
कभी राष्ट्रीय स्तर पर धूम मचाने वाले एक नेता की यह स्थिति क्यों हुई? इतिहास बताता है िक शरद वही नेता हैं जिसने आपातकाल से पहले 1974 में मध्यप्रदेश की जबलपुर लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में कांग्रेस के गढ़ को जेल में रहते हुए ही चुनाव लड़कर ध्वस्त कर दिया था. उसके बाद मध्यप्रदेश से बिहार पहुंचकर राजनीति करते हुए वे इतना आगे बढ़ गए कि फिर कभी पीछे देखने की नौबत नहीं आई. सात बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा सांसद रहे. केंद्र में मंत्री बने. उपराष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के तौर पर उनकी बात हुई. उनके पास बिहार में लंबे समय तक सत्ताधारी पार्टी के साथ जुड़कर रसूखदार बने रहने का इतिहास और वर्तमान भी है. जब लालू प्रसाद यादव का राज रहा, तो शुरुआत में लंबे समय तक उनके खास सलाहकार और सिपहसालार बने रहे. बाद में जब नीतीश कुमार की बारी आई तो भी उन्हें अहमियत मिली. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए. लेकिन आज उसी बिहार में, राज्य की प्रमुख पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के बावजूद उनका रसूख वह नहीं रहा जिसके वे आधिकारिक तौर पर हकदार हैं.
दरअसल जदयू मूलतः बिहार की पार्टी भर रह गई है. जो बिहार के नेता हैं उन्हें मालूम है कि शरद यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष हों या कुछ और, अगर चुनाव जीतना है, टिकट लेना है, संगठन में भी कोई पद पाना है तो शरद की बजाय नीतीश परिक्रमा करना और उनके सुर में सुर मिलाना ही बेहतर होगा. जदयू के ही एक नेता कहते हैं, ‘वे तो एक ऐसे राष्ट्रीय अध्यक्ष हो गए हैं जिसे अपनी पार्टी की जितनी चिंता है, उतनी ही चिंता किसी तरह अपनी लोकसभा सीट पर फिर से किसी तरह जीत जाने की है.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘शरद यादव मधेपुरा के सांसद हैं. मधेपुरा में वे लालू प्रसाद यादव को हरा चुके हैं. मधेपुरा यादवों का गढ़ रहा है, लेकिन वहां के अधिकांश यादवों में नेता के तौर पर लालू यादव और पार्टी के तौर पर राजद की ही ज्यादा अपील है. शरद के यादव होने के बावजूद वहां उनकी जीत की गारंटी अब तक गैर यादव मतदाता ही देते रहे हैं. लेकिन इस बार भाजपा से अलगाव के बाद शरद के पक्ष में जाने वाले मतों का विभाजन साफ हो चुका है, इसलिए उनकी चिंता वाजिब है.’ सूत्रों के मुताबिक इसलिए बीच में बात भी हवा में फैली कि शरद यादव मधेपुरा की बजाय नीतीश कुमार के गढ़ नालंदा से चुनाव लड़कर अपनी सांसदी जारी रखना चाहते हैं.’ हालांकि शरद कहते हैं कि यह सब गलत बात है, वे मधेपुरा से ही चुनावी मैदान में उतरेंगे और मीडिया अपनी मर्जी से बयानों को छाप रहा है.