दिसंबर का आधा महीना भारत के लिए बहुत ही दुर्भाग्य रहा। या यूँ कहें कि सन् 2019 का अंत हमारे लिए बहुत कड़ुवे और दु:खी कर देने वाले अनुभवों वाला रहा। जनवरी में सब कुछ शान्त रहे, इसकी हम कामना करते हैं। दिसंबर में जिस तरह से पूरे देश में सीएए और एनआरसी के नाम पर विरोध-प्रदर्शन, ङ्क्षहसा और प्रतिङ्क्षहसा का माहौल बना रहा, वह किसी भी हाल में ठीक नहीं कहा जा सकता। दु:खद यह है कि आम लोग नहीं समझ पाये कि उनके शान्ति से किये जा रहे विरोध-प्रदर्शनों पर सियासी गिद्द नज़रें भी टिकी हुई हैं। यही वजह रही कि सीएए और एनआरसी की इसी मुखालिफत का सियासी जालसाज़ों के इशारे पर काम करने वाले अराजक तत्त्वों ने फायदा उठाया और जगह-जगह आगजनी तथा तोडफ़ोड़ की। इससे पहले एक के बाद एक तकरीबन सात-आठ युवतियों से सामूहिक दुष्कर्म ज़िान्दा जलाया गया। उफ! आिखर किस रास्ते पर जा रहे हैं हम? क्या हमें हमारे बुजुर्गों ने इसी दिन के लिए आज़ाद कराया था? क्या हमारी ज़िम्मेदारियाँ इस देश के प्रति, अपनी नयी तथा आने वाली पीढिय़ों के लिए खत्म हो गयी हैं? क्या हम एक उजड़ा हुआ, गरीब, आपसी टकराव वाला, कमज़ोर और टुकड़ों में बँटा हुआ देश अपनी संतानों को देकर जाना चाहते हैं? अभी तो हमने आज़ादी का शतक भी नहीं बिताया है। अभी तो हमारे उन बुजुर्गों की एकता और दोस्ती की मिसालें भी हमारे स्मृति पटल से विस्मृत नहीं हो सकी हैं, जिनमें उनके द्वारा मिलकर आज़ादी की लड़ाई लडऩे के हज़ारों िकस्से हैं। फिर भी हम एक दूसरे के दुश्मन होने को तैयार हैं। वह भी किसी एक कानून को लेकर और दुर्भाग्यवश उसमें हमने मज़हब की दीवार खड़ी कर दी है।
लेकिन हम लोगों को इतना ध्यान रखना चाहिए कि अगर हम आपस में लडक़र मर भी जाएँगे, तो भी सियासतदाँ मज़े ही करेंगे, अपने फाइव स्टार होटल टाइप बंगलों में हमारी मूर्खता पर ठहाके लगाएँगे, मिल-बैठकर बिरयानी उड़ाएँगे। शायद ही कम लोग हैं, जो इन सियासी लोगों की चाल को समझ पाते हैं। मेरे दादा जी, जिन्होंने खुद एक अंग्रेज का सिर फोड़ दिया था; कहा करते थे कि 70 प्रतिशत सियासदाँ इंसानियत और देश के असली दुश्मन हैं। ये लोग जनता का खून चूसने के अलावा किसी का भला नहीं करेंगे। इन्हें सिर्फ अपनी रोटियाँ सेंकने से मतलब है। इस बात में बहुत सच्चाई है। मेरे खुद के कई ऐसे अनुभव हैं, जिससे यह बात शत्-प्रतिशत सच साबित होती है। ऐसा ही एक िकस्सा मुझे खूब याद है। उन दिनों मैं 10वीं का छात्र था।
बरेली के प्रगतिशील कस्बे मीरगंज के एक मोहल्ले में दंगे भडक़ गये। पहले तो यह बात फैली कि मंदिर और मस्जिद में लाउडस्पीकर को लेकर तनाव है। दोनों ही पक्ष लाउडस्पीकर को लेकर एक-दूसरे का विरोध कर रहे थे और अपने-अपने धाॢमक स्थलों पर लाउडस्पीकर लगाने की ज़िाद पर अड़े थे। इसके पीछे दोनों पक्षों के अपने-अपने अनेक तर्क थे। मसलन, हमारे यहाँ लाउडस्पीकर पहले से लगा है। आपके लाउडस्पीकर से हमारी पूजा में या हमारी इबादत में खलल पड़ती है। आप लोग बहुत तेज़ लाउडस्पीकर बजाते हैं। इस मामले में मौलवियों का कहना था कि हम सिर्फ अजान के लिए या किसी खास सूचना के लिए ही लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करते हैं। जबकि पुजारी पूजा करने के अलावा घंटों भजन बजाते रहते हैं। वहीं पण्डितों का आरोप था कि मौलवी बहुत ज़ोर से पूजा के समय ही अजान लगाते हैं, जिससे पूजा में बहुत खलल पड़ती है। जबकि सच्चाई यह थी कि इससे पहले भी मंदिर और मस्जिद दोनों में लाउडस्पीकर लगे थे; हालाँकि, दोनों ही धाॢमक स्थलों पर झगड़े से पाँच-छ: साल पहले ही लाउडस्पीकर लगे थे और कभी भी कोर्ई झगड़ा नहीं हुआ था। फिर अचानक यह झगड़ा कैसे शुरू हो गया? इस बात पर कोर्ई भी विचार नहीं कर रहा था। जब पूरी तरह मोहल्ले के साथ-साथ पूरे कस्बे में तनाव फैल गया। दो मुस्लिम नेता और तीन हिन्दू नेता अपनी-अपनी तरफ लगी आग में लगातार घी डाल रहे थे और एक-दूसरे के मज़हब को भी कोस रहे थे। दोनों ही तरफ के अराजक तत्त्व दंगे करने पर उतारू थे और कई जगह आगजनी, तोडफ़ोड़ जैसी घटनाओं को अंजाम भी दे चुके थे। इस ङ्क्षहसा में कई निर्दोष लोग घायल भी हुए, कई निर्दोषों की सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाया गया। सरकारी सम्पत्ति को भी नुकसान पहुँचाया गया। तभी करीब छ: दिन बाद एक दैनिक समाचार पत्र में खबर छपी कि मुस्लिम और हिन्दू नेताओं ने इस दंगे के लिए फंडिंग की है और कल रात दोनों समुदायों के नेताओं ने एक साथ बैठकर बिरयानी और शराब उड़ायी है।
बस फिर क्या था, दोनों ही तरफ के लोगों में दोनों समुदायों के नेताओं को कोसना शुरू कर दिया और उन्हें गिरफ्तारी करने की पुलिस से माँग की। हालाँकि, नेताओं की गिरफ्तारी तो नहीं हुई, लेकिन यह मामला सामने आने और पुलिस अधिकारियों के दोनों समुदायों के लोगों को समझाने पर झगड़ा शान्त हो गया। कुछ अराजक तत्त्वों को ज़रूर पकड़ लिया गया, जो ज़रूरी भी था। अब फिर से वही पुराना सद्भाव और भाईचारे का माहौल था। सातवें दिन मंदिर में भी लाउडस्पीकर पर पूजा हुई, भजन भी बजे और मस्जिद में भी लाउडस्पीकर पर अजान भी हुई। न किसी को किसी से कोर्ई आपत्ति थी और न ही कोर्ई शिकायत। यही धाॢमक एकता और भाईचारा हमारे देश की संस्कृति है। पर किसे समझाया जाए? ज़रा-ज़रा सी बात पर दोनों समुदायों के लोग सडक़ों पर आ जाते हैं। ङ्क्षहसा अराजक तत्त्व करते हैं, जो कि सियासी लोगों के गुर्गे या भाड़े के टट्टू होते हैं और पिटते-मरते आम लोग हैं। सियासतदाँ एक साथ बैठकर बिरयानी खाते हैं और लोग जिस भी सियासतदाँ को पसन्द नहीं करते, उसके िखलाफ ज़हर उगलते हैं, गाली-गलौच करते हैं। आम लोग क्या, अनेक बुद्धिजीवी भी बह जाते हैं इस सियासी माहौल में।