वैचारिक आस्था के स्तंभ थे डॉ राममनोहर लोहिया

डॉक्टर राममनोहर लोहिया का व्यक्तित्व बहुआयामी था और भारत की सांस्कृतिक चेतना पर उनके विचारों की छाप गहरी थी. स्त्री-पुरुष संबंध, जाति व्यवस्था, भारतीय भाषाओं और कला व जीवन को प्रभावित करने वाले मिथकीय आदर्श पुरुषों राम, कृष्ण और शिव से संबंधित सामाजिक चेतना को उन्होंने अपनी विशिष्ट दृष्टि से आलोकित किया. जो मिथक अपने पारंपरिक रूप में जड़ हो गए थे वे लोहिया के स्पर्श से फिर स्पंदित होकर सामाजिक जीवन के लिए सार्थक बनते दिखाई दिए. खास तौर से राम एक मर्यादापुरुष के रूप में राजनीति में छीजती हुई मर्यादाओं को फिर से जागृत करने की मांग करने लगे. लौकिक जीवन को संवारने-बनाने में मिथकों की बड़ी भूमिका होती है और लोहिया ने राम के मर्यादित व्यक्तित्व को इसी दृष्टि से उजागर किया.

लोहिया खुद से और अपने अनुयायियों से भी नीति और कार्य में कुछ कठोर मर्यादाओं के पालन की अपेक्षा रखते थे. 1956 में उनकी नवगठित सोशलिस्ट पार्टी ने बिहार में कुछ मांगों को लेकर आंदोलन शुरू किया था. आंदोलन के संचालन में लोहिया की गहरी रुचि थी. इसमें बिहार भर में सरकारी प्रतिष्ठानों के सामने सविनय अवज्ञा से गिरफ्तारी देने का कार्यक्रम था. लोहिया ने पाया कि आंदोलन रस्मी बनता जा रहा है और सरकार आंदोलनकारियों को गिरफ्तार करने की बजाय नजरअंदाज कर रही है. यह देखकर उन्होंने आंदोलनकारियों को संदेश दिया कि उनको अपनी अवज्ञा में ऐसी दृढ़ता दिखानी चाहिए कि सरकार को उन्हें या तो जेल भेजना पड़े या अस्पताल. इसके बाद अवज्ञा की दृढ़ता का ऐसा असर हुआ कि अनेक जगह आंदोलनकारियों पर बर्बर प्रहार हुए और उन्हें गिरफ्तार किया जाने लगा. अनेक लोग घायल अवस्था में अस्पताल भेजे गए. इस आंदोलन के क्रम में लगभग छह हजार लोग गिरफ्तार किये गए.

लोकतांत्रिक राजनीति में मर्यादा का महत्व सर्वोपरि है. यह शासक और शासित दोनों को बांधती है. मर्यादा के अभाव में शासक स्वेच्छाचारी और लोकतंत्र अनियंत्रित भीड़तंत्र में बदल जाता है. वर्तमान परिदृश्य में इसके अभाव का नतीजा भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में देखा जा सकता है. राम से जुड़े मिथक से लोहिया ने भारत के लोकतंत्र को मर्यादा में बंधे रहने का गंभीर संदेश दिया था. शासकीय उच्छृंखलता के इसी पक्ष को लोहिया ने संसार में उजागर किया जब उन्होंने इस तथ्य की ओर देश का ध्यान खींचा कि देश का सबसे गरीब आदमी तीन आने रोज पर गुजारा करता है जबकि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर रोजाना पच्चीस हजार रुपये खर्च होते हैं. आज यह अनुपात शायद बीस रुपये और कई लाख का हो गया है. लेकिन सत्ताधरियों के ऐसे उच्छृंखल व्यवहार पर आज कोई उंगुली नहीं उठाता. बीस रुपया रोजाना पर गुजर करने वालों को नजरअंदाज करके सांसद और मंत्री रोज अपनी सुविधाएं बढ़ाते जाते हैं.

अपने व्यक्तित्व में बहुआयामी होने के बावजूद लोहिया मूलतः एक राजनेता थे, इसलिए राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए राजनीति के संबंध में उनके विचारों का विशेष महत्व है. उनका कहना था कि राजनीति अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति. इस परिभाषा से राजनीति करने वालों पर एक कठोर नैतिक बंधन लग जाता है. यह प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक कांट के ‘क्रिटिक ऑफ प्रैक्टिकल रीजन’ में व्यक्त ’कैटेगोरिकल इम्परेटिव’ जैसा है जो कहता है कि कर्तव्य का पालन बिना इसके लिए तर्क ढूंढ़े करो.

जब लोहिया राजनीति को अल्पकालिक धर्म बताते हैं तो इसे कठोर मूल्यों से बांधने का आग्रह जाहिर करते हैं

शायद अपने इस विचार में लोहिया गांधी से प्रेरणा प्राप्त करते हैं. गांधी लोहिया को अपने समय में जीवित मर्यादापुरुष लगते थे. राजनीति की यह परिभाषा राजनीतिशास्त्र की सभी प्रचलित परिभाषाओं से भिन्न है. भारतीय और पश्चिमी दोनों परंपराओं में आम तौर पर राजनीति  छल-बल से किसी भी तरह सत्ता पाने और इसे सुरक्षित रखने के कौशल से जुड़ी रही है. भारत में इसे कौटिल्य के व्यक्तित्व से जोड़ा जाता रहा है, तो पश्चिमी दुनिया में मैकियावेली से जिसकी विख्यात किताब ‘प्रिंस’ उन सारी मानवीय कमजोरियों का निर्मम विश्लेषण है जिनका सहारा लेकर राजनेताओं को सत्ता हासिल करना और उस पर काबू बनाए रखना चाहिए. अनेक लोगों को यह साक्षात ‘शैतान प्रदत्त शासन सूत्र दिखाई देता है.

इसके विपरीत जब लोहिया राजनीति को अल्पकालिक धर्म बताते हैं तो इसे कठोर मूल्यों से बांधने का आग्रह जाहिर करते हैं. यहां सत्ता स्वयं में काम्य नहीं हो सकती. इसे सदा किसी बड़े मानवीय उद्देश्य से बंधा रहना है.

लेकिन यह नैतिक उद्देश्य कैसे निर्धारित होगा? शायद इसी सवाल के जवाब में लोहिया धर्म को ‘दीर्घकालिक राजनीति’  के रूप में परिभाषित करते हैं. इस अर्थ में धर्म आइडियोलॉजी यानी विचारधारा के एक परिष्कृत रूप की भूमिका में उपस्थित होता है.

विचारधारा  को आम तौर से किसी समूह या वर्ग के स्वार्थों से जोड़ा जाता है. यह समूह के गंतव्य और मार्ग दोनों को निर्देशित करती है. नैतिक दृष्टि से यह तटस्थ हो सकती है या समूह का स्वार्थ ही उसकी नैतिकता बन जाती है. लेकिन जब विचारधारा एक धर्म के रूप में आती है तो यहां नैतिक तटस्थता की गुंजाइश नहीं रह जाती. यहां यह कह कर सभी बंधनों से मुक्ति नहीं मिल सकती कि हमारे वर्ग, हमारे समुदाय या हमारे देश हित के सामने सही या गलत का कोई भी विवाद अर्थहीन है. सबके ऊपर, विवाद से परे है देशहित, वर्गहित या जनहित. भीड़तंत्र के पीछे सामूहिक वफादारी का यह उन्माद बना रहता है. धर्म कम से कम सिद्धांत के स्तर पर कुछ उदात्त मूल्यों को सर्वोपरि मानता है और मानव संबंधों में स्वेच्छाचारिता पर लगाम कसने की नसीहत देता है. दया, परोपकार, सत्य के प्रति इसके घोषित उद्देश्य हैं. यह कहा जा सकता है कि हकीकत में धार्मिक समूहों पर भी उन्माद छा जाता है जिसका उदाहरण अनेक धर्मयुद्ध और हाल के दिनों में उभरा धार्मिक कट्टरपन है.

लेकिन जब लोहिया धर्म की बात करते हैं तो इसके आदर्श रूप में ही. धर्म का सर्वाेच्च रूप होता है आदर्शों के लिए आत्मबलिदान की तैयारी. लोहिया ने अपने जीवन में अपने आदर्शों के लिए- चाहे वह स्वतंत्रता संघर्ष में हो चाहे समाजवादी आंदोलन के उद्देश्यों के लिए- सदा जोखिम उठाया.
इन आदर्शों के विपरीत आचरण के वे कटु आलोचक भी रहे. नेहरू ने पहले पहल लोहिया को कांग्रेस की विदेश विभाग के देखरेख की जिम्मेदारी सौंपी थी. वे उनके काफी करीब थे. लेकिन आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने समता के आदर्शों के विपरीत काम करना शुरू किया तो लोहिया उनके सबसे कट्टर आलोचक बन गए. जब लोहिया प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के महामंत्री थे तब उन्होंने केरल के अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री पी पिल्लई को वहां पुलिस गोलाबारी में कुछ लोगों के मारे जाने पर तुरंत न्यायिक जांच की घोषणा करके इस्तीफा देने का आदेश दिया.

उदात्त मूल्यों को लेकर चलने वाले आंदोलन अपने मूल आदर्शों की बजाय बाहरी आंडबरों को ही लेकर चलने लगते हैं

इससे पैदा हुए विवाद के कारण उन्हें न सिर्फ पार्टी के महामंत्री का पद छोड़ना पड़ा बल्कि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना करनी पड़ी.

शायद अपने देश की यह नियति रही है कि सभी उदात्त मूल्यों को लेकर चलने वाले आंदोलन अपने मूल आदर्शों की बजाय बाहरी आंडबरों को ही लेकर चलने लगते हैं. शायद ऐसा भटकाव काफी पहले से रहा है जिस पर कबीर ने यह व्यंग्य किया था ‘मन न रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा’. हमारे देश में समाजवादी नामधारी एक पार्टी है जो लोहिया की विरासत को लेकर चलने का दावा करती है. इसके कई लोग युवा काल में लोहिया के नेतृत्व में काम भी कर चुके हैं. यह पार्टी देश में सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य में शासन भी कर चुकी है और फिलहाल फिर वहां शासन करने का जनादेश प्राप्त कर चुकी है. इसके नेता केंद्रीय मंत्रिपरिषद में भी रह चुके हैं.

लेकिन लोहिया की विरासत से इन्होंने क्या लिया है? यह जरूर है कि कभी-कभी उस राज्य की सड़कें प्रदर्शनों के समय लाल टोपियों से पट जाती हैं. परिवारवाद इस पार्टी में भी हावी होता दिखता है जिसके कारण लोहिया ने नेहरू की कड़ी आलोचना की थी. आज लोहिया की कमी उस सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के अभाव में दिखती है जो देश की राजनीति पर हावी है.