हर साल 20 फरवरी को दुनिया भर में विश्व सामाजिक न्याय दिवस मनाया जाता है। लेकिन सामाजिक न्याय की ज़मीनी हक़ीक़त देखने पर पता चलता है कि इस मामले में दुनिया बहुत पीछे है। ख़ासकर अगर भारत की बात करें, तो यहाँ अन्याय जिस पैमाने पर होता है, उससे निकलना इस देश के लिए आसान नहीं है। क्योंकि यह अन्याय बड़े स्तर पर ही बड़े लोगों के द्वारा किया जाता है। शोषण इसकी पहली परत है। सामाजिक न्याय की इस परत के नीचे न जाने कितने ही तरह की परतें छिपी हैं, जिसमें शोषण, अत्याचार, लूट, बेईमानी, रिश्वत, छीना-झपटी की कई-कई परतें हैं। इसकी वजह यह है कि जिस राजनीति और न्यायिक संस्थाओं को न्यायप्रिय होना चाहिए, वहाँ अनेक लोग बेइमानी की बुनियाद पर ही कुंडली मारकर बैठे हुए हैं।
आज देश में यह हाल है कि जिन लोगों के साथ अन्याय होता है, वो न्याय पाने के लिए जिनके पास जाते हैं, वहाँ भी कई बार ज़ुल्म के शिकार होते हैं। न्याय के लिए बनायी गयी संस्थाएँ आज ख़ुद इतनी अन्यायप्रिय हो चुकी हैं कि उनसे न्याय की उम्मीद करना भी कभी-कभी बेमानी लगती है। आज की राजनीति की तो जैसे बुनियाद ही झूठ, अन्याय और भ्रष्टाचार की ईंटों पर रखी गयी है। आज के समय में दुनिया में 10 में आठ लोग कहीं-न-कहीं इस बात से पीडि़त हैं कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। दफ़्तरों से लेकर घर तक में अन्याय की ऐसी हवा चल रही है कि पीडि़तों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसके चलते लोग न केवल एक-दूसरे पर से अपना विश्वास खो रहे हैं, बल्कि एक-दूसरे से डरे हुए भी हैं और दूरी बनाने में ही अपना भला समझने लगे हैं। आज अगर कोई किसी से मुँह जोडक़र बात भी करता है, तो उसके पीछे उसके अपने स्वार्थ ही छिपे होते हैं। हर कोई अपने आपको सामने वाले से असुरक्षित महसूस करता दिखायी देता है। भारत में करोड़ों लोगों में यह असुरक्षा की भावना पनप रही है, जिसकी वजह यही है कि उन्हें न्याय न मिलने का भय है। और यह भय उनके मन में यहाँ तक घर कर चुका है कि अगर कोई उनसे मज़बूत आदमी उन पर अन्याय करता है, तो वे उसके ख़िलाफ़ बोलने से भी डरते हैं। जबकि संविधान के मुताबिक, हर व्यक्ति को न्याय पाने का अधिकार है। यह न्याय ही की बदौलत ही तो है कि लोग अपने को सुरक्षित रख पाते हैं, अन्यथा अगर न्याय की व्यवस्था नहीं की जाती, तो समाज की व्यवस्था ही तहस-नहस हो जाती। लेकिन बहुत-से पूँजीपतियों, रसूख़दारों और राजनीतिक रूप से मज़बूत लोगों ने इन न्यायिक व्यवस्था को भी अपनी जेब में रखने की जो कोशिश की है, उससे यह व्यवस्था कमज़ोर तो हुई है। लेकिन आम लोगों को यह जानना चाहिए कि भारत के संविधान के अनुच्छेद-32 उच्चतम न्यायालय और अनुच्छेद-226 उच्च न्यायालयों को न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति प्रदान करता है। ऐसे में न्याय पर लोगों का भले ही मौलिक अधिकार न हो; लेकिन उन्हें अन्याय के ख़िलाफ़ लडऩे का अधिकार है और वे अपने साथ अन्याय करने वाले की शिकायत पुलिस, न्यायालय व न्यायिक संस्थाओं तक ले जा सकते हैं, जो अन्यायी को दण्ड देने में समर्थ हैं।
हालाँकि इन संस्थाओं पर अति भार और इनमें अन्यायकारी, रिश्वती लोगों की नियुक्ति की वजह से लाखों पीडि़तों को परेशानियों का सामना भी करना पड़ रहा है। कहा जाता है कि न्याय का न हो, तो उसे पाने के लिए कई बार पीडि़त भी अपराधी या अन्यायकारी हो जाता है। दुनिया में इस तरह के कई उदाहरण हैं, जब पीडि़तों ने अपने को मज़बूत बनाने और अन्यायकारियों को सबक़ सिखाने के लिए अपराध और अन्याय की शरण ली है। अन्याय से लोगों की एकजुटता ख़त्म होती है और सामाजिक व्यवस्था को धक्का लगता है।
अन्याय की एक वजह बड़े-छोटे में भेद करना भी है, जो कि भारत में तो सदियों से चरम पर है ही, आधुनिक युग में इसकी खाई अब और बढ़ती जा रही है। विश्व सामाजिक न्याय दिवस के मौक़े पर यह सन्देश दुनिया भर में दिया जाता है कि नस्ल, लिंग, धर्म, जाति, छोटे-बड़े, ग़रीबी, बेरोज़गारी के आधार पर बँटे और भेदभाव के शिकार लोगों को एकजुट किया जाए। हमारे देश में तो वसुधैव कुटुंबकम का मंत्र दिया गया है। लेकिन अपने ही लोगों के साथ अन्याय में वही लोग आगे रहे हैं, जो वसुधैव कुटुंबकम की तख़्ती गले में लटकाये फिरते हैं। इसी को कहा जाता है कि मन में राम बग़ल में छुरी।
भारत में अन्याय की पराकाष्ठा
भारत में अन्याय की पराकाष्ठा देखनी हो, तो उन लोगों को पहली नज़र में उन लोगों पर डालनी होगी, जो न्याय न मिलने के भय से अपनी पीड़ा दबा लेते हैं और अन्यायकारियों के ख़िलाफ़ शिकायत तक नहीं करते। दूसरी नज़र उन लोगों पर डालनी होगी, जो न्याय के लिए लड़ तो रहे हैं; लेकिन इस न्याय की लड़ाई लड़ते-लड़ते या तो वे ख़त्म हो गये या फिर उनकी लम्बी उम्र इसी में चली गयी या जा रही है।
सन् 2007 में संयुक्त राष्ट्र ने 20 जनवरी को सार्वजनिक रूप से मनाने की घोषणा की थी। लेकिन सन् 2009 में इस महत्त्वपूर्ण दिन को पहली बार पूरी दुनिया में मनाया गया था। आज विश्व सामाजिक न्याय दिवस को मनाने के दौरान हर देश की सरकारें बड़ी-बड़ी घोषणाएँ करती हैं और इसके लिए दुनिया के कई देश संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर काम भी कर रहे हैं। लेकिन सामाजिक न्याय में पिछड़े हुए हैं, जिसके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई उदाहरण हैं। अगर भारत के इतिहास और वर्तमान को लें, तो पता चलता है कि भारत सदियों से अन्याय का शिकार रहा है। वर्तमान में भी हमारे पड़ोसी देश हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करने में लगे हैं और संयुक्त राष्ट्र की सामाजिक न्याय की इकाई इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं करती, न ही भारत के पड़ोसी देशों पर उनकी अन्यायकारी नीतियों को रोकने के लिए उन पर दबाव बनाता है।
भारत सरकार की कोशिश
भारतीय संविधान की तो नींव ही सामाजिक न्याय के आधार पर रखी गयी है। भारतीय संविधान बनाने के दौरान ही डॉ. भीमराव अंबेडकर ने सामाजिक न्याय और समानता को प्रमुखता दी थी। आज ऊँच-नीच, छोटे-बड़े, ग़रीब-अमीर और स्त्री-पुरुष में किसी हद तक जो भेदभाव मिटा है, वह उनकी सोच और संविधान की ही देन है। ख़ुद डॉ. भीमराव अंबेडकर भेदभाव के शिकार थे। लेकिन उन्होंने अपने परिश्रम से उस ऊँचाई को हासिल किया कि उनके आगे बड़े-बड़े लोग नतमस्तक होते उस समय भी देखे गये और आज भी होते हैं। हमारे संविधान में सामाजिक भेदभाव और सामाजिक दूरी मिटाने के लिए भी कई प्रावधान किये गये हैं, जिसके लिए न्यायिक व्यवस्थाएँ बनायी गयी हैं। भारत सरकार सामाजिक न्याय के लिए अनेक प्रभावी क़दम समय-समय पर उठाती रहती है। लेकिन फिर भी यहाँ भेदभाव किसी-न-किसी रूप में देखने को मिल ही जाता है।
भारत सरकार संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर भी सामाजिक अन्याय को ख़त्म करने के लिए प्रभावी क़दम उठा रही है। फिर भी यह कहना ही पड़ेगा कि यह प्रयास अभी नाकाफ़ी हैं और इसके लिए न्यायिक व्यवस्था को और मज़बूत करने की ज़रूरत है, ताकि किसी भी सामाजिक स्तर का कोई भी व्यक्ति न्याय न मिलने के भय से पीड़ा सहता रहे और न्याय की गुहार तक न लगा सके। इसके लिए सबसे पहले न्यायिक संस्थाओं से जुड़े लोगों को इसके लिए वाध्य करना पड़ेगा कि वे हर हाल में न्याय ही करेंगे। लेकिन देखा गया है कि वे ही कई बार अन्यायकारी और पीड़ादायक साबित होते हैं, जिसकी वजह से पीडि़त लोग चुपचाप पीड़ा सहते रहते हैं और न्याय माँगने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाते। इस मामले में भारत में ग़रीबों और महिलाओं की संख्या सबसे ज़्यादा है। इसके छ: प्रमुख कारण हैं- शिक्षा में असमानता, भोजन में असमानता, सम्मान में असमानता, वरीयता में असमानता, न्याय में असमानता, जातिगत और धर्मगत असमानता। आज दुनिया के हर क्षेत्र में, ख़ासकर घरों में महिलाएँ पुरुषों की तुलना में दासता की बेडिय़ों में ज़्यादा जकड़ी हैं। ग़रीब लोग भी इसके उसी तरह शिकार हैं। पूँजीपतियों द्वारा अपने से धन में कमज़ोर लोगों से गुलामों जैसा बर्ताव अन्याय का एक और दूसरा बड़ा कारण है, जिसे ख़त्म करने की आज सख़्त ज़रूरत है। आजकल दफ़्तरों से लेकर सामाजिक न्याय के लिए खड़ी संस्थाओं में भी शोषण की शिकायतें आम हो चुकी हैं। पुलिस जैसे विभाग में कितने ही पुलिस वाले, ख़ासकर महिलाएँ अपने अफ़सरों की प्रताडऩा और शोषण से पीडि़त हैं। हद तो यह है कि उन्हें गुहार लगाने पर भी न्याय नहीं मिलता। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि जिन अफ़सरों या न्यायिक संस्थाओं से वे शिकायत करते हैं, वे भी या तो पीड़ा पहुँचाने वालों की प्रवृत्ति के होते हैं या उनसे मिले होते हैं या रिश्वत, पद, सम्मान, पैसा आदि के चलते उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करते हैं। इसी तरह महिलाओं और बहुत-से लोगों, ख़ासकर दूसरों का काम करने वालों को मेहनताना नहीं मिलता। यह भी तो सामाजिक अन्याय ही है। इसके अलावा महिलाओं को सम्पत्ति में अधिकार पुरुषों की तरह नहीं है, ख़ासकर भारत में तो सदियों से नहीं रहा है। जबकि न्यायालय कई बार कह चुके हैं कि महिलाओं का सम्पत्ति में पुरुषों की बराबर ही अधिकार है। लेकिन यहाँ की सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप बनी लोगों की मानसिकता उन्हें इसका अधिकार नहीं देने देती। आज अगर कोई बेटी अपने पिता की सम्पत्ति में अपना अधिकार जताती है और बँटवारे के लिए खड़ी होती है, तो उसी के भाई, रिश्तेदार और कई बार तो ख़ुद माता-पिता उसके दुश्मन हो जाते हैं। इसी डर से लड़कियाँ अपने पिता की सम्पत्ति में अपना अधिकार नहीं जतातीं और ससुराल में भी अमूमन सम्पत्ति के अधिकार से वंचित ही रहती हैं।
भेदभावपूर्ण रवैया
लोगों को अगर आज न्याय नहीं मिल पाता है, तो इसके लिए कहीं-न-कहीं वैधानिक पदों पर बैठे लोग ही सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है। क्योंकि कई ऐसे मामले देखे गये हैं, जिनमें क़ानूनी लड़ाई लड़ते-लड़ते लोग गुज़र गये या फिर उनकी उम्र निकल गयी। एक रिपोर्ट बताती है कि पुरुषों उसकी तुलना में महिलाओं को केवल तीन-चौथाई ही सामाजिक संरक्षण हासिल होता है। यही दशा न्याय की है। जब भी महिला-पुरुष में किसी बात को लेकर टकराव होता है, तो महिला का मायका और ससुराल पक्ष उसी पर समझौते का दबाव बनाते हैं और उसे ही ख़ामोश रहने को कहते हैं।
भारत में यह बहुतायत में देखने को मिलता है। मध्य पूर्व और उत्तर अफ्रीका के देशों में यह स्थिति और भी ख़राब है। वहाँ पुरुषों की तुलना में महिलाओं को 47 फ़ीसदी के क़रीब ही क़ानूनी अधिकार प्राप्त हैं।
न्याय में देरी की वजह
भारत में तो न्याय न मिलने की एक बड़ी वजह यह भी है कि यहाँ न्याय के लिए जितने न्यायालय और न्यायिक लोग चाहिए, उतने हैं ही नहीं। भारतीय न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सर्वोच्च न्यायालय और सरकार के बीच पहले भी कई बार टकराव की स्थिति बन चुकी है। बड़ी संख्या में लम्बित मामलों के निपटान के लिए यहाँ न्यायाधीश हैं ही नहीं, जिन्हें लेकर सर्वोच्च न्यायालय लगातार न्यायाधीशों की संख्या को बढ़ाने की बात कहता रहा है। लेकिन सरकार ने इसके लिए आज तक कोई ठोस क़दम नहीं उठाया है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक,15 सितंबर 2021 तक देश के न्यायालयों में लम्बित मामलों की संख्या 4.5 करोड़ से ज़्यादा थी। इसमें अधीनस्थ न्यायालयों (सबऑर्डिनेट कोट्र्स) में 87.6 फ़ीसदी मामले लम्बित थे और उच्च न्यायालयों में 12.3 फ़ीसदी मामले लम्बित थे। वहीं सर्वोच्च न्यायालय में 70,000 से अधिक मामले उस समय लम्बित थे। रिपोर्ट के मुताबिक, सन् 2010 से 2020 के बीच लम्बित मामलों की संख्या में 2.8 फ़ीसदी सालाना की दर से बढ़ोतरी हुई। एक अनुमान के मुताबिक, कोरोना महामारी और उसमें लगे लॉकडाउन के दौरान लम्बित मुक़दमों की संख्या में और भी बढ़ोतरी हुई है, जिसके आँकड़े आने अभी बाकी हैं। एक रिपोर्ट बताती है कि सुनवाई के इंतज़ार में देश में 4.5 करोड़ से अधिक मामले लम्बित पड़े हैं और 50 फ़ीसदी न्यायाधीशों के पद रिक्त पड़े हैं। आँकड़ों के मुताबिक, सन् 2019 से 2020 के बीच लम्बित मामलों में उच्च न्यायालयों में 20 फ़ीसदी की दर से और उनके अधीनस्थ न्यायालयों में 13 फ़ीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई है।
1 जनवरी, 2022 तक के आँकड़े बताते हैं कि इलाहबाद उच्च न्यायालय की दोनों पीठों में इस समय तक 10,31,590 मुक़दमे लम्बित थे। इन मुक़दमों में से इलाहाबाद न्यायालय के अधीन 8,3,516 मुक़दमे और उसकी लखनऊ पीठ में 2,28,074 मुक़दमें लम्बित थे। एक रिपोर्ट बताती है कि देश में 10 साल कुल पुराने मुक़दमों की संख्या कुल लम्बित मुक़दमों की संख्या की 22 फ़ीसदी है। वहीं 10 से 20 साल पुराने मुक़दमों की संख्या 26 फ़ीसदी है। 30 साल से भी पुराने लम्बित मुक़दमों की संख्या 27,000 से अधिक यानी क़रीब 6.64 फ़ीसदी है।