दुनिया भर में किये गये कई अध्ययनों से पता चलता है कि लोगों की शारीरिक क्षमता दिन-ब-दिन कम होती जा रही है और बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं। आधुनिक होती दुनिया में स्मार्ट फोन हाथ में लेकर लोग भले ही ख़ुद को स्मार्ट समझते हों; लेकिन इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि आधुनिक होने के साथ-साथ लोग परेशान, दु:खी और तनावग्रस्त होते जा रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह पर्यावरण का ख़राब होना है। विडम्बना यह है कि आज के आधुनिक स्मार्ट युग में ज़्यादातर लोग पर्यावरण के प्रति लापरवाह होते जा रहे हैं और जाने-अनजाने पर्यावरण को ख़राब कर रहे हैं।
आज ज़्यादातर लोगों को न तो पर्यावरण का मतलब पता है और न ही पर्यावरण से उन्हें कोई मतलब है। इसलिए सबसे पहले यही जानना ज़रूरी है कि पर्यावरण क्या है? पर्यावरण हमारे चारों ओर का वातावरण है, जिसमें सन्तुलन के लिए सभी प्रकार से प्राकृतिक तत्त्वों का सन्तुलन रखने के साथ-साथ धरती पर रहने वाले प्राणियों में भी सन्तुलन ज़रूरी है। आज दुनिया की सबसे बड़ी चुनौती धरती पर पर्यावरण सुरक्षा को लेकर बनी हुई है।
विडम्बना यह है कि सन् 1992 से हर साल 26 नवंबर को पर्यावरण संरक्षण दिवस मनाया जाता है। सन् 1972 से हर साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। लेकिन इन दशकों में ही पर्यावरण को सबसे ज़्यादा नुक़सान पहुँचाया गया है। दुनिया भर के पर्यावरण प्रेमी और पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अपनी जेबें भरने वाले लोग हर साल सिर्फ़ 26 नवंबर को विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस के बहाने बिगड़ते जा रहे पर्यावरण को रोना-धोना करके शान्त हो जाते हैं। इसी तरह हर साल करोड़ों रुपये पर्यावरण संरक्षण के नाम पर पानी की तरह बहाया जाता है। हालात यह हैं कि अपने फ़ायदे के लिए पर्यावरण ख़राब करने की मंशा वाले पूँजीपति पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वालों पर भारी पड़ते जा रहे हैं। उदाहरण के लिए दवा कम्पनियों के मालिकों को ही लें, तो वे कभी नहीं चाहते कि धरती का पर्यावरण शुद्ध रहे।
साफ़ है कि पर्यावरण ख़राब होगा, तो लोग ज़्यादा-से-ज़्यादा बीमार पड़ेंगे और दवा कम्पनियों का धंधा चलेगा। दवा कम्पनियों की तरह ही प्रदूषण करने वाले कारख़ाने, धरती पर बढ़ती गन्दगी और धरती में लगातार बैठते गन्दे पानी और घटते जंगलों से भी पर्यावरण को विकट नुक़सान हो रहा है। आज हमारा पर्यावरण इस हालत तक ख़राब हो चुका है कि अगर दुनिया के सभी लोग उसे सुधारने का प्रयास करें, तो भी इसे अच्छे स्तर का बनाने में कम-से-कम तीन-चार दशक का समय लग जाएगा।
प्रदूषण से होने वाले नुक़सान
अब तक पर्यावरण को लेकर किये गये अध्ययनों की रिपोट्र्स से यह पता चलता है कि पर्यावरण प्रदूषित होने से पशु-पक्षियों और इंसानों से लेकर हर तरह के जीवन को नुक़सान पहुँच रहा है। हमारा पर्यावरण इतना प्रदूषित हो चुका है कि इसके प्रभाव से समुद्री जीवों और वनस्पतियों का जीवन भी ख़तरे में पड़ता जा रहा है।
पर्यावरण प्रदूषण से प्राकृतिक असन्तुलन पैदा हो रहा है, जिससे बीमारियाँ बढऩे के साथ-साथ पशु-पक्षियों और लोगों की शारीरिक क्षमता कमज़ोर होती जा रही है। इससे धरती का चक्र बिगड़ रहा है, जिससे वह अपनी पाश्चुरीकृत क्षमता को खोती जा रही है। साथ ही तरह-तरह के प्रदूषणों से कई तरह की विषैली गैसें पैदा हो रही हैं और जीवनदायिनी गैसों की मात्रा घट रही है। कई वैज्ञानिक तो पर्यावरण प्रदूषण के चलते यहाँ तक चेतावनी दे चुके हैं कि अगर इसी प्रकार धरती पर ऑक्सीजन घटती गयी, तो आने वाले समय में हमारी पीढिय़ों को जीवनदायिनी ऑक्सीजन की पूर्ति के लिए अपनी पीठ पर ऑक्सीजन सिलेंडर लादना पड़ सकता है।
कोरोना महामारी में ऑक्सीजन के लिए हुई मारामारी से इसे समझा जा सकता है। अपने फ़ायदे के लिए लोगों ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और दुरुपयोग से ख़ुद के लिए ही मुसीबतें पैदा की हैं। पर्यावरण प्रदूषण के चलते इंसानों के साथ-साथ कई तरह के पशु-पक्षियों का जीवन संकट में है। कई प्रकार के पशु-पक्षी विलुप्त हो चुके हैं और कई विलुप्त होने के कगार पर हैं। पर्यावरण में तेज़ी से बढ़ रही क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस (सीएफसी) के चलते ओजोन का विघटन तेज़ी से हो रहा है। सन् 1980 में ही वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि ओजोन स्तर का विघटन धरती के चारों ओर हो रहा है। स्थिति यह है कि दक्षिण ध्रुव के विस्तार में ओजोन स्तर का विघटन 40 से 50 फ़ीसदी तक हो चुका है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि इंसानों की बढ़ती आबादी के चलते बढ़ते शहरीकरण के चलते ओजोन परत में छेद बढ़ रहे हैं। अब तक के अध्ययनों का निचोड़ बताता है कि इंसानों की बढ़ती आबादी और उसकी ज़रूरतों को पूरा करने की होड़ से पर्यावरण को पहुँचने वाला नुक़सान भी बढ़ता जा रहा है। इंसानी आबादी कम करने के साथ-साथ इंसानों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली ख़तरनाक चीज़ों पर भी पाबंदी ज़रूरी है, जिसमें प्लास्टिक, मिलावटी खाद्य पदार्थ और नशीले पदार्थों पर प्रतिबंध सबसे ज़्यादा ज़रूरी है।
पर्यावरण संरक्षण क़ानून
पर्यावरण संरक्षण को लेकर दुनिया भर में कई क़ानून बने हैं; लेकिन उनका कड़ाई से पालन न होने के चलते पर्यावरण को होने वाले नुक़सानों को आज तक नहीं रोका जा सका है। भारत में पर्यावरण संरक्षण को लेकर सन् 1969 में केंद्र सरकार ने एक विधेयक तैयार किया था, जिसे 30 नवम्बर, 1972 को संसद में प्रस्तुत किया गया। दोनों सदनों से पास होने के बाद इस विधेयक को 23 मार्च, 1974 को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिली।
जल प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण अधिनियम-1974 के नाम से बना यह क़ानून 26 मार्च, 1974 से पूरे देश में लागू है; लेकिन जल प्रदूषण आज चरम पर है। इसके अलावा पर्यावरण संरक्षण के लिए वायु प्रदूषण एवं नियंत्रण अधिनियम-1981 बना, जो 16 मई, 1987 से क़ानून के रूप में देश भर में लागू है। इस क़ानून के तहत मुख्यत: वाहनों और कारख़ानों से निकलने वाले धुएँ और गन्दगी का स्तर निर्धारित करना और उसे नियंत्रित करना है।
इसके अलावा सन् 1952 में भारतीय वन्यजीव बोर्ड का गठन किया गया। इस बोर्ड के अंतर्गत वन्य-जीवन पार्क और अभयारण्य बनाये गये। इसके बाद वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम-1972 बना, जिसके तहत शेरों के संरक्षण के लिए सन् 1972 में, बाघों के संरक्षण के लिए 1973 सन् में, मगरमच्छों के संरक्षण के लिए 1984 में और इसी तरह अन्य पशुओं के संरक्षण के लिए अलग-अलग समय पर अधिनियम बने। इसके बाद वन संरक्षण अधिनियम-1980 भी बना। इसके बावजूद भारत में न तो पर्यावरण संरक्षित हो पा रहा है और न ही इसे प्रभावित करने वाले लोगों को सजा दी जा रही है।
कैसे बचेगा पर्यावरण?
पर्यावरण का संरक्षण तभी सम्भव है, जब लोगों में इसके प्रति जागरूकता पनपेगी और ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग पर्यावरण संरक्षण में भागीदारी निभाएँगे। इसके लिए सबसे पहले लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करना होगा और उन्हें पर्यावरण ख़राब होने से होने वाले नुक़सानों को बताना होगा। स्कूल स्तर पर ही पर्यावरण के बारे में बच्चों को पढ़ाना होगा। हर आदमी को पौधे लगाने के लिए प्रेरित करना होगा और बताना होगा कि वह हर साल दो-चार पौधे लगाने का संकल्प लेने के साथ-साथ वृक्षों को काटने से बचाए। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण भागीदारी किसानों की हो सकती है, जो हमेशा से प्रकृति और पर्यावरण प्रेमी रहे हैं। किसानों के साथ-साथ शहरी लोगों को पर्यावरण के प्रति सबसे ज़्यादा जागरूक करने की ज़रूरत है। उन्हें बताना होगा कि वृक्षविहीन कंक्रीट के शहरों में ज़्यादा-से-ज़्यादा पौधरोपण करना होगा।
यह बड़ी सच्चाई है कि शहरी सभ्यता में रहने वाले ख़ुद को आधुनिक और समझदार ज़रूर समझते हैं; लेकिन पर्यावरण को सबसे ज़्यादा नुक़सान शहरी लोग ही पहुँचा रहे हैं। यह कहने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति सबसे ज़्यादा लापरवाह यही शहरी लोग हैं, जिनकी मूर्खता का नतीजा पूरी दुनिया भुगत रही है। जंगलों को काटकर इन कंक्रीट के जंगलों को बढ़ाने की होड़ ने पर्यावरण को जो नुक़सान पहुँचाया है, उसकी भरपाई करना आसान नहीं है।
इसके अलावा जंगलों को माफिया के साथ-साथ आग से बचाना होगा। इसमें कोई दो-राय नहीं कि आदमी के लिए अब आधुनिक सुविधाओं को छोड़ पाना सम्भव नहीं है; लेकिन आधुनिकता के साथ-साथ पूर्वजों के शिक्षाओं पर भी हर आदमी को चलना होगा, अन्यथा जीवन संकट में पड़ जाएगा। जैसे कि कारख़ानों को ख़त्म नहीं किया जा सकता, क्योंकि आधुनिक ज़रूरतों को पूरा करने में इनका बड़ा योगदान है; लेकिन कारख़ानों से होने वाले प्रदूषण को कम ज़रूर किया जा सकता है।
इसी तरह धरती पर फैलने वाले प्रदूषणों को रोकने का प्रयास भी किया जा सकता है। आज पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाने वाले सभी तरह के प्रदूषण, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, थल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण आदि को कम करने की आवश्यकता है, अन्यथा आने वाली पीढिय़ों के लिए जीवन जीना और भी दुश्वार होता जाएगा। इसका सबसे अच्छा उपाय इंसानों की बढ़ती आबादी को रोकना और पेड़-पौधों की संख्या को बढ़ाना है। इसके अलावा हर किसी को अपने स्तर पर जलवायु शुद्धिकरण में योगदान देना होगा, तभी हमारा पर्यावरण अच्छा होगा और विश्व पर्यावरण दिवस व विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस मनाना सफल हो सकेगा।