दुनिया भर में कोरोना वायरस से हुए जानी नुकसान के बीच समाचार उद्योग कोविड-19 बाद के परिदृश्य में फिर से हासिल की विश्वसनीयता, प्रामाणिकता और बहुत ज़रूरी जवाबदेही के साथ ही जीवित रहना सीख सकता है।
पहले अगर ये सिद्धांत मुख्यधारा के मीडिया के लिए आवश्यक थे, अब यह इसके अस्तित्व के लिए एक प्राथमिकता बन गये हैं। जैसा कि लाखों लोग दुनिया भर में घातक वायरस से संक्रमित हैं और हज़ारों हताहत हो चुके हैं। किसी समय खुद को बहुत जीवंत समझने वाला मीडिया जगत आज खुद को एक अजीब स्थिति में पा रहा है। क्योंकि उसने विज्ञापन राजस्व के साथ-साथ अपने पाठकों, दर्शकों, सराहना करने वालों को खोना शुरू कर दिया है।
लम्बे समय तक लॉकडाउन के कारण अधिकांश भारतीय अखबारों ने अपने प्रसार की लगभग दो-तिहाई संख्या को खो दिया है। कई अखबारों ने अपने डिजिटल संस्करणों को बनाये रखते हुए प्रिंट एडिशन को बन्द कर दिया है।
भारतीय समाचार चैनल, जिनमें से ज़्यादातर फ्री-टू-एयर (एफटीए) हैं; वर्तमान में अपने दर्शकों की रेटिंग में वृद्धि कर रहे हैं। लेकिन उनके विज्ञापन का बड़ा हिस्सा काफी कम हो गया है। चैनल मालिकों को उत्पादन से लेकर वितरण तक के सभी खर्चों का प्रबन्धन करना होता है; लेकिन वे दर्शकों से पैसे नहीं वसूल सकते। क्योंकि उनके आउटलेट एफटीए समाचार चैनलों के रूप में पंजीकृत हैं। लगभग 500 भारतीय टी.वी. चैनल अपने अस्तित्व के लिए विज्ञापन राजस्व पर ही निर्भर करते हैं। वास्तव में एफटीए चैनल के लिए दर्शकों की संख्या में वृद्धि स्वचालित रूप से अच्छा राजस्व नहीं लाएगी, जब तक कि विज्ञापन प्रवाह में वृद्धि नहीं होती है। दूसरी ओर वाणिज्यिक विज्ञापन सीधे व्यावसायिक गतिविधियों से सम्बन्धित होते हैं, जहाँ लोग प्रचारित उत्पादों के लिए पैसा खर्च कर सकते हैं। अन्यथा कोई भी विज्ञापनों को नहीं देखेगा और यह अन्त में विज्ञापनदाताओं को निराश कर देगा।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में आज की तारीख में 82 हज़ार से अधिक पंजीकृत अखबार हैं। जिनका रोज़ाना प्रसार एक अनुमान के अनुसार 110 मिलियन है; जो मीडिया को दैनिक 3,20 हज़ार करोड़ रुपये का उद्योग बना देता है। विभिन्न अवधियों (दैनिक, पाक्षिक, मासिक आदि) में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र सदस्यता और विज्ञापन राजस्व के सहारे की अपना व्यवसाय चलाते हैं।
जैसा कि भारत में समाचार पत्र प्रबन्धन आमतौर पर वास्तविक खर्च की तुलना में कम कवर कीमतों के साथ अपने उत्पादों को बेचते हैं; वो ताॢकक रूप से घाटे की राशि पूरी करने के लिए विज्ञापनों पर ही निर्भर रहते हैं। हाल ही में एक हज़ार से अधिक अखबार मालिकों के संगठन इंडियन न्यूज पेपर सोसायटी (आईएनएस) ने नई दिल्ली में केंद्र सरकार से मीडिया उद्योग को एक मज़बूत प्रोत्साहन पैकेज देने की अपील की।
आईएनएस ने यह तर्क दिया कि विज्ञापन कई हफ्तों से लगभग रुका हुआ है और अखबारी कागज़ की कीमतें बढ़ रही हैं; लिहाज़ा अखबार का अर्थशास्त्र अब काम नहीं करेगा। हालाँकि आईएनएस का दावा है कि समाचार पत्रों को एक सार्वजनिक सेवा के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। जीवंत अखबार उद्योग को देश में सबसे बुरी तरह प्रभावित इंडस्ट्री बताते हुए आईएनएस ने कहा कि मार्च और अप्रैल, 2020 में इंडस्ट्री पहले ही 40-45 हज़ार करोड़ रुपये का नुकसान झेल चुकी है, जबकि मई में हुआ नुकसान अलग से है। चूँकि आॢथक गतिविधियाँ लगभग ध्वस्त हो गयी हैं, निजी क्षेत्र से अगले महीनों में विज्ञापन मिलने की कोई सम्भावना नहीं है। उसने कहा कि सरकार को अखबारी कागज़ (न्यूजप्रिंट) से पाँच फीसदी का सीमा शुल्क वापस ले लेना चाहिए।
आईएनएस का तर्क है कि न्यूज प्रिंट की लागत प्रकाशकों को कुल खर्च के 40 से 60 फीसदी तक बैठती है। दूसरी ओर भारत को 2.5 मिलियन (250 लाख) टन की वाॢषक अखबारी कागज़ की माँग का 50 फीसदी से अधिक आयात करना पड़ता है। अखबारी कागज़ पर पाँच फीसदी सीमा शुल्क की वापसी का भी घरेलू निर्माताओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। आईएनएस ने कहा कि केंद्र सरकार को समाचार पत्र प्रतिष्ठानों के लिए दो साल का कर अवकाश प्रदान करना चाहिए, सम्बन्धित विज्ञापन दरों में 50 फीसदी, जबकि प्रिंट मीडिया के लिए बजट खर्च में 100 फीसदी की वृद्धि करनी चाहिए।
इस वित्तीय संकट का लाभ उठाते हुए कई बड़े मीडिया समूहों ने मीडिया कर्मचारियों की छँटनी करने, वेतन कटौती या प्रतिबद्ध पैकेजों में देरी करने जैसे उपायों का सहारा लिया है। उन्होंने अपने कुछ कर्मचारियों को विज्ञापन राजस्व में कमी के कारण भुगतान किये बिना छुट्टी पर जाने के लिए कहा। कई पत्रकार संगठनों ने पहले ही संघीय सरकार के साथ इस मुद्दे को उठाया है, ताकि वह इन कर्मचारी विरोधी गतिविधियों को तत्काल रोकने के लिए हस्तक्षेप कर सके।
इस बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गाँधी के एक सुझाव, जिसमें उन्होंने केंद्र सरकार को कोविड-19 से सम्बन्धित विज्ञापनों को छोडक़र अन्य मीडिया विज्ञापनों को दो साल के लिए रोकने को कहा; ने मीडिया उद्योग को नाराज़ कर दिया। सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, टेलीविजन, प्रिंट और ऑनलाइन विज्ञापनों पर पूर्ण प्रतिबन्ध के देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के प्रस्ताव पर आईएनएस और न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) दोनों ने तत्काल प्रतिक्रिया दी। दोनों संगठनों ने कांग्रेस प्रमुख से आग्रह किया कि वह स्वस्थ और स्वतंत्र मीडिया के हित में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से तुरन्त अपना सुझाव वापस लें। दोनों संघों के ज़िम्मेदार पदाधिकारियों ने तर्क दिया कि मीडिया को लाखों पाठकों-दर्शकों को महामारी के बारे में प्रासंगिक जानकारी के साथ अपनी भूमिका जारी रखनी चाहिए, क्योंकि वे अपने जीवनकाल में एक असामान्य शट-डाउन का सामना कर रहे हैं।
केंद्र सरकार अखबारों, समाचार चैनलों, पत्रिकाओं और ऑनलाइन मीडिया आउटलेट में विज्ञापनों के लिए सालाना लगभग 12,500 करोड़ रुपये खर्च करती है। लेकिन भारत स्थित कम्पनियाँ विज्ञापन पर कुछ अरब रुपये प्रति वर्ष के हिसाब से ज़्यादा लगाती हैं। टेलीविजन चैनल और प्रिंट आउटलेट अब तक विज्ञापन का लाभ लेते रहे हैं। लेकिन यह सम्भावना है कि डिजिटल माध्यम बहुत जल्द दोनों से आगे निकल जाएगा।
जैसे-जैसे एक अरब से अधिक आबादी वाले राष्ट्र की साक्षरता दर सुधार के साथ 75 फीसदी पहुँच रही है, अधिक नागरिक अब डिजिटल मंचों में समाचार तक पहुँचने की क्षमता विकसित कर चुके हैं। धीरे-धीरे मुख्यधारा की मीडिया ने सौदेबाज़ी की अपनी शक्ति खो दी है। न केवल समाचार इनपुट, बल्कि अधिक-से-अधिक मध्यम वर्ग के भारतीय, ज़्यादातर युवा आज विभिन्न अन्य गतिविधियों के लिए इंटरनेट का उपयोग करते हैं। क्योंकि यह तेज़ ही नहीं, सस्ता भी है। फिर भी पारम्परिक मीडिया जीवित रहेगा; यदि यह विश्वसनीयता, प्रामाणिकता और ज़िम्मेदारी के साथ ग्राहकों को आश्वस्त करता रहेगा। वह पुराने पाठकों/दर्शकों को फिर हासिल कर सकता है; या इनका एक नया समूह भी बना सकता है। भले डिजिटल मीडिया अरबों उपयोगकर्ताओं के लिए बहुत तेज़ और सस्ता माध्यम हो सकता है। लेकिन इसे निरंतरता अॢजत करने के लिए वर्षों लगेंगे। लिहाज़ा किसी भी मीडिया आउटलेट के लिए भरोसा ही एक ट्रेड मार्क के रूप में उभरने की सम्भावना है; चाहे वो प्रिंट मीडिया हो, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या डिजिटल मीडिया।