न्यायालयों ने आधी आबादी के प्रति सरकारों से उनकी सामंतवादी सोच त्यागकर प्रगतिशील सोच अपनाने को कहा
देश की दो उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मामलों में अपनी हालिया टिप्पणियों, फ़ैसलों से लड़कियों व महिलाओं को और अधिक सशक्त करने की पहल की है। न्यायालयों ने राज्य सरकारों को एक बार फिर आधी आबादी के प्रति सामंतवादी सोच का त्याग कर प्रगतिशील सोच की राह अपनाने का कड़ा सन्देश दिया है। सबसे पहले राजस्थान उच्च न्यायालय के अहम आदेश का ज़िक्र किया जा रहा है। राजस्थान की जैसलमेर की शोभा देवी के पिता गणपत सिंह जोधपुर विद्युत निगम में लाइनमैन थे। 5 दिसंबर, 2016 को उनका निधन हो गया। पीछे उनकी पत्नी शान्ति देवी और बेटी शोभा रह गयीं। बेटी शोभा ने जोधपुर डिस्कॉम में आवेदन किया कि उसकी माँ की तबीयत ठीक नहीं रहती है, लिहाज़ा आश्रित कोटे से विवाहित बेटी को नौकरी दी जाए। लेकिन 6 जून, 2017 को जोधपुर विद्युत निगम ने आवेदन निरस्त करते हुए कहा कि विवाहित महिला आश्रित की श्रेणी में नहीं आती। इस पर महिला ने राजस्थान उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।
न्यायालय ने हाल ही में शोभा के हक़ में फ़ैसला सुनाते हुए जोधपुर विद्युत निगम को 3 महीने के अन्दर शोभा को पिता की जगह नौकरी देने का आदेश दिया। दरअसल जोधपुर विद्युत निगम ने शोभा को अनुकम्पा नौकरी नहीं देने के पीछे दलील दी कि विवाहित बेटी अब पति के परिवार का हिस्सा है। इसलिए उसके अधिकार भी उसी परिवार में हैं। विवाहित बेटी मृतक आश्रित नहीं मानी जा सकती। ऐसे में उसे नौकरी पर नहीं रखा जा सकता। राजस्थान उच्च न्यायालय की पीठ ने मामले की सुनवाई के दौरान जोधपुर विद्युत निगम की दकियानूसी दलील पर कड़ी आपत्ति ज़ाहिर करते हुए टिप्पणी की कि शादी के बाद बेटी पिता के कुनबे की हिस्सा नहीं रहती, बल्कि वह पति के कुनबे का हिस्सा हो जाती है; यह विचार बहुत पुराने हो चुके हैं। वह अपने पिता के अधिकारों में हमेशा हमवारिस रहती है। जैसे अधिकार उसके अविवाहित होने पर रहते हैं, वैसे ही विवाहित होने के बाद भी रहते हैं। क्योंकि किसी के अविवाहित या विवाहित होने से उनके माता-पिता के साथ रिश्ते बदल नहीं जाते, न ही उनकी ज़िम्मेदारी कम हो जाती है। वह पिता की अनुकम्पा नौकरी की उतनी ही हक़दार है, जितना कि बेटा। विवाहित होने के बाद भी जैसे एक बेटा अपने माता-पिता की देखरेख के लिए ज़िम्मेदार होता है, ठीक वैसे ही बेटी की ज़िम्मेदारियाँ भी कम नहीं हो जातीं। और जब विवाहित बेटे और विवाहित बेटी की ज़िम्मेदारी एक समान हैं, तो फिर अनुकम्पा नौकरी के समय विवाहित बेटी के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता।
दरअसल अनुकम्पा के आधार पर सरकारी नौकरियों के लिए राज्य सरकारों के नियम अलग-अलग हैं और अधिकांश नियम पितृसत्तामक सोच को दर्शाते हैं।
ग़ौरतलब है कि अनुकम्पा नियुक्ति / नौकरी एक सरकारी सामजिक सुरक्षा योजना है। इस योजना के तहत जब किसी सरकारी कर्मचारी की नौकरी के दौरान मृत्यु हो जाती है या वह अपने मानसिक स्वास्थ्य के ठीक नहीं होने पर सेवानिवृत्ति ले लेता है, तो ऐसी परिस्थितियों में परिवार के भरण-पोषण के लिए उस कर्मचारी पर आश्रित परिवार का सदस्य अनुकम्पा नौकरी के लिए आवेदन कर सकता है। मगर कड़ुवी हक़ीक़त यह है कि राज्य सरकारें अनुकम्पा नौकरी के नियमों की व्याख्या आवेदन करने वालों के हित में न करके अपने हित में करती हैं। ग़ौरतलब है कि भारतीय समाज 21वीं सदी में भी इस बीमार मानसिकता से ग्रस्त है कि बेटियाँ पराया धन होती हैं। शादी के बाद उसका मायके पर कोई अधिकार नहीं रहता। उसका नाता सांस्कृतिक, सामाजिक, पारिवारिक रिश्तों को निभाने तक सिकुडक़र रह जाता है। इसी स्त्री विरोधी मानसिकता को राज्य सरकारें मौक़ा मिलते ही अपने पक्ष में इस्तेमाल करती हैं। जबकि राज्य सरकारों को तो संविधान के अनुसार चलकर महिलाओं को बराबरी के मौक़े देने चाहिए। लेकिन महिलाओं को उनकी लैंगिकता के आधार पर ऐसे मौक़े नहीं देने के मामले बार-बार न्यायालयों में आते हैं।
अनुकम्पा नौकरी देने के सन्दर्भ में बेटी के विवाहित होने की आड़ में बेटियों के आगे बढऩे की राह में बेवजह दिक़्क़तें पैदा करने की कोशिशें की जाती हैं। ऐसे ही एक मामले में पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय ने जुलाई, 2020 में अपने फ़ैसले में साफ़ किया कि विवाहित महिलाओं को भी अनुकम्पा नौकरी के लिए विचार के दायरे में लाया जा सकता है।
फ़ैसला सुनाने वाले न्यायाधीश ने ग़ौरतलब बिन्दु उठाया कि योजना की मंशा आश्रित परिवार को आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराना है। योजना में बेटे को अनुकम्पा नौकरी देते व$क्त उसके वैवाहिक दर्जे के बाबत कुछ नहीं कहा गया, तो लडक़ी के कुँआरी होने पर ज़ोर क्यों? विवाहित बेटी को आश्रित परिवार सदस्यों की परिभाषा से बाहर रखने का मतलब संविधान के अनुच्छेद-14,15 और 21 का उल्लघंन है। उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि संस्था ने सोच-समझकर इस योजना से विवाहित महिला को नहीं जोड़ा कि शादी के बाद महिला अपने पति व ससुराल पक्ष पर निर्भर होती है। यह पुरातनपंथी सोच है।
एक मुख्य बात यह है कि अनुकम्पा के आधार पर सरकारी नौकरियों के लिए अलग-अलग नियम हैं। उत्तर प्रदेश देश का ऐसा अकेला राज्य है, जिसने हाल ही में यह नियम बनाया है कि विवाहित बेटी को अनुकम्पा के आधार पर सरकारी नौकरी मिल सकती है। यह नियम उत्तर प्रदेश सरकार ने न्यायालयों की कड़ी फटकार सुनने के बाद हाल ही में उठाया है।
ग़ौरतलब है कि प्रयागराज की मंजुल ने अपने पिता के निधन के बाद अनुकम्पा नौकरी के लिए आवेदन किया था। लेकिन प्रारम्भिक शिक्षा अधिकारी ने जून, 2020 में आवेदन यह कहते हुए मंज़ूर नहीं किया कि मंजुल की शादी हो चुकी है। मंजुल इलाहाबाद उच्च न्यायालय गयीं और 14 जनवरी, 2021 को न्यायालय ने फ़ैसला सुनाया कि बेटी को पिता के परिवार से बाहर मानना असंवैधानिक है। न्यायालयों के ऐसे फ़ैसलों के दबाव में आकर उत्तर प्रदेश सरकार ने दो महीने पहले 11 नवंबर, 2021 को नया नियम बनाया, जिसके तहत विवाहित बेटी को अनुकम्पा के आधार पर पिता की नौकरी मिल सकती है। राज्य सरकार ने इसके लिए मृत सरकारी कर्मियों के आश्रितों की भर्ती नियमावली 2021 में 12वाँ संशोधन किया है।
जहाँ तक अन्य राज्यों का सवाल है, वहाँ अनुकम्पा नौकरी के नियम बेटों की और अधिक झुके हुए हैं। ऐसी नौकरियों पर पहला हक़ अक्सर बेटों का मान लिया जाता है। अगर किसी की एक बेटी है और वह विवाहित है, तो उसे यह कहकर अनुकम्पा नौकरी नहीं दी जाती कि विवाह के बाद वह अपने पति पर आश्रित है। सरकारें नियमों का हवाला देकर उसे अनुकम्पा नौकरी की श्रेणी से ही बाहर कर देती हैं। सवाल यह है कि ऐसा करने का मतलब लैंगिक आधार पर उसके साथ भेदभाव करना है। एक अहम सवाल यह भी है कि कितनी बेटियाँ इसके लिए न्यायालय जाती हैं? सवाल यह है कि विवाहित बेटियों को इसके लिए बार-बार न्यायालय क्यों जाना पड़ता है?
सरकारें नियम क्यों नहीं बदलतीं? और इस सन्दर्भ में मिसाल कायम करने में आगे क्यों नहीं आ रहीं? सरकारों को दीर्घकालीन प्रगतिशील नज़रिये के साथ समाज से कई क़दम आगे चलना चाहिए, न कि समाज की पिछड़ी सोच के साथ। महिलाओं को पीछे छोडक़र कोई भी समाज, देश, दुनिया तरक़्क़ी नहीं कर सकता। न्यायालय कई बार इसकी तस्दीक़ अपने फ़ैसलों के ज़रिये करते रहते हैं।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने हाल ही में अपने एक फ़ैसले में कहा कि शादी के बाद महिला का निवास प्रमाण-पत्र नहीं रोक सकते। निवास की पहचान उसके या माता-पिता के जन्मस्थल से है और इसका विवाह से कोई वास्ता नहीं है। इधर सर्वोच्च न्यायालय ने 20 जनवरी को कहा कि अगर कोई व्यक्ति (पिता) मरने से पहले वसीयत नहीं करता है, तो उसकी मौत के बाद उसकी स्व-अर्जित व पुश्तैनी सम्पत्ति में बेटियों का हक़ है, और उनकी भी हिस्सेदारी है। यही नहीं, बेटियों को सम्पत्ति के अधिकार में वरीयता मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने बेटियों के सन्दर्भ में यह भी कहा कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 से पहले भी पिता की सम्पत्तियों के बँटवारे में बेटियों को बराबर का हिस्सा मिलेगा। यह देश की बेटियों की एक बहुत बड़ी जीत है। सन् 1956 के इस अधिनियम से पहले लड़कियों को यह अधिकार हासिल नहीं था।
दरअसल सर्वोच्च न्यायालय ने अगस्त, 2020 में कहा था कि हिन्दू क़ानून-1956 संहिता बन्द होने के वक़्त से ही बेटियाँ अपने पिता, दादा और परदादा की सम्पत्ति में बेटों के समान ही बराबर की हक़दार हैं। लेकिन क़रीब डेढ़ साल बाद 20 जनवरी, 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने देश की बेटियों को क़ानूनी रूप से और अधिक सशक्त करने व उन्हें लैंगिक इंसाफ़ दिलाने की दिशा में एक अहम क़दम उठाया है। सरकारों और प्रशासन को सुनिश्चित करना चाहिए कि आधी आबादी इससे सच्चे अर्थों में लाभान्वित हो।