बीते 11 दिसंबर को काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) छात्र संघ बहाली के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया. अदालत ने कहा कि कुलपति को छात्रों की चुनी हुई संस्था निलंबित करने का कोई अधिकार नहीं है. इसके पहले विश्वविद्यालय के वकील ने तर्क दिया था कि छात्र बवाली रहे हैं और छात्र संघ चुनाव में दो छात्रों की मौत हुई थी. इस पर छात्रों की तरफ से चर्चित अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने इन दो छात्रों की मौत के मामले में सीबीसीआईडी द्वारा दाखिल आरोप पत्र पेश कर दिया जिसमें तत्कालीन चीफ प्रॉक्टर और एक पुलिस उपाधीक्षक धारा 302 के तहत आरोपित हैं. यह जानकर मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ भौचक रह गई. अदालत ने लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों के आधार पर चुनाव कराने का निर्देश दिया.
इस पूरे मामले के पीछे की कहानी पर नजर दौड़ाई जाए और इसके साथ ही बीते कुछ महीनों की घटनाओं पर भी गौर किया जाए तो अंदाजा लग जाता है कि देश-दुनिया का प्रतिष्ठित संस्थान इन दिनों अंदरूनी तौर पर किस हाल में है और उसकी ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा कहां खप रहा है. दरअसल बीएचयू में शिक्षक और छात्र साथ मिलकर ज्ञान की लौ जलाने के बजाय टकराव की ज्वाला जलाते देखे जा रहे हैं.
बीएचयू में हो रही जो लड़ाई देश की शीर्ष अदालत तक गई वह छात्र परिषद और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच है. बीएचयू में करीब 15 साल से छात्र संघ नहीं है. छह साल पहले लिंगदोह कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद यहां एक कवायद शुरू हुई. छात्र परिषद का कॉन्सेप्ट लागू किया गया. टॉपर छात्रों को नामित करके छात्र परिषद बनी जिसका चेयरमैन कुलपति द्वारा नामित एक प्रोफेसर होता था. चार छात्र परिषदें ऐसे ही चलीं. पांचवीं छात्र परिषद की बारी आई तो बढ़ते दबाव की वजह से मनोनयन के बजाय चयन की प्रक्रिया अपनानी पड़ी. क्लासरूम वोटिंग हुई. पहले हर क्लास में वोटिंग, फिर हर डिपार्टमेंट में, फिर फैकल्टी में और आखिर में आठ सचिवों व एक महासचिव का चयन. 24 अक्टूबर, 2011 को विकास कुमार सिंह महासचिव पद पर चयनित हुए. चयनित छात्र परिषद का रंग-ढंग दूसरा था. हर छोटी-बड़ी जरूरत के लिए धरना-आंदोलन का दौर शुरू हुआ. इसी दरमियान दो-तीन ऐसे मामले हुए जिससे विश्वविद्यालय को सार्वजनिक तौर पर फजीहत झेलनी पड़ी. एक प्रोफेसर पर एक छात्रा द्वारा यौन शोषण का आरोप लगा तो हंगामा, धरना और विरोध प्रदर्शन होने लगा. भाटिया को हटना पड़ा. फरवरी में वेद विभागाध्यक्ष हरीश्वर दीक्षित पर छात्रों को प्रताड़ित करने का आरोप लगा. प्रॉक्टोरियल बोर्ड के हेड प्रो एचसीएस राठौर पर संकाय के छात्रों पर लाठी चार्ज करवाने का आरोप लगा. चयनित छात्र परिषद होने की वजह से छात्रों को एक संगठनात्मक बल मिला हुआ था, नतीजतन प्रॉक्टोरियल हेड प्रो राठौर को माफी मांगनी पड़ी और वेद विभागाध्यक्ष को इस्तीफा देना पड़ा.
अप्रैल आते-आते विश्वविद्यालय ने एक रोज अचानक ही छात्र परिषद के चयनित महासचिव विकास सिंह को पद से बर्खास्त कर दिया, इस तर्क के साथ कि एक साल पहले उन्होंने हॉस्टल में मारपीट की थी. विकास कहते हैं, ‘मैं अगर मारपीट में शामिल था तो तभी कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों नहीं की गई थी?’ विकास को महासचिव पद से हटाते ही बवाल शुरू हुआ. छात्र कोर्ट पहुंचे, कोर्ट ने विकास को फिर से बहाल करवा दिया. इस बीच छठी छात्र परिषद का भी चुनाव होना था, लेकिन छात्रों ने विश्वविद्यालय की एक बड़ी चाल पर ही उसे मात देने की कोशिश कर दी. बीएचयू ने छात्र परिषद तो बनाई थी लेकिन उसके अध्यक्ष के पद पर प्रोफेसर को ही रखा था. छात्रों ने न्यायालय में गुहार लगाई कि छात्र परिषद का प्रमुख किसी प्रोफेसर को बनाना तर्कसंगत नहीं है. अब शीर्ष अदालत ने उनकी इस गुहार को सुनते हुए इसके पक्ष में फैसला दे दिया है. अदालत ने कहा कि वह कुलपति के न्यायपूर्ण अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं कर रही. राजनीतिशास्त्र विभाग के प्रोफेसर कौशल किशोर मिश्र कहते हैं कि कोर्ट पहुंचकर विश्वविद्यालय अपने ही छात्रों से लड़ने में अपनी ऊर्जा और पैसा बर्बाद कर रहा है. यह तो सामान्य समझ की बात है कि छात्रों का प्रतिनिधि प्रमुख कोई छात्र ही होना चाहिए, वहां प्रोफेसर क्यों?
इससे पहले बीएचयू के मौजूदा हालात पर जानकारी हासिल करने के लिए हम वहां के कुछ प्राध्यापकों से संपर्क करते हैं. उनमें से अधिकांश ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ ही बात करने को तैयार होते हैं, आखिर में कौशल किशोर मिश्र मिलते हैं. वे अध्यापक संघ के पूर्व प्रमुख भी रहे हैं. मिश्र कहते हैं, ‘1996 से ही विश्वविद्यालय विचलन के रास्ते पर ही है. जिस विश्वविद्यालय से मुकुट बिहारी लाल, जेबी पटनायक, मधुसूदन रेड्डी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, गुरुमुख निहाल सिंह, प्रो केवी राव, नामवर सिंह जैसे विद्वान निकले, वहां से अब नौकरी पा लेने वाले विद्यार्थी भर निकलते हैं. यहां से चंद्रशेखर समेत दस नेता संसद तक पहुंचे, लेकिन पिछले कई सालों से अनुशासन और मान-सम्मान को बढ़ाने के नाम पर छात्र संघ, अध्यापक संघ, कर्मचारी संघ खत्म हैं.’ वे कहते हैं कि इन वर्षों में हुईं अकादमिक व आर्थिक गड़बड़ियों की जांच होनी चाहिए.
लेकिन बीएचयू की ओर से मीडिया से बातचीत के लिए अधिकृत प्रेस, पब्लिक ऐंड पब्लिकेशन सेल के चेयरमैन डॉ. राजेश कौशल प्रोफेसर मिश्र की बात से इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘पिछले 15 साल में विश्वविद्यालय ने अभूतपूर्व तरक्की की है. एक पत्रिका के अनुसार विश्वविद्यालय हमेशा रैंकिंग में नंबर एक से तीन की श्रेणी में रहा है. जहां तक छात्र संघों की या आंतरिक लोकतंत्र की बात है तो लिंगदोह कमेटी की रिपोर्ट को ही आधार बनाकर पिछले कुछ साल से विश्वविद्यालय प्रशासन छात्र परिषद को बहाल किए हुए है लेकिन अब उसमें भी पेंच फंस गया है.’ डॉ. राजेश अधिकृत अधिकारी के तौर पर अपनी बात रख देते हैं और आखिरी में सिर्फ एक पेंच वाली बात कहकर बाकी सब अच्छा बताते हैं.
जिस दिन डॉ. राजेश से बात होती है, उसके एक दिन बाद ही परिसर के प्रशासनिक गलियारे में हड़कंप मचता है. पेशे से वकील अंशुमान त्रिपाठी सूचनाधिकार से एक सूचना प्राप्त करके सार्वजनिक कर देते हैं कि प्रधान महालेखाकार कार्यालय, इलाहाबाद ने यह पाया है कि बीचएयू में लगभग तीन करोड़ रुपये का आर्थिक गोलमाल किया गया. यह घपला सर सुंदरलाल अस्पताल की कीमती मशीनों के रखरखाव और कंप्यूटर सेंटर के लिए तीन सौ कंप्यूटरों की खरीद से जुड़ा हुआ है. यह भी पता चला कि जिस गांधी स्मृति महिला छात्रावास के निर्माण पर रोक लगी हुई थी, विश्वविद्यालय प्रशासन ने वहां भी लकड़ी के काम पर 17.83 लाख रुपये खर्च किए और हेर-फेर करके कुछ अधिकारियों को बेमतलब वाहन भत्ता भी दिया. इस बाबत कुलसचिव प्रो. जीएस यादव का बयान आया कि संबंधित विभागों से स्पष्टीकरण मांगा गया है. उन्होंने एक अजीब-सी बात भी कही कि यह उनके कार्यकाल की गड़बड़ी नहीं है.
यह सिर्फ एक बानगी है. विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र डॉ. अवधेश दीक्षित ने भी पिछले दिनों आरटीआई से बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी को दान में मिली संपत्तियों का ब्योरा मांग विश्वविद्यालय प्रशासन की नींद में खलल डाला है. डॉ. दीक्षित को सूचनाधिकार के तहत मिली सूचनाएं बता रही हैं कि शिक्षा के इस मंदिर की संपत्ति मुंबई, इलाहाबाद, लखनऊ, पीलीभीत, असम, बड़ौदा, पटना, सीतापुर, मिर्जापुर, गया, बदायूं सहित देश के कई इलाकों में फैली हुई है. अच्छी-खासी जमीनें हैं लेकिन अधिकांश जमीनों की पूरी वास्तविक स्थिति से या तो विश्वविद्यालय अनजान है या यह जवाब दे रहा है कि जमीनें थीं तो लेकिन जमींदारी एक्ट में चली गईं. डॉ दीक्षित कहते हैं, ‘दान में मिली जमीन जमींदारी कानून के अंतर्गत कैसे चली जाएगी, यह तो समझ से परे है. दरअसल इसमें खेल है और महामना मदन मोहन मालवीय जी द्वारा अथक परिश्रम से जुटाई गई संपत्ति के साथ कैसे-कैसे खेल हुए हैं, उसका खुलासा भी जल्द होगा.’
अवधेश दीक्षित या अंशुमान त्रिपाठी ही नहीं, काशी हिंदू विश्वविद्यालय में वहां के छात्र रोज नई सूचनाओं की मांग करके अपने संस्थान में हो रही अनियमितताओं की पोलपट्टी खोलने के अभियान में कूदे हुए हैं. इससे विश्वविद्यालय प्रशासन भी परेशान है. प्रेस, पब्लिक एंड पब्लिकेशन सेल के चेयरमैन डॉ. राजेश कहते हैं, ‘सूचनाधिकार के तहत जानकारी मांगने के लिए रोजाना औसतन तीन पत्र तो हमारे पास ही पहुंचते हैं. इससे अतिरिक्त कार्यबोझ बढ़ा है लेकिन हम सूचना देते हैं.’
बात सिर्फ सूचनाधिकार के इस्तेमाल की ही नहीं है. विश्वविद्यालय में इन दिनों छात्रों ने दूसरे तरीके अपना लिए हैं जिनसे विश्वविद्यालय के रसूखदार परेशान हैं. हालिया चर्चित मामला सरदार वल्लभभाई पटेल नामक छात्रावास और वहां के तत्कालीन वार्डन विनय सिंह से जुड़ा हुआ है. इस मुद्दे को लेकर छात्रों का एक बड़ा खेमा इन दिनों बेहद सक्रिय है. विकास सिंह कहते हैं, ‘पटेल छात्रावास में रहने वाले कुछ छात्रों ने मेस महाराज यानी रसोइये को पेमेंट करने के लिए अपने पास से पैसे जुटाकर एक लाख दो हजार रुपये दिए. बाद में कुछ छात्रों ने छात्रावास के दोनों मेस महाराजों का वीडियो इंटरव्यू किया कि आपको कितने पैसे मिले. यह बात सामने आई कि करीब 30-40 हजार रुपये का ही भुगतान हुआ. बवाल हुआ तो विश्वविद्यालय प्रशासन को जांच के लिए प्रो. चंद्रकला पाड़िया कमेटी बनानी पड़ी.’ कमेटी की रिपोर्ट अभी तक नहीं आई है, छात्र लगातार पत्र लिखकर रिपोर्ट मांग रहे हैं. अब इस मामले को लेकर भी वे आरटीआई का इस्तेमाल करने वाले हैं.
सात अक्टूबर, 2012 को बीएचयू हिंसा, आगजनी, जानलेवा हमले की कोशिश और इन सबके बीच छात्रों पर निर्मम लाठीचार्ज का केंद्र बनकर भी चर्चा में आया. बात की शुरुआत परिसर में ही चल रहे एक एनसीसी कैंप में छात्रों के दो गुटों के बीच हाथापाई से हुई और परिणति हॉस्टल के वार्डन अतुल त्रिपाठी को जिंदा जला देने की कोशिश और पत्रकारों समेत कुछ लोगों की मोटरसाइकिलें फूंक दिए जाने के रूप में हुई. हिंसा और आगजनी की वजह विश्वविद्यालय प्रशासन के निजी सुरक्षा कर्मियों, जिन्हें प्रॉक्टोरियल गार्ड कहते हैं, द्वारा अनावश्यक रूप से हॉस्टल में घुसकर लाठीचार्ज करना बताया गया. प्रॉक्टोरियल बोर्ड ने कहा कि उनके लोग नहीं बल्कि इसमे पुलिसवाले शामिल थे. बीएचयू में पेंच यह है कि प्रॉक्टोरियल गार्ड भी पुलिस की तरह खाकी वर्दी पहनते हैं और पूरी तरह से पुलिसवाले ही लगते हैं, इसलिए कई मौकों पर उनके और पुलिसवालों के बीच फर्क करना मुश्किल भी हो जाता है. आनन-फानन में पहले प्रॉक्टोरियल बोर्ड ने पुलिस पर ठीकरा फोड़ा, पुलिस ने प्रॉक्टोरियल बोर्ड को दोषी ठहराया और इस बीच आठ छात्रों के खिलाफ जांच की प्रक्रिया शुरू हो गई. इस घटना से संकेत मिला कि अंदर ही अंदर बीएचयू परिसर सुलग रहा है और किसी छोटी-सी बात पर भी जान लेने-देने की नौबत आ सकती है.
इन मसलों पर वर्तमान कुलपति डॉ. लालजी सिंह से बात करने की कोशिशें विफल रहीं. एक वर्ग का कहना है कि वैज्ञानिक होने के कारण कुलपति की अपनी व्यस्तताएं हैं इसलिए वे विश्वविद्यालय के तमाम घटनाक्रम पर उस कदर तवज्जो नहीं दे पाते. फिर भी प्रशासनिक प्रमुख होने के नाते उनकी जवाबदेही तो बनती ही है.