शिवेन्द्र राणा
नागरिकों की स्वतंत्रता तथा उनके नैसर्गिक अधिकारों की स्थिर गरिमा एवं मानव समाज में स्थापित शुचिता वो आधारभूत सिद्धांत हैं, जिन पर लोकतंत्र का सम्मान स्थापित होता है। यदि जनतंत्र को एक शरीर मान लें, तो चुनाव फेफड़ा है, जो प्राण वायु के परिसंचरण द्वारा इसे जीवित एवं स्वस्थ रखता है। चुनाव ही जन आकांक्षाओं का मापदंड है। यही वह पद्धति है, जिसके माध्यम से लोकतंत्र अपने वास्तविक स्वामी जनता-जनार्दन की सर्वोपरि इच्छा जान सकता है और उसका मान रख सकता है। लेकिन क्या हो, यदि जनता के प्रतिनिधि चुनने के इस संवैधानिक अधिकार का संवैधानिक तरीक़े से ही अपहरण कर लिया जाए? यह तो खुलेआम लोकतंत्र की वीभत्स हत्या है।
देश में 18वीं लोकसभा के लिए जन-प्रतिनिधियों के चयन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के समय कुछ ऐसी अलोकतांत्रिक घटनाएँ हुई हैं, जिन्होंने जनतंत्र की मर्यादा कलुषित कर दी। पहली घटना सूरत (गुजरात) में घटित हुई, जिसमें भाजपा के साथ हुए अदृश्य सौदे के तहत कांग्रेस समेत सभी प्रत्याशियों ने चुनाव से पहले ही अपने नाम वापस ले लिये। यह जनतंत्र में राजनीतिक दुरभि संधि के निहायत ही निकृष्ट स्वरूप का उदाहरण है। लेखक शिव खेड़ा ने पिछले सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करके यह माँग की, कि यदि किसी चुनाव में नोटा को प्रत्याशियों से अधिक वोट मिलते हैं, तो उस सीट से चुनाव को रद्द घोषित करते हुए पुन: चुनाव कराये जाएँ।
दूसरी घटना इंदौर (मध्य प्रदेश) की है, जहाँ कांग्रेस प्रत्याशी अक्षय कान्ति बम ने आजकल भारतीय राजनीति में प्रचलित अंतरात्मा की आवाज़ के आधार पर नामांकन वापसी के अंतिम दिन न केवल अपना नाम वापस लिया, बल्कि लौटकर ख़ुद भी भाजपा में शामिल हो गये। राजनीति के इन विशुद्ध अवसरवादी घटिया कृत्यों ने भारतीय लोकतंत्र की नैतिक मर्यादा पर ही प्रश्न-चिह्न लगा दिया है। परन्तु उक्त परिदृश्य में मात्र सत्ताधारी पार्टी भाजपा को लोकतांत्रिक नैतिकता के कटघरे में खड़ा करके परिवाद का वास्तविक संदर्श पूर्ण नहीं होगा। यहाँ प्रश्न विपक्षी दल कांग्रेस से भी है, जिसने जनता और जनतंत्र की पीठ में ख़ंज़र घोंपने वाले ऐसे निकृष्ट तत्त्व को टिकट दिया ही क्यों? वह सारी ज़िम्मेदारी भाजपा एवं अपने प्रत्याशी पर थोपकर बच नहीं सकती, वह स्वयं भी इस लोकतंत्र हंता कृत्य में बराबर की सहभागी है।
असल में वास्तविकता यह है कि दुनिया में सबसे वृहत एवं सबसे प्राचीन विरासत का दावा करने वाला यह देश अपनी वर्तमान राजनीतिक गतिविधियों में कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता, तो पार्टियों में व्यक्ति विशेष समूह एवं कुछ चिह्नित परिवार ही उम्मीदवारों का निर्णय न कर रहे होते। अब ऐसी राजनीतिक दलों को किस तरह लोकतांत्रिक माना जाए, जिनमें पार्टी के लिए समर्पित, 20-25 साल का अपना स्वर्णिम जीवन दे चुके कार्यकर्ताओं को उम्मीदवार बनाना तो बहुत दूर की बात, उनसे ही एक बार यह जानने की ज़हमत भी नहीं उठायी जाती कि वे अपने क्षेत्र में अमुक उम्मीदवार के नाम पर सहमत हैं भी या नहीं? और यह दुर्गुण सभी दलों में है। एक ज़माने में पार्टी विद् डिफरेंस और एक वोट तक न ख़रीदने पर सरकार गिरने देने वाली भाजपा आज परिवारवाद और सत्तावाद की अवस्था में पहुँच गयी है, जहाँ दो ही लोग निर्णय कर रहें हैं कि टिकट किसे देना है और किसको नहीं। बाक़ी दलों में आतंरिक लोकतंत्र की चर्चा करना ही सिरे से मूर्खता है और अंतत: इसका दुष्परिणाम बेहतर कल की उम्मीद में बैठे मतदाता भुगत रहे हैं। चुनावी विकल्पहीनता का उदाहरण देखिए, बिहार की जमुई सीट से एनडीए गठबंधन की तरफ़ से लोजपा ने रामविलास पासवान के दामाद एवं कांग्रेस की पूर्व विधायक डॉ. ज्योति के बेटे अरुण भारती को टिकट दिया है, जिनके राजनीतिक अनुभव एवं जनसंघर्ष का प्रमाण परिवारवाद है। एनडीए और इंडिया गठबंधन, दोनों का यही हाल है। ऐसे में आम मतदाता को जन संघर्ष से विरत, छिछली प्रकृति के लोगों को ही अपना प्रतिनिधि चुनने को क्यों बाध्य होना पड़े? वह भी गुंडे-बदमाश, आर्थिक अपराधी से लेकर सिनेमाई भांड तक राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के अधिकृत प्रत्याशी के रूप में चुनावी मैदान में हैं। कांग्रेस पर परिवारवाद का हमेशा आरोप लगाने वाली भाजपा परिवारवाद में और गहरे धँसती जा रही है। यह देश के किसानों और मजदूरों के परिश्रम का अपमान है, जो आग उगलती गर्मी और कड़कड़ाती ठंड में देश की अवसंरचना का निर्माण कर रहे हैं। यह हर उस पत्रकार, शिक्षक और बुद्धिजीवी वर्ग के शालीन द्वंद्व का अपमान जो ख़ुद को दाँव पर लगाकर देश के भविष्य की चिन्ता में सत्य गढ़ रहा है। यह हर उस युवा का अपमान है, जो स्वयं में अर्जित योग्यता के बूते राष्ट्र निर्माण में सहभागी होना चाहता है। यह हर उस राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता का अपमान है, जो अपने कठिन मेहनत से जूझकर जन संघर्ष को दिशा देना चाहता है।
पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर अपनी आत्मकथा ‘जीवन जैसे जीया’ में लिखते हैं- ‘आप एक भी ऐसा व्यक्ति मानव इतिहास में बताइए, जिसके बिना ग़रीबी का अनुभव किये, ग़रीबी मिटाने का प्रयास किया हो। महात्मा बुद्ध को असली ज्ञान तब हुआ, जब उन्हें सुजाता की खीर खाने के लिए मजबूर होना पड़ा। भूख की पीड़ा को समझे बिना कोई भूख मिटा नहीं सकता। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि जिसने स्वयं ग़रीबी का अनुभव नहीं किया, वह ग़रीबी मिटाने का काम नहीं कर सकता।’
आज राष्ट्र के रूप में भारत की जो भी व्यथाएँ-समस्याएँ हैं, वे इन निकम्मे-अयोग्य जनतंत्र पर थोपे गये जनप्रतिनिधियों के शासन-सत्ता पर व्यापन के प्रभाव के चलते हैं। देश को जिस संभ्रांत वर्ग ने अपने घेरे में ले रखा है। जिसने कभी दु:ख, ग़रीबी तथा सार्वजनिक जीवन में अपमान का अनुभव न किया हो, वह भला इसे मिटाने का प्रयास ही क्यों करेगा? ऐसे में सहज़ ही नोटा के अधिकार की स्वीकार्यता को समझा जा सकता है। वास्तव में नोटा की माँग लोकतंत्र के उस मूल प्रतिरोध का प्रतिनिधित्व करती है, जो देश के राजनीतिक दलों की अहंमन्यता से उत्पन्न हुआ है। यह अधिकार आम नागरिकों को इसलिए चाहिए, ताकि वह देश को अयोग्य जनप्रतिनिधियों के दुष्चक्र एवं उनके प्रश्रयदाता राजनीतिक दलों के अधिनायकवादी कार्यशैली से आज़ाद कर सकें।
सूरत के संदर्भ में देखें, तो राजनीति के कुत्सित षड्यंत्र ने वहाँ जनता को चयन के विकल्प से वंचित कर दिया। सत्ता एवं धन-बल का प्रभाव देखिए कि लोकतंत्र की प्राणवायु यानी जन-निर्वाचन की प्रक्रिया को सूरत में रोककर बड़ी सहजता से वहाँ की जनता से मतदान का अधिकार छीन लिया गया। हालाँकि इंदौर में अब भी कई व्यर्थ के निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में है; लेकिन मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के न होने से चुनावी संघर्ष महत्त्वहीन हो गया है। लेकिन इस अप्रत्याशित घटना से भड़की कांग्रेस स्वयं इंदौर में नोटा पर अधिक से अधिक वोट करने की सार्वजनिक अपील कर रही है। किन्तु इसका भी परिणाम अर्थहीन होगा, क्योंकि यदि 99.99 प्रतिशत मत भी नोटा पर पड़ते हैं, तब भी नियम 64 के अनुसार बाक़ियों में से न्यूनतम में भी सर्वाधिक मत पाने वाला निर्वाचित होगा। अर्थात् नोटा जनता के निर्वाचन अस्वीकार्यता को पूर्णरूपेण अभिव्यक्त नहीं करता।
मूल प्रश्न है कि नोटा क्या है? नोटा यानी इनमें से कोई नहीं। निर्वाचन परिपत्र या ईवीएम में मौज़ूद एक ऐसा विकल्प है, जो मतदाताओं को किसी भी उम्मीदवार को प्राथमिकता न देने के लिए प्रयोग होता है। नोटा को भारत में सर्वप्रथम वर्ष 2013 में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर मतदान विकल्प के रूप में उपलब्ध कराया गया। सितंबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट की भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश पी. सदाशिवम् की अगुवाई वाली पीठ ने एक ऐतिहासिक फ़ैसले में कहा था कि लोकतंत्र चुनाव का ही नाम है। इसलिए मतदाताओं को नकारात्मक मतदान का अधिकार मिलना चाहिए। नोटा लागू होते ही मतदाताओं के विरोध और क्रोध के प्रदर्शन का सबब बनने लगा। सन् 2013 में हुए चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में नोटा का मत प्रतिशत 1.85 फ़ीसदी था। सन् 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में रिकॉर्ड 2.49 फ़ीसदी मत नोटा पर डाले गये। सन् 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों में ऐसे कुल 21 सीट ऐसी थीं, जिनमें शीर्ष दो प्रत्याशियों के बीच वोट का अंतर नोटा वोटों से भी कम था और ऐसी स्थिति 2013 से 2017 के बीच हुए विभिन्न चुनावों में 24 लोकसभा एवं 261 विधानसभाओं की सीटों पर रही, जहाँ नोटा को प्राप्त वोट जीत के अंतर वाले वोटों से ज़्यादा थे। वास्तविकता यह है कि दुनिया में सबसे वृहत एवं सबसे प्राचीन विरासत का दावा करने वाला यह देश अपनी वर्तमान राजनीतिक गतिविधियों में कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता, तो पार्टियों में व्यक्ति विशेष समूह एवं कुछ चिह्नित परिवार ही उम्मीदवारों का निर्णय न कर रहे होते।
दरअसल नोटा की प्रभाविता को लेकर न्यायपालिका में संघर्ष कर रहे नागरिक समूह के विरोध का आधारभूत तर्क भी यही है कि लागू होने के बावजूद इससे आम मतदाता को अयोग्य-अस्वीकृत प्रत्याशियों को ख़ारिज करने का अधिकार नहीं मिलता, जिससे चुनाव परिणाम अप्रभावित रहता है। ऐसे में नोटा आम नागरिक के मतदान के माध्यम से विरोध की अभिव्यक्ति मात्र बनकर रह जाता है। अत: आवश्यक है कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप नोटा के पक्ष सर्वाधिक मतदान के पश्चात् अन्य उम्मीदवार अयोग्य घोषित हों एवं उपरोक्त सभी उम्मीदवारों को नियत समय के लिए चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित किया जाए। साथ ही नोटा के अधिकार को मतदाताओं के ख़ारिज करने के अधिकार (राइट टू रिजेक्ट) में तब्दील कर दिया जाए, तभी इसकी सार्थकता सिद्ध हो सकेगी तथा यह भारतीय राजनीति में प्रभावकारी परिवर्तन का कारक बनेगा। प्रख्यात कथाकर मोहन राकेश लिखते हैं- ‘समय से अधिक ईमानदार, सच्चा और निर्मम मूल्यांकनकर्ता एवं निर्णायक और कोई नहीं होता।’
अब यह वक़्त को तय करना है कि नोटा की स्वीकार्यता का आन्दोलन कौन-सी दिशा लेता है? लेकिन यह तो तय है कि नोटा के प्रभावी अधिकार से आम मतदाताओं को वंचित रखना, उनसे अधिक स्वयं भारतीय लोकतंत्र को मूल अधिकार से वंचित करना होगा।