कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी विपक्षी एकता को एकजुट करने के लिए तामाम कोशिशें कर रही हैं। लेकिन हक़ीकत में भाजपा की तरह ही टीएमसी और सपा सहित अन्य क्षेत्रीय दल कांग्रेस के रूठे नेताओं को अपने पाले में लाने के लिए रात-दिन एक किये हुए हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि अनेकता में एकता की जगह एकता में अनेकता दिख रही है। भाजपा तो पहले से ही कांग्रेस के रूठे हुए नेताओं को अपने ख़ेमे में शामिल करती ही रही है। कई राज्यों में भाजपा की यह कोशिश कामयाब भी रही है, तो कई राज्यों में नाकाम भी। ऐसे में कांग्रेस को अपने को अंदरूनी कलह से बचकर ख़ुद को मज़बूत करने की पहले आवश्यकता है, उसके बाद ही वह अन्य दलों को अपने नेतृत्व में ले सकती है।
पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने 19 विपक्ष दलों का आह्वान कर एक बैठक का आयोजन किया। उनकी मंशा है कि सभी विपक्षी दल एक होकर भाजपा को सत्ता से बाहर करें। इसके लिए कांग्रेस ने 2024 के लोकसभा चुनाव को लक्ष्य में रखा है। कांग्रेस की मंशा है कि सभी दल एकजुट होकर भाजपा को न केवल सत्ता से बाहर कर दें, बल्कि उसे इतना कमज़ोर कर दें कि वह दोबारा सत्ता में न आ सके।
बताते चलें कि देश में मौज़ूदा समय में एनडीए की केंद्र्र सरकार के प्रति जनता में कई मामलों को लेकर काफी रोष है। इन दिनों महँगाई, बढ़ते गैस, डीजल, पेट्रोल के दाम और अब तक के सबसे बड़े किसान आन्दोलन जैसे मुद्दों को लेकर विपक्षी दल केंद्र्र सरकार को घेर रहे हैं। लेकिन हक़ीक़त में विपक्षी दल एक नहीं हो पा रहा है। दरअसल विपक्षी दल एकता के नाम पर दिखावे के तौर पर तो डिनर पार्टी में एक दिखते हैं; लेकिन फिर वही अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना ढोल बजाने लगते हैं। इसकी मुख्य वजह है कि नेतृत्व। सभी अपने-अपने हिसाब से नेतृत्व करने की चाहत रखते हैं।
सियासत में अपने-पराये के साथ-साथ निजी हित भी देखा जाता है। जैसा कि मौज़ूदा दौर में कांग्रेस की हालत पतली है; जबकि तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की अध्यक्ष व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की राजनीति चमक रही है। उनके तेबर से साफ़ संकेत मिलते हैं कि वह केंद्र्र सरकार, ख़ासकर मोदी से सीधी टक्कर ले सकती हैं। हाल ही में कांगेस की नेता व पूर्व सांसद सुष्मिता देव ने कांग्रेस को छोडक़र टीएमसी का दामन थामा है। इससे ये सियासी तौर पर स्पष्ट है कि कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक दलों के नेता आने वाले दिनों में टीएमसी का दामन थाम सकते हैं। भाजपा सहित कांग्रेस के रूठे हुए नेता टीएमसी में आने के लिए बेताब दिख भी रहे हैं। वहीं कांग्रेस के नेताओं का मानना है कि भले ही कांग्रेस आज सत्ता में नहीं है; लेकिन देश की पुरानी और बड़ी पार्टी है। रहा सवाल नेताओं का दूसरे दलों में जाने का तो राजनीति में तो सब चलता ही रहता है।
कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि अगर कांग्रेस अध्यक्ष (सोनिया गाँधी) के नेतृत्व में विपक्ष एक नहीं हो सका, तो ममता बनर्जी के साथ एकता को बनाये जाने में कोई हर्ज नहीं है। मौज़ूदा दौर में सभी विपक्षी दलों को एकजुट होने में देर नहीं करनी चाहिए। क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में एकता के बलबूते पर भाजपा को घेरा ही नहीं जाना चाहिए, बल्कि उसे बंगाल की तर्ज पर परास्त भी करना चाहिए।
कांग्रेस के कई बड़े नेता इस बात को मानते हैं कि देश की सियासत आज धार्मिक और जातीय समीकरणों में उलझी हुई है। ऐसे में कांग्रेस को कुछ समय के लिए इंतज़ार और पैनी नज़र रखने की राजनीति करनी चाहिए।
यह बात विपक्षी दल खुलकर भले न कहें; लेकिन वो यह तो मानते हैं कि मौज़ूदा दौर में देश की राजनीति का जो मिजाज़ है, वो ममता बनर्जी के पक्ष में काफ़ी हद तक है। ममता के समर्थन का इशारा कुछ नेताओं ने पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में बता दिया था। कुछ राजनीतिक दलों ने तो ममता बनर्जी को जिताने के लिए ख़ुद को चुनावी रण से बाहर कर लिया था, तो कुछ ने ममता के साथ मंच साझा कर यह बता दिया था कि वे ममता के ही साथ हैं।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गाँधी एकता की क़वायद कर विपक्ष को एक करने में लगी हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि सारे कांग्रेसी सोनिया की क़वायद में शामिल हैं। ज़ोर इस बात पर दिया जा रहा है कि सही मायने में भाजपा, नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले में अगर कोई नेता है, तो वह हैं ममता बनर्जी। इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने जिस तरह से मोदी और उनकी टीम को ललकारा और पटखनी दी, उससे सभी विपक्षी दलों का हौसला बुलंद हुआ है। यह भी सम्भावना है कि उन्हें अन्य दलों के अलावा कांग्रेस का भी साथ मिल जाए।