देश की सियासत करवटें बदल रही है। जो कभी पराये हुआ करते थे, उनको अपना बनाया जा रहा है। सारे विपक्षी दल एकजुटता दिखाने के प्रयास कर रहे हैं, ताकि केंद्र सरकार को घेरकर 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा, ख़ासकर मोदी को हराया जा सके। लेकिन सियासी एकता के सूत्र बनते ही टूटने लगते हैं।
देश में मौज़ूदा समय में पेगासस और किसान आन्दोलन जैसे बड़े मुद्दों को लेकर कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े की अगुवाई में सभी विपक्षी दलों ने एकता दिखायी और भाजपा की जन-विरोधी नीतियों को जनता के बीच लाने के लिए आपसी सहमति से रणनीति भी बनी। लेकिन ऐसा क्या हो गया कि यह एकता चंद घंटे के अन्दर ही टूटी-सी दिखने लगी? जब जंतर-मंतर पर 6 जुलाई को किसानों के आन्दोलन तक कांग्रेस की अगुवाई में राहुल गाँधी के नेतृत्व में विपक्षी दलों के नेताओं को पहुँचना था, तो वहाँ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और आम आदमी पार्टी (आप) की ओर से कोई नेता नहीं दिखा।
किसानों के समर्थन में राहुल गाँधी की यात्रा और जंतर-मंतर पर प्रदर्शन में इन तीनों दलों के नेताओं के शामिल न होने पर तरह-तरह के राजनीतिक कयास लगाये जा रहे हैं। यह इसलिए भी, क्योंकि टीएमसी और आप, दोनों पार्टियाँ किसानों के साथ खुलकर खड़ी हैं। बसपा का मानना है आगामी साल में पंजाब और उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं। इसलिए पार्टी उत्तर-प्रदेश और पंजाब में चुनाव को देखते हुए अपनी राजनीति के हिसाब से ही फ़ैसला लेगी; न कि कांग्रेस के मुताबिक। पंजाब में बसपा का गठबन्धन अकाली दल से है। अगर वह कांग्रेस के नेतृत्व में जाती है, तो पंजाब की सियासत में बसपा और अकाली दल गठबन्धन पर विपरीत असर पड़ेगा। ऐसे में अगर कांग्रेस को सही मायने में विपक्षी दलों का साथ चाहिए, तो उसे अकाली दल को भी सम्मान देना पड़ेगा। बसपा का यह भी मानना है कि उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनाव लिहाज़ से बसपा ही एक ऐसी पार्टी है, जो दोनों राज्यों में भाजपा को टक्कर दे सकती है। टीएमसी का कहना है कि सियासत में अपना-पराया बनते देर नहीं लगती है। टीएमसी सूत्रों का कहना है कि कहीं कांग्रेस ममता बनर्जी को रोकने की सियासी चाल तो नहीं चल रही है। वहीं आम आदमी पार्टी का कहना है कि विपक्षी नेता मल्लिकार्जुन खडग़े की अगुवाई में रैली में शामिल होने की बात हुई थी, न कि राहुल गाँधी की अगुवाई में शामिल होने की। इसलिए पार्टी इस रैली से दूर हुई है।
सियासत में एक तीर से कई निशाने साधे जाते हैं। क्षेत्राय दल भली-भाँति जानते हैं कि देश की सियासत में कांग्रेस दूसरे नंबर की सबसे बड़ी पार्टी है। ऐसे में क्षेत्रीय दल अपनी ज़मीन को कांग्रेस के हवाले कैसे कर सकते हैं। क्योंकि माना यह भी जा रहा है कि पंजाब और उत्तर प्रदेश के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस अपने खोये हुए जनाधार को वापस पाने के लिए रूठे हुए मतदाताओं को लुभाने के प्रयास में है। ऐसे में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के कन्धों पर बंदूक रखकर निशाना साधनी चाहती है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि पंजाब में कांग्रेस को विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है। पंजाब में कांग्रेस के मौज़ूदा हालात ठीक नहीं बताये जा रहे। पंजाब में प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिद्धू और मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह के बीच सब कुछ ठीक नहीं है, जिसका नुक़सान पार्टी को चुनाव में उठाना पड़ सकता है। हालाँकि राहुल गाँधी के तेज़ी से सक्रिय होने से समीकरण बदल सकते हैं।
बता दें कि आगामी वर्ष 2022 के शुरू में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं और अन्त में दो अन्य राज्यों के भी चुनाव सम्भव हैं। ऐसे में अगर भाजपा, विशेषकर मोदी का विजयी रथ रोकना है, तो इन राज्यों में भी विपक्षी दलों को ममता बनर्जी की रणनीति अपनाते हुए भाजपा को पश्चिम बंगाल की तरह पटखनी देनी होगी, अन्यथा 2024 में उन्हें हराना बहुत मुश्किल होगा। इसके लिए विपक्षी दलों को निजी स्वार्थ साधने से ज़्यादा एकजुट होना होगा। अन्यथा विपक्षी एकता का धरातल कमज़ोर ही रह जाएगा।