कांग्रेस की वापसी?
इस वर्ष के समापन के साथ मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकारें बन जाएंगी। तेलंगाना में केसी राव फिर मुख्यमंत्री बन रहे हैं। इस राज्य में भाजपा, कांग्रेस और तेलुगु देशय एकदम सिमट गए हैं।
यह वर्ष जाते-जाते जो राजनीतिक संदेश सभी को दे गया है उससे सभी चकित हैं। चार महीने बाद ही लोकसभा चुनाव हैं। उसकी तैयारी में सभी राजनीतिक दल अभी से सक्रिय हो गए हैं। भाजपा को भी अब शायद यह लग रहा है कि विकास के नाम पर सिर्फ भव्य मूर्तियों और विकास के नाम देश प्रेम की दुहाई देने भर से अब नहीं चलेगा। गौशाला, राम मंदिर हो या न हो लेकिन रोज़गार, महंगाई, भ्रष्टाचार, किसानों का कर्ज, शिक्षा और स्वास्थ्य ऐसे मुद्दे हैं जिनकी ज़रूरत हर जन को है और उन पर काम होना चाहिए। इसे विधानसभा नतीजों ने यह जता दिया है कि विकल्प और भी हैं।
मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पंद्रह सालों से भाजपा सरकारें थीं। इन हिंदी भाषी प्रदेशों से भाजपा का विधानसभा चुनावों मेंं परास्त होना बताता है कि शहरी और देहाती इलाकों में भाजपा की ओर झुके मतदाताओं को संख्या अब घट रही है। एकदम नई पीढ़ी जिसकी अपनी आकांक्षाएं हैं, सपने हैं और अनिश्चित भविष्य है, उसे वह राजनीतिक दल ज्य़ादा बेहतर लगता है जो उसे रोज़गार दिला सके। यह नई पीढ़ी शहर और गांव में बहुत अंतर नहीं चाहती। वह गांव में रहते हुए अपनी उपज का उचित दाम चाहती है। गोलियां और आंसू गैस नहीं। फसल बीमा योजना सिर्फ सपनीली नहीं बल्कि वास्तविक तौर पर हो। कजऱ् माफी योजना में 100-50 का चेक नहीं बल्कि ईमानदारी से आकलन किया जाए। दलित-आदिवासी पिछड़ों के लिए ऐसी योजनाएं हों जिनसे वे शिक्षा, स्वास्थ्य भी उचित तरीके से ले सकें। कांगे्रस अध्यक्ष राहुल गांधी पर अब यह जिम्मेदारी हैं कि जिन राज्यों में उनकी पार्टी जीती है वहां विभिन्न समस्याओं के निदान के लिए समुचित पहल कराएं।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस को 114 सीटें हासिल हो गईं। जबकि भाजपा 109 सीट पर ही सिमट गई। मुख्यमंत्री पद के लिए कोई चेहरा न घोषित होने के कारण तकरीबन 15 वर्षों बाद कांग्रेसी नेता अपने कार्यकर्ताओं के बीच सक्रिय नजर आए और जीत सके। जबकि भाजपा के कई प्रभावशाली नेता बदले माहौल में जनता के बीच सक्रिय न हो सके। मध्यप्रदेश की जो सीमा उत्तरप्रदेश से मिलती है वहां बीएसपी ने कांगे्रस की जीत में खासी बाधा दी। इसी तरह छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के टीएस सिंह देव और भूपेश बघेल, कांग्रेस के ओबीसी शाखा के तामराध्वज साहू और पूर्व केंद्रीय मंत्री ने मिल कर जन-जन से बात करते हुए, समस्याएं जानते हुए रमन सिंह सरकार को झटका दिया। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पाइलट ने भाजपा की सत्ता को उखाड़ फेंका। राजस्थान में कांगे्रस 99 सीटें पाकर सबसे बड़ी पार्टी बनी। राजस्थान में बसपा के छह विधायक चुने गए हैं। मिज़ोरम में मिजोनेशनल फ्रंट (एमएनएफ) के अध्यक्ष ज़ोरमथांगा मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे हैं। राज्य की चालीस सदस्यीय विधानसभा में एमएनएफ को 26 सीटें हासिल हुई हैं।
तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष के चंद्रशेखर राव ने 13 दिसंबर को राज्य में तीसरी बार मुख्यमंत्री की शपथ ली। यहां 119 सदस्यों की विधानसभा है। कांग्रेस और तेलुगु देशम (टीडीपी) के आपसी गठबंधन ‘प्रजाकुटमीÓ बुरी तरह नाकाम रहा। टीआरएस को विधानसभा में 87 सीटें मिलीं।
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में क्षेत्रीय दलों को ज्य़ादा कामयाबी नहीं मिल सकी। कांगे्रस की जीत से यह ज़रूर स्पष्ट हुआ कि इस पार्टी का आज भी महत्व है। इन राज्यों में हुए विधानसभा नतीजों से यह भी स्पष्ट हुआ कि भाजपा-आरएसएस-विहिप गठबंधन जो बार-बार राम मंदिर निर्माण अयोध्या में राम की भव्य मूर्ति की बात करती है जिससे ग्रामीण दुख-दर्द दब जाएं, बेरोज़गारी पर बात न हो, मंहगाई पर कोई बात न हो। लेकिन मुद्दे हमेशा जीवित रहते हैं क्योंकि यह लोगों की जि़ंदगी से जुड़े हैं।
इसी तरह यह भी साफ हुआ कि नेहरू-गांधी खानदान का उपहास उड़ाने या कांगे्रस मुक्त भारत की बात करना या इतिहास को अपने अनुसार बदलने की कोशिशों से बात नहीं बनती। जिस तरह भाजपा के अपने राज्य समझे जाने वाले राज्यों में बदलाव आया है वह बताता है कि इन प्रदेशों की शहरी-देहाती आज़ादी, किसान, कामगार और छात्र बेहद परेशान और खिझे हुए थे। उन्होंने बड़ी गिनती में मतदान केंद्रों में जाकर अपनी प्रतिक्रिया दी।
देखना है लोकसभा चुनाव जो तीन-चार महीने बाद ही होने हैं उसमें फिर ध्रुवीकरण करने की कोशिश की जाती है या सबका साथ सबका विकास की सार्थकता को परखा जाता है।