विकास : मिथक या सच्चाई

बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का दावा है कि राज्य की विकास दर इस वर्ष 14.15 प्रतिशत तक पहुंच गई है जो देश में सबसे ज्यादा है. अर्थशास्त्रियों का दावा है कि इसमें सच्चाई से ज्यादा आंकड़ेबाजी है. इर्शादुल हक की रिपोर्ट

16 अक्टूबर को उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के केंद्रीय सांख्यिकी संगठन यानी सीएसओ के हवाले से प्रेस को सूचना दी, ‘2010-11 में बिहार की विकास दर 14.15 प्रतिशत रही है. इस प्रकार विकास के मामले में बिहार देश के तमाम राज्यों में अव्वल हो गया है’. हालांकि यह सीएसओ की तरफ से की गई कोई अधिकृत टिप्पणी नहीं थी, लेकिन मोदी के इस बयान के बाद बिहार के मीडिया में इस खबर की जबरदस्त धूम रही. इस खबर के मीडिया में छाने के बाद खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बड़े संयमित लहजे में कहा, ‘विकास के मामले में हम कोई दावा नहीं कर रहे हैं यह तो आंकड़े बता रहे हैं.’ लगे हाथों मुख्यमंत्री ने इस तेज रफ्तार तरक्की के लिए राज्य की जनता के भरपूर सहयोग के लिए उसका आभार भी जताया.

ठीक इसी तरह का बयान उपमुख्यमंत्री और राज्य के वित्तीय मामलों के मंत्री सुशील कुमार मोदी ने पिछले साल भी दिया था. तब मोदी ने सीएसओ के हवाले से दावा किया था कि 2009-10 में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीएसडीपी की विकास दर 11.57 प्रतिशत रही है. मोदी का कहना था कि पूरे देश में बिहार तरक्की के मामले में गुजरात के बाद दूसरे स्थान पर आ गया है. तब मोदी के इस बयान के बाद सरकार ने अपनी इस ‘उपलब्धि’ को एक जश्न के रूप में लिया था और मीडिया ने भी इस खबर को हफ्तों तक अपनी प्राथमिकता में बनाए रखा. पर जैसे-जैसे समय बीतता गया, विकास की इस सच्चाई के कई और पक्ष भी सामने आए. कई आर्थिक विशेषज्ञों ने सरकार के इस दावे  को आंकड़ों की बाजीगरी बताया तो कुछ ने इसे सिरे से ही नकार दिया. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के प्राध्यापक प्रवीण झा ने तो इन आंकड़ों को झूठ का पुलिंदा तक कह डाला था.

14.15 प्रतिशत विकास दर के जो आंकड़े जारी किए गए हैं वह संशोधित आंकड़े हैं. वास्तविक आंकड़े आनी अभी बाकी हैं

उस समय यह विवाद इतना गहराया कि सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के केंद्रीय सांख्यिकी संगठन पर भी सवाल खड़े किए जाने लगे. चूंकि राज्य सरकार ने विकास दर से संबंधित आंकड़े केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के हवाले से ही जनता के सामने रखे थे, इसलिए उसकी विश्वसनीयता को लेकर भी तरह-तरह की बातें की गईं. इस विवाद के बाद सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के तत्कालीन सचिव प्रणव सेन को कहना पड़ा था कि बिहार की विकास दर से संबंधित आंकड़ों के बारे में राज्य सरकार ने जो कहा है उसे हमारे आंकड़े बताना किसी तरह से उचित नहीं है. इसके बाद उसी वर्ष जब राज्य विधानसभा में विकास दर से संबंधित अंतिम रिपोर्ट पेश की गई तो उसमें राज्य की विकास दर 9.30 प्रतिशत बताई गई थी. इस अंतिम रिपोर्ट के बाद सरकार ने इस संबंध में चुप्पी-सी साध ली थी.
 
तकनीकी दांवपेंच

आम तौर पर सभी अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि विकास दर का आकलन आंकड़ों की जबर्दस्त कलाबाजी से भरा-पूरा एक बेहद जटिल मसला है और यह एक हद तक ही वास्तविकता का चित्रण कर सकता है. यही कारण है कि एक ही वित्तीय वर्ष में विकास दर को कम से कम तीन या चार स्तरों पर निर्धारित किया जाता है. सबसे पहले प्रोविजनल आंकड़े जुटाए जाते हैं. कुछ महीने बाद संशोधित आंकड़े निकाले जाते हैं. फिर एडवांस आंकड़े जुटाए जाते हैं और उसके बाद अंत में वास्तविक आंकड़े जारी किए जाते हैं. बिहार में विकास दर के मामले में 14.15 प्रतिशत विकास दर के जो आंकड़े 17 अक्टूबर को सरकार ने जारी किए थे वे संशोधित आंकड़े थे.

इसका मतलब स्पष्ट है कि एडवांस और वास्तविक आंकड़े अभी आने बाकी हैं. अगर पिछले साल की ही बात करें तो सरकार के संशोधित और वास्तविक आंकड़ों में काफी अंतर था. इसी बात के मद्देनजर अर्थशास्त्री डीएम दिवाकर कहते हैं कि जब तक सरकार वास्तविक आंकड़े जारी नहीं कर देती तब तक इस संबंध में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगा.  दूसरी तरफ सरकार संशोधित आंकड़ों को ही इतना प्रचारित करती है कि लोगों में यह भ्रम फैलता है कि राज्य की विकास दर काफी तेज है. लेकिन जब वास्तविक आंकड़े इससे अलग आते हैं तो वह इस पर एक तरह से मौन साध लेती है.
आंकड़ों के इस दांवपेंच की ओर इशारा करते हुए पटना विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री नवलकिशोर चौधरी 2009-10 के वास्तविक आंकड़ों की मिसाल देते हुए कहते हैं, ‘तब सरकार ने 11.57 की विकास दर का खूब हो-हल्ला और प्रचार किया. पर जब वास्तविक आंकड़े  आए तो सरकार ने चुप्पी साध ली. 2009-10 मे विकास से संबंधित वास्तविक आंकड़ा 9.30 प्रतिशत पर ही सिमट कर रह गया था.’

मगर इन आंकड़ों में संशोधित और अंतिम आदि का पेंच होने के साथ ही इन पर और भी सवाल उठाए जाते रहे हैं. नवलकिशोर चौधरी कहते हैं, ‘विकास से संबंधित आंकड़े खुद बिहार सरकार के वित्त और योजना विभाग द्वारा तैयार किए जाते हैं. फिर इन्हें ही केंद्रीय सांख्यिकी संगठन को भेज दिया जाता है.’ चौधरी तो यहां तक कहते हैं कि विकास से संबंधित आंकड़े तो होटलों में बैठ कर ही तैयार कर लिए जाते हैं इसलिए इनकी प्रामाणिकता पर सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है. हालांकि वे यह स्वीकार करते हैं कि पिछले चार-पांच साल में बिहार में विकास की गति तेज हुई है पर वह इतनी भी नहीं है जितना राज्य सरकार बता रही है क्योंकि कृषि, बुनियादी ढांचा, औद्यौगिक उत्पादन आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विकास दर अब भी चिंता का कारण बनी हुई है. ऐसी स्थिति में सेवा, होटल, पर्यावरण, रजिस्टर्ड मेनुफेक्चरिंग और निर्माण जैसे क्षेत्रों की विकास दर को राज्य के समग्र विकास से जोड़ कर देखा जाए तो स्थिति वैसी नहीं है जैसी कि बताई जा रही है.

ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सच्चाई

आज भी राज्य की 89 प्रतिशत आबादी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर ही आश्रित है. जनसंख्या के आंकड़ों के हिसाब से देखें तो यह संख्या आठ करोड़ 80 लाख के करीब होती है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बात करें तो इसमें मुख्य तौर पर कृषि और पशुपालन शामिल हैं और पिछले छह में से तीन साल ऐसे रहे हैं जिनमें इन क्षेत्रों में विकास की दर नकारात्मक रही हैै. वर्ष 2005-06 में कृषि और पशुपालन की विकास दर -9 प्रतिशत थी तो  2007-08 में -7 प्रतिशत. जबकि 2009-10 में तो कृषि और पशुपालन जैसे अर्थव्यवस्था की रीढ़ समझे जाने वाले क्षेत्र की हालत और भी दयनीय होकर लगभग -13 फीसदी तक पहुंच गई.

कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार यह आंकड़ों की बाजीगरी है. सीएसओ के नाम पर लोगों को गुमराह किया जा रहा है

हालांकि वर्ष 2010-11 में कृषि क्षेत्र की विकास दर में इजाफा हुआ और यह लगभग 10 प्रतिशत रही है. मगर जानकारों के मुताबिक असल में विकास की यह दर हाथी के दांत जैसी दिखाने की ही है. अर्थशास्त्री नवलकिशोर चौधरी विकास की इस गुत्थी को कुछ इस तरह सुलझाने की कोशिश करते हैं, ‘पिछले वर्ष यानी 2009-10 में राज्य ने कृषि क्षेत्र में 13 प्रतिशत की गिरावट झेली थी. ऐसे में इस वर्ष अगर दस प्रतिशत की वृद्धि हुई भी है तो 2008-09 के आंकड़ों की तुलना में यह 3 प्रतिशत की गिरावट ही है. ऐसी स्थिति में अन्य क्षेत्रों में विकास की दर बढ़ती भी है तो राज्य की अधिकांश जनसंख्या पर इसका नाम मात्र का ही प्रभाव दिख सकता है.’

जैसा कि अर्थशास्त्री  और एएन सिन्हा सामाजिक अध्ययन संस्थान के निदेशक डीएम दिवाकर  कहते हैं, ‘निर्माण,  पर्यटन, होटल व रेस्टूरेंट और निबंधित उत्पाद क्षेत्रों के विकास को नकारा नहीं जा सकता पर विकास की इस दर को समग्रता में देखा जाए तो यह स्प्ष्ट हो जाता है कि इस विकास का समाज के सबसे बड़े तबके से कोई लेनादेना है ही नहीं.