वासेपुर लाइव

यह महज संयोग था. धनबाद में प्राइवेट टैक्सी स्टैंड पहुंचते ही सबसे पहले नईम खान ही ‘टैक्सी-टैक्सी’ कहते हुए मिलते हैं. लगभग 70 साल के बुजुर्ग. नईम मियां से किराये का मोल-भाव शुरू करने के पहले ही मैं उन्हें बताती हूं  कि मुझे कुछ और जगहों के बाद अंत में वासेपुर जाना है. वे खुश होकर कहते हैं, ‘हमारे घर ही चलना है तो किराये को लेकर क्या मोल-भाव करना. जो सही लगे, दे दीजिएगा.’ कार में बैठते ही उनसे परिचय होता है. वे कहते हैं, ’40 साल पहले बिहार के वैशाली जिले से यहां आ गया था. वासेपुर में ही जिंदगी गुजार दी. वासेपुर में किराये के एक कमरे के मकान में रहकर अच्छे से जिंदगी गुजार रहा हूं. धनबाद के दूसरे हिस्से में घुमाते हुए नईम मियां अपने मोहल्ले वासेपुर की आबोहवा और वहां के बाशिंदों की तस्वीर  खूबसूरती से खींचते हैं. मैं बीच में ही नईम की बात काटते हुए कहती हूं कि आप तो अपने मोहल्ले को जन्नत की तरह पेश कर रहे हैं लेकिन आपके मोहल्ले पर तो फिल्म बनी है- ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर.’ हंसते हुए कहते हैं, ‘मैंने भी सुना है. आप खुद चल के देखिए. फिर आपसे ही जानना चाहूंगा कि हमारे मोहल्ले में गैंग वालों की परछाईं ज्यादा मजबूत है या शराफत ज्यादा दूर तक फैली हुई है.’

नईम मियां की अंबेसडर कार धनबाद के ओवरब्रिज से उतरते ही भीड़-भाड़ में फंसने लगती है. थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर नईम बताते हैं कि यहां से भूली रोड शुरू हो रही है. भूली रोड में हम आगे बढ़ते चलेंगे, दोनों ओर वासेपुर ही वासेपुर होगा. भूली मतलब बड़ी आबादी वाला धनबाद का एक व्यस्त कोल एरिया. थोड़ी देर में हम वासेपुर के व्यस्ततम इलाके नूरी मस्जिद के पास पहुंचते हैं. गाड़ी वहीं रुकती है. 

शाम ढल रही है. बाजार में गहमागहमी का नजारा है. पहली मुलाकात साजिया से होती है. वह ग्रैजुएट होने के बाद प्राइवेट नौकरी कर रही हैं. साजिया को गैंग्स ऑफ वासेपुर के बारे में पता है. कहती हैं, ‘वासेपुर में गैंग्स की छाया देखने आई हैं तो निराशा हाथ लगेगी, क्योंकि यहां क्रीम ज्यादा रहते हैं, क्रिमिनल नहीं.’ साजिया कहती हैं, ‘वैसे आप यह जरूर देख लीजिएगा कि यहां स्कूल नहीं है. हॉस्पिटल नहीं है. कॉलेज नहीं है.’ साजिया के साथ सदफ भी होती हैं. वे पेशे से पत्रकार हैं. सदफ कहती हैं, ‘सरकारी आंकडे़ के हिसाब से यहां की आबादी करीब डेढ़ लाख से अधिक है. गैरसरकारी आंकड़ों के मुताबिक वासेपुर की आबादी तीन लाख से भी ज्यादा है. यहां लड़कियां पढ़ने को आतुर रहती हैं. यही वजह है कि स्कूलों में नामांकन के लिए मारामारी मची रहती है.’  

सदफ और साजिया जैसी तस्वीर मेरी आंखों के आगे खींचती हैं, वही सब मुझे देखने को मिलता है. इस इलाके में एक भी सरकारी अस्पताल नहीं है. यहां कोई सरकारी स्कूल नहीं है. सभी स्कूल अनुदानों पर चलते हैं. यहां एक इंटर कॉलेज है- अबुल कय्यूम अंसारी मेमोरियल इंटर कॉलेज, गफ्फार कॉलोनी. हां, यहां तीन दर्जन से ज्यादा मदरसे जरूर चलते हैं.  बताया जाता है कि लगभग 500 से अधिक यतीम बच्चों को मदरसों में शिक्षा मिल रही है. 

इस इलाके में अस्पतालों के नाम पर एक निजी अस्पताल सारा पोली क्लीनिक है. इसके संचालक डॉ मासूम आलम से मुलाकात के दौरान वे खुद ही ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की चर्चा छेड़ते हैं, ‘अनुराग कश्यप ने कहा है कि यहां अवैध कारोबारी रहते हैं. मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि 0.1 प्रतिशत लोगों के कारण वे कैसे पूरे मोहल्ले को सर्टिफिकेट जारी कर रहे हैं.’ यहां के निवासियों ने बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं. मिसाल के तौर एस. एहतेशामुल हक (पूर्व स्वास्थ्य सचिव), जावेद महमूद (इंडियन रेलवे सर्विस), साहब सिद्दीकी (रजिस्ट्रार), नज्मा खलीम (प्रोफेसर), महबूब (डीएसपी). इस साल एक लड़की को आईआईटी जैसी प्रतिष्ठित संस्था में दाखिला मिला है. अबू इमरान ने आईएएस की परीक्षा में बाजी मारी है. मैं खुद डॉक्टर हूं. क्या हम सब अवैध लोग हैं?’

वासेपुर में दर्जन भर लोगों से मुलाकात होती है. सभी ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ पर बात करते हैं. कई नाराज दिखते हैं. मुख्य चिंता यह कि वासेपुर अल्पसंख्यकों का मोहल्ला है. मोहल्ले की बदनामी होगी तब शहर के दूसरे शरीफ माने जाने वाले मोहल्लों के लोग अपने बेटे-बेटियों की शादी यहां नहीं करना चाहेंगे. यहां के बच्चे कहीं पढ़ने जाएंगे तो उसे भी वासेपुरवाला मानकर संदेह के नजरिये से देखा जाएगा. उन्हें मानसिक प्रताड़ना झेलनी होगी. 

हम मंजर इमाम साहब से मिलते हैं. वे देश के जाने-माने उर्दू साहित्यकार हैं. वे कई राष्ट्रीय सम्मान पा चुके हैं. वे मोहल्ले का इतिहास बताते हैं. वे कहते हैं कि वासे साहब के नाम पर इस मोहल्ले का नाम वासेपुर पड़ा. करीब छह दशक पहले यह नामकरण हुआ. वासे साहब और जब्बार साहब, दो भाई थे. बड़े ठेकेदार थे. काफी प्रतिष्ठा थी उनकी. उनके जीते जी ही उनके नाम पर मोहल्ले का नाम वासेपुर कर दिया गया था. उनकी कोई संतान नहीं थी. मंजर साहब भी ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ पर अपनी बात कहते हैं, ‘कोयला माफियाओं के कारनामे दिखाने के लिए मोहल्ले का नाम लिया जाना सही नहीं है.’ वासे साहब के बारे में नईम मियां भी बताते हैं कि उन्होंने ही सबसे पहले डेढ़-दो सौ परिवारों को लाकर बसाया था. फिर तेजी से इस मोहल्ले का फैलाव होता गया और आज यह धनबाद का सबसे बड़ा मोहल्ला है. वासेपुर में हर कोई एक से बढ़कर एक बात बताता है. पता चलता है कि यहां छिनैती, रेप, चोरी, छेड़खानी जैसी घटनाएं कभी नहीं होतीं. लेकिन जब धनबाद में कोई घटना होती है तो कह दिया जाता है- अपराधियों को वासेपुर की राह भागते हुए देखा गया है. शंकर मिष्ठान्न भंडार वाले रिंकू पूछते हैं, ‘वासेपुर तो मुख्य सड़क के दोनों ओर बसा है. इस रास्ते तो किसी मोहल्ले में जाया जा सकता है, फिर वासेपुर को बदनाम क्यों किया जाता है?’

हम यह जानना चाहते थे कि फहीम खान और शबीर खान का जो गैंग्सवार मशहूर रहा है, उसकी हकीकत क्या है. यह हमें जावेद खान बताते हैं. वासेपुर वासी जावेद भाजपा अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के जिला अध्यक्ष हैं. इन दिनों गैंग्स ऑफ वासेपुर फिल्म के बहाने वे धनबाद में चर्चा के केंद्र में बने हुए हैं. जावेद ने फिल्म टाइटल से ‘वासेपुर’ हटाने के लिए अनुराग कश्यप को लीगल नोटिस भिजवाया था. पीआईएल दर्ज करने की बात कही है. बकौल जावेद, ‘फिल्म में जो दिखाना हो दिखाए लेकिन वासेपुर का नाम हटाना होगा. हमने यूट्यूब पर फिल्म का प्रोमो देखा है. डकैती, बकैती, लौंडियाबाजी जैसे शब्दों के साथ भद्दी-भद्दी गालियों का जमकर प्रयोग हुआ है. महिलाओं के साथ जो संवाद हैं और गाने हैं, वैसा तो वासेपुर सपने में भी नहीं सोच सकता.’ वासेपुर में फहीम खान का ही सबसे बड़ा मार्केटिंग कांपलेक्स अभी खड़ा हुआ है. जावेद से हमारी बात वहीं होती है. वे कहते हैं, ‘यह सच है कि यहां फहीम बॉस और सबीर खान की आपसी लड़ाई का इतिहास है. उनकी लड़ाई में कई लाशें भी गिरी हैं लेकिन मोहल्ले वाले इन दोनों के गैंगवार में कभी शामिल नहीं हुए. फहीम और शबीर दोनों दोस्त हुआ करते थे. मोहल्ले के विकास के लिए दोनों ने साथ मिलकर सोसाइटी भी बनाई थी. एक अध्यक्ष बना था, दूसरा सचिव. बाद में दोनों में विवाद हुआ. दोनों रेलवे ठेकेदारी में लग गए. फिर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए, जो आज तक जारी है. शबीर फिलहाल जमानत पर जेल से बाहर हैं, लेकिन वासेपुर में नहीं हैं. फहीम हजारीबाग जेल में हैं.  यहां बीपी सिन्हा, सूरजदेव सिंह, सुरेश सिंह जैसे कोयला व्यापारियों की हत्या हुई है. सूरजदेव सिंह और सुरेश सिंह का गैंगवार ही देश भर में ख्यात है. उनकी कहानी दिखाने के लिए बीच में वासेपुर को क्यों लाया गया? वार्ड पार्षद रेहाना भी फिल्म के नाम को लेकर नाराजगी जताती हैं. वह एक लाइन में कहती हैं, ‘जो फिल्म बनाया है, फिल्म बनाने वाले से पूछिएगा कि उनकी फिल्म का नाम सुनने के बाद हमसे रोटी-बेटी का संबंध कौन निबाहेगा.’ कई लोग और कई बातें कहना चाहते हैं. हम विदा लेते हैं. 

तुरंत गैंग्स ऑफ वासेपुर की स्क्रिप्ट लिखने वाले जिशान कादरी से फोन से बात होती है. पूछती हूं कि आपके लोग तो बहुत नाराज हैं. कादरी कहते हैं, ‘वासेपुर के लोग नाराज नहीं हैं, जिन्हें चर्चित होने की ख्वाहिश है, वे नाराजगी को उकसा रहे हैं.’ कादरी आगे कहते हैं, ‘मैं भी वासेपुर का ही हूं अपने मोहल्ले को मैं कम प्यार नहीं करता, क्यों बदनाम करना चाहूंगा उसे?’ कादरी से लंबी बातचीत होती है. हम धनबाद स्टेशन पहुंच चुके होते हैं. अब आखिरी में फिर नईम मियां का सवाल, ‘कैसा लगा हमारा वासेपुर, बताइए न! नईम धीरे से कहते हैं, ‘मैंने आपको बताया नहीं. मेरा बेटा भी इंजीनियर है. वासेपुर के किराये वाले एक कमरे में रहकर ही पढ़ा था.’

प्रश्नोत्तर:‘भला मैं ‘वासेपुर’ को क्यों बदनाम करूंगा’

गैंग्स ऑफ वासेपुर के स्क्रिप्ट राइटर जिशान कादरी वासेपुर के ही हैं. उन्होंने फिल्म में अभिनय भी किया है. उनसे अनुपमा की बातचीत:

 

फिल्म का नाम गैंग्स ऑफ वासेपुर होने की वजह से आपके मोहल्लेवाले ही नाराज हैं.

 फिल्म में वासेपुर का सिर्फ नाम भर लिया गया है. कहानी धनबाद के कोयला माफियाओं की है. वैसे वासेपुर के आम लोग नाराज नहीं हैं. कुछ लोग अपना नाम चमकाने के लिए लोगों को उलटा-सीधा समझा रहे हैं. मैं वासेपुर का ही रहनेवाला हूं. मेरे मां-पिताजी वहीं रहते हैं. मुझे अपने मोहल्ले से बहुत प्यार है. भला मैं क्यों मोहल्ले को बदनाम करना चाहूंगा?

आपसे मोहल्ले के किसी आदमी ने यह नहीं कहा कि जिशान तुम ये क्या कर रहे हो?

हां, 12 जून, 2012 को वासेपुर से एक आदमी का फोन मुझे आया. वे मुझे तकरीबन 15 मिनट तक धमकाते रहे. हालांकि मोहल्ले के ज्यादातर लोगों ने मेरी हौसला अफजाई ही की है. वासेपुर तो वर्षों से उपेक्षा का दंश झेलते-झेलते बदनाम हो चुका है. बैंकवाले वहां के लोगों को लोन नहीं देते क्योंकि वासेपुर गैंगस्टरों का इलाका कभी रहा है. मैं तो वासेपुर के जरिए कस्बाई यथार्थ को बताने की कोशिश कर रहा हूं. सच है कि इस देश में कई वासेपुर हैं.

अपने मोहल्ले पर फिल्म बनाने का खयाल कैसे आया?

मैं सिनेमा में जाना चाहता था. कई बार ऑडिशन दिए लेकिन हर बार असफल रहा. लेखन में मेरी रुचि रही है इसलिए मैंने सोचा कि क्यों नहीं अपने मोहल्ले की ही बात लिखूं. वहां ऐसा प्लॉट मौजूद है जिस पर लिखा जाना मुझे जरूरी लगा. मैंने यह कहानी हंसल मेहता को भी बताई. उन्हें पसंद आई. पर फिल्म बनाने के बारे में उन्होंने चुप्पी साध ली. मुझे लगा कि अनुराग कश्यप से बात करनी चाहिए. कहानी सुनते ही उन्होंने फिल्म बनाने के लिए आश्वस्त कर दिया. अभिनय का शौक था, इसलिए मैंने अपने रोल की भी बात की. वे तुरंत मान गए. यह बहुत खतरनाक लोगों की कहानी है और इस खानदानी लड़ाई में कई लोग खत्म हो चुके हैं. आज भी वहां तनाव बरकरार है. मैंने इस माहौल को बचपन से ही जिया है इसलिए इसे बहुत डूबकर शब्दों में उतारने की कोशिश की है.

क्या फिल्म में आपके मोहल्ले के दो मशहूर गैंगस्टर फहीम खान और शबीर खान की आपसी लड़ाई की कहानी की झलक भी है.

थोड़ी कहानी तो उनकी है. हालांकि उन दोनों ने आपसी लड़ाई में मोहल्लेवालों को कभी नहीं घसीटा. यह धनबाद और देश के दूसरे हिस्से के कोयला माफियाओं की हकीकत है, वासेपुर से इसका बहुत लेना-देना नहीं.

तो क्या फिल्म रिलीज होने के बाद अपने वासेपुर में आ रहे हैं?

वासेपुर में तो मेरी आत्मा बसती है. मेरे मम्मी-पापा वहीं रहते हैं. अपने घर आने के लिए तारीख क्या तय करना. जब जी में आएगा, चला आऊंगा. वहां जाकर अपने दोस्तों से मिलना, नुक्कड़ पर चाय पीना, गप्पें मारना सबसे अच्छा लगता है. अब दूसरी फिल्म ‘बिजली’ की कहानी लिखने में लगा हूं. यह भी हकीकत पर आधारित है. फुर्सत पाते ही तरोताजा होने वासेपुर चला जाऊंगा.