जो इस नश्वर संसार में आया है उसे एक दिन जाना ही है। यही एक सत्य है। कैसे जाना है? यह पता नहीं। हमारे देश में ज़्यादातर लोग सड़क और रेल हादसों में मरते हैं। कुछ बीमारी का शिकार होते हैं। कई आत्महतया कर लेते हैं। कुछ दंगों का शिकार हो जाते है। पर कहीं ज़्यादा बवाल नहीं होता। पर जब कोई भूख से मरता है तो हंगामा हो जाता है। बात भी सही है जिस देश में अन्न की बहुतायत हो वहां लोगों का भूख से मरना स्तब्ध कर देता है। विश्वास नहीं होता। सारा प्रशासन यह साबित करने पर लग जाता है कि मौत भूख से नहीं बीमारी से हुई है।
जब डाक्टर पोस्टमार्टम के बाद कह दे कि मृतक ने आठ दिनों से कुछ नहीं खाया था, तो बेचारे मेजिस्ट्रेट को अपनी रपट में मौत का कारण दस्त लगना बताना पड़ता है। साथ ही कुछ सवाल खड़े करने पड़ते है, कुछ शंकांए पैदा करनी पड़ती है, जैसे किसी ने विष दे दिया होगा, अभी विसरा की रिपोर्ट आनी है। तभी पता चलेगा कि असलयित क्या है। प्रशासन इसे हैजा बता दे या कोई और भंयकर बीमारी पर वह इस बात को कभी सहन नहीं करेगा कि मौत भूख से हुई। पर न मानने से क्या असलीयत बदल जाती है।
हमारी बिरादरी सही है। हम कभी भूख से नहीं मरते क्योंकि हमें चारा या घास खाने के लिए राशनकार्ड की ज़रूरत नहीं होती। न कार्ड होते हैं, न दूसरी जगह जाने पर उन्हें रद्द करवाना पड़ता है और न नए बनवाने पड़ते हैं हमारा ‘रेजिडेंस प्रूफÓ भी कोई नहीं पूछता। हमें जहां हरियाली दिखी वहीं पहुंच जाते है चरने। पर ये गरीब लोग चाहे उस आंगनवाडी के पास ही रहे जो गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा और मुफ्त भोजन देनेे के लिए बने हैं, पर जिसके पास राशन कार्ड नहीं, उसे राशन नहीं जिसे राशन नहीं, उसे भूख अपने जबड़े में ले ही लेती है। पर ऐसे गरीबों के मरने से किसे क्या फर्क पड़ता है। उल्टा देश में गरीबों की संख्या कम होती है।
हमारे समाज में लंगर लगाने और भंडारे चलाने की एक परंपरा है। पर बदकिस्मती से इसका लाभ भी बहुत गरीब लोग नहीं उठा सकते। इंसान शायद ज़्यादा पढ़ा-लिखा है इसलिए उसके पास ई-मेल, व्हट्स एप, इंटरनेट से फुर्सत नहीं वह ‘फेसबुकÓ पर अपने कथित मित्रों की संख्या बढ़ता है। वह गरीबी और भुखमरी के आंकड़े नहीं देखता, पर हम जाहिल जानवर हैं, धोबी का बोझा ढोते हैं पर हमें मालूम है बाबर की मौत हमंायू से 26 साल पहले हो गई थी, हमें मालूम है तक्षशिला कहां है, हम जानते है कौन सा संत किस शताब्दी में पैदा हुआ। हमें मालूम है देश में सबसे बड़ा अकाल 1935 में पड़ा था। 1968 में राजस्थान में अकाल पड़ा। राजस्थानी लोग साहसी हैं वे पूरे देश में रोज़ी रोटी तलाश करने लगे। बंगाल के कई नगरों में तो वे आज स्थानीय लोगों से भी ज्य़ादा तादाद में हैं। वे वहां की अर्थव्यवस्था चला रहे हैं। रूसी क्रांति के नायक लेनिन के बारे में कहा जाता है कि वे उतना ही खाना लेते थे जितनी ज़रूरत होती थी। माओ तो यदि खाना खाते समय समझ जाते कि खाना ज्य़ादा है तो उसे कटोरी में भरकर अपनी जेब में रख लेते और जब भूख लगती तभी खाते। हमारे यहां तो बचा खाना जानवरों को खिला दिया जाता है। शहरों में अन्न फेंकना सभ्यता मानी जाती है। क्या इससे देश का विकास होता है? विकास तो क्या पिछले 71 सालों में देश में व्यवस्था नहीं बना पाए जिसमें कोई भूखा न सोए। हमारे अध्यात्मिक लोगों का भगवान पर अटल विश्वास है। वे कहते हैं, ”वो (भगवान) भूखा उठाता है, पर भूखा सुलाता नहीÓÓ। फिर आठ दिन तक भगवान कहां था हमें तो पता नहीं।