वह खालीपन

शाम के झुरमट में परछाइयां इतनी लंबी हो रही थी जितनी उमर रहे थे दोष। खालीपन बढ़ रहा था। ऐसा लग रहा था मानो मुझ पर आरोप लग रहा हो कि मैंने अल्जाइमर के शिकार अपने पिता के लिए कुछ भी नहीं किया जबकि मैं उनकी आंखों में दर्द को बढ़ता तो देखती लेकिन भरोसा नहीं कर पाती कि उनकी याददाश्त अब इतनी ज्य़ादा चिथडों मेें बदल गई है। उनका ढांचा झुक सा गया है। उनकी मजाकिया हंसी अब ढीली सी हो गई है, उनकी याददाश्त धुंधली हो गई है कि एक बार उन्होंने एक साबुन ही इतना कुतर लिया मानो वह मक्खन लगी टोस्ट हो।

वही वह वक्त था जब उन्होंने बचपन शब्द पर अपनी प्रतिक्रिया दी थी किसी भी बातचीत की शुरूआत में या फिर पहले। उसके साथ ही वे ऐसे वाक्य बोलते जिनका किसी से कोई वास्ता नहीं होता। एक तय सुर में वे अपनी बात रखते। उसकी मां सुबह से सूरज ढलने तक काम करती, पूरे खानदान के लिए खाना बनाती, फिर सफाई करती, रफू करती उस अचकन, शेरवानी और टोपियों की। लंबे और छोटे संवादों में इधर-उधर देखते, आशंकाएं, बार-बार दुहराते और पूछते हुए कि क्या टांगा आ गया। उसके बाद वे मानो टांगे के इंतजार मे रहते। वह टहलते हुए बाहरी लॉन में पहुंच जाते। फूलों की क्यारियों से वे आहिस्ता से गुलाब तोड़ते। वहां उनके परिवार के आम के बगीचे थे। जहां चौसा, दशहरी, फाजरी, लंगड़ा आदि थे। फिर वे झाडिय़ों को थपथपाते जैसे वे अपने ही बच्चों के सिर थपथपा रहे हों। वे बुलाते, मानो अपने भाइयों को याद कर रहे हों जो अब इस दुनिया में नहीं हैं और वह बेटा जो झांसी के एक कब्रिस्तान में कहीं गहरे दफन है। एक असहायता मानो बढ़ रही है। वे अपनी बाईं कलाई में पीले धब्बे को देखते हैं। हालांकि घड़ी अब भी चल रही थी। मानो समय बीतता जा रहा था।

शायद वे और ज्य़ादा भरोसा चाहते हों… और ज्य़ादा बेचैनी बढऩे के दबाव के चलते शायद। लेकिन वह मिल न रहा हो। उनकी लंबी पलकों के पीछे आंखों में आंसू ढुलक उठते हैं। लगता है मानो पूरी तौर पर यह उनका असहाय होना है जो उनकी आंखे से टपका आंसू मुझे लगातार याद आते हैं। हर दिन। कभी एक पल को भी वे मुझे नहीं छोड़ते जब तक उनकी मौत न हो गई।

और अब वे तस्वीरें एक बार फिर कौंध रही हैं उसके साथ ही खबरें थी कि जयश्रीदास ने अपनी एनेक्सी में अल्जाइमर पीडि़त पति और उपयोग से पीडि़त एक भतीजे को रखने के लिए फेरबदल किया है। शायद उस पाप से छुटकारा पाने का देर से सही यह दूसरा मौका हो। भीतर की आवाज आगे बढऩे को कर रही हो कोशिश। वैसे ही जैसे नई दिल्ली के भ्रदलोक की औरतें अपनी चितकार, हुकार के साथ प्रवाह के साथ होने की कोशिश करती हैं। बातचीत के दौरान अपनी कमीज़ के खुले बटनों से अपने उभारों को झलकाते हुई।

थोड़ी भ्रमित सी गली में बाहरी दरवाजा खोलती हुई दिखती है कोने के वह मकान जहां जय श्री अपने पति जयंत के साथ रहती थी। मैंने उनसे वहां मुलाकात की थी। जहां मध्य वर्ग के लोग आपस में मिलते। अपने मरियल से चेहरों के साथ सब्जियों का थैला लिए हुए और कसाई के दुकान के बाहर खड़े या फिर ठठेरे या दर्जी की दुकान पर…।

खुद जयतों नहीं। नहीं, कोई दखल नहीं देता। बैठा रहता, सुबकता रहता… कल अपना पर्स चमका रहा था। खाली कर रहा, नहीं मदद नहीं, मदद के लिए। मैं नहीं चाहती जयंतो उसके लिए परेशान हो…

नर्स? ‘वह तो संभव ही नहीं’

‘नहीं, नहीं?’

‘कोई मददगार बच्चा’

जयंतों के बलगम आदि की तो सफाई ज़रूरी है? नहीं, कोई बदबू नहीं। आज सुबह ही तौलियां फेंका नहीं जाता कैसे धोबी इन धब्बों को धो पाता है। जो राजनीतिकों की बनियान पर होते हैं।

बड़बड़ाना और फुसफुसाना ‘कोई बच्चा मदद नहीं करता।’ मैं कैसे इस शादी में जा सकती हूं। एक स्वांग ही अब यह। मेरे सिर पर एक और मुसीबत। कई ऐसे मरीज सालों जिंदा रहते हैं और… दिखती मरियल और परेशान-थकी, तनाव भरी और तनी सी। कुछ हल्की हुई। लगा कि उसके साथ उसके अच्छे रिश्ते नहीं थे। फिर न रु कना। ज्य़ादातर जोड़ों का हाल यही लगता है। इनका एक छत के नीचे इनका जीवन चलता है उसी बेडरूम में। जुड़े हुए बिस्तर होते या अलग-अलग लेकिन इनमें संपर्क नहीं होता और न ही हस्त मैथुन ही। ये बस एक दूसरे को देखते गर्म सांसे लेते रहते हैं। या फिर अपनी इच्छा दिल में ही मसोस कर रह जाते हैं। या फिर कहीं और कुछ करते हैं। बिना किसी परवाह के। दूसरी चिंता दिमाग में भरे हुए। अलग-अलग पृष्ठभूमि का ठीकरा बचाने की कोशिश में और किसी तरह शादी शुदा जोड़े के तौर पर निर्वाह करते हुए।

कुछ ही मिनटों बाद सामान्य होने की कोशिश मेें उसके पति की हल्की चीख सुनाई देती है। फुफकारती और फुसफुसाती अंदर जाती हुई। कुछ ही मिनट में फिर बाहर आकर थोड़ा और वह शायद कै कर रहा है… अब खत्म हुआ। मेरे लिए बहुत कुछ है संभालने के लिए। अब माई का बेटा भी अल्जाइमर का शिकार है। मैंने आपको बताया या नहीं, मुझे लगता है शायद मैंने बताया। मेरी भी याददाश्त वापस जा रही है। शाम के भाई का बच्चा, यहां है?

‘अभी-अभी आया। मेरे सिर पर। अंग्रेजी साहित्य पढ़ाता था अब एबीसी भी नहीं जानता क्या?’

‘याददाश्त जा रही है… उसने घर में लड़ाइयां और बाहर लगे कफ्र्यू देखे हैं। वह घबराआ सा बैठा रहता है। गुमसुम…’

उसकी पत्नी?

पत्नी! क्या पत्नी! कोई पत्नी नहीं! शादी ही नहीं की। किसी मुसलमान औरत से उसका संपर्क था लेकिन वह भी कामयाब नहीं रहा। कौन सी प्रेमकहानी अमर होती है? अब याददाश्त भी नहीं।

‘नाम?’

‘सब कुछ भूल गया!… अपना नाम भी’

‘कहां से आ रहा है?’

‘कहते हैं वह श्रीनगर में था!’

‘श्रीनगर?’

‘इन दिनों श्रीनगर में’

‘वहीं रह रहे थे! कहां, कहां?’

‘श्रीनगर में। वे वहां से हटे भी नहीं… वह अजब सी शादी थी। नहीं… जानती उसका क्या हुआ! उसे मेरे सिर पर पटक दिया। मेरे सिर पर।’

‘श्रीनगर से?’

‘और क्या। वे कहां रहते… उन तमाम जगहों पर। अब यह तलाक की लड़ाई लड़ रहा है उस बीमार शादी के लिए। पिछले पचास-साठ साल से।’

‘क्या उसका यही नाम है?’

‘क्या नाम’

क्या नाम कुछ और बताता है?

‘बैठकर तुतलाता रहता है। नर्सरी गीत उसकी तुतलाहट मे नर्सरी होते हैं…। तुतलाते के पहले मुझे देखता रहेगा।’ आपके पिता भी तो अल्जाइमर के रोगी थे। आप जानती है कैसे उन्हें संभालना है?’

‘नहीं जानती मैं कितनी सेवा कर सकूंगी। कुछ भ्रमित सी दिखी। घर की ओर लौटते हुए और भी ज्य़ादा भ्रमित। बिस्तर के एक किनारे बैठी और ज्य़ादा थकी सी।’

खिड़की खोल दीं जिससे कुछ ताज़ी हवा आ सके। जब कि डेंगू के फैलने के कारण शहर में सब जगह बताए जा रहे थे। मारो… वह मारती रही।

फिर ज़ोर से बंद कर दी। एक सफेद मछली मरी। कई तिलचट्टे भी मरे। कई मच्छर भी एक ने मेरी छाती से खून भी पिया फिर उड़ गया और एक पर्दे के मोड़ पर जाकर बैठ गया। उन गंदे पर्दों के एक मोड़ पर। देखता हुआ और कंधे उचकाता हुआ। कभी पानी को इतना दबाव ही नहीं बनता था कि धुलाई मशीन चल सके और गर्द-साफ हो। मेरे अंगों में भी अब उतनी ताकत नहीं रही।

बिस्तर के एक किनारे बैठी हूं। हाल-फिलहाल मेरी नज़र उन पर्दों पर नहीं है। दीवार पर परिवार के लोगों के फोटो लगे हैं। इनमें मेरी मां की पिता की, बहनों और भाइओं की भी तस्वीरें हैं।

पुरानी आलमारी खोलती हूं। उन एलबम को निकालती हेूं। चश्मा ठीक करती हूं। हर एक को देखती हूं जिनकी तस्वीरें हैं। मैं शायद किसी की तलाश में हूं। जिसे मैंने चलते हुए कहीं छोड़ दिया।

खुशी की चमक जो मेरे किशोर होने के दौरान भी वह तब गुम होने लगी जब मैं नौजवान हुई। अभी हाल लिए गए चित्रों में दुख झलकता है। भावना का असर दिखता है।

दर्द और दुख फैल रहा है जैसे मानसून में हुई बारिश का पानी। अब और ज्य़ादा नहीं देख पा रही। इस बात पर मन में होता है आश्चर्य कि हमारे माता-पिता ने हमें दर्द सहने के लिए तैयार क्यों नहीं किया। मौत के बारे में तो बात करने पर भी मनाही थी। वह भी चाहे जैसी हो चाहे अच्छा हो या संबंधों में हो या फिर किसी और रूप में हो। मेरे पिता तो तकरीबन बेहोश हो जाते जब मैं उनसे पूछती, कौन उस गहरी कब्र में हमारे शरीर को डालेगा। अगर हम राजनीति के चलते पुलिसिया जूतों के नीचे कुचले जाएगें?

दरअसल, सालों बाद पुलिसिया बूटों और राजनीतिक ताकत के चलते मेरा भाई मारा दिया गया। उसका तो शरीर मर चुका था और हमारी दिमागी सोच को धक्का पहुंचा था। छोटी उम्र थी। हम बैठे रोते रहते और शोक मनाते। यह सब पिछले कितने बरसों से करते आ रहे है।

आज रात, जैसे हम शोक में हैं, खोए हुए अकेले अकेले। इन चित्रों में जैसा दिख रहा है वैसा नहीं अपनी मां की गोद में, पिता की बाहों में या अगल-बगल खड़े अपने बच्चों के साथ!

अचानक बिस्तर के किनारे से मैं उठती हूं। पास के घरों से शोर पास आ रहा है। लगता है एक मानव शरीर दर्द में चीख चिल्ला रहा है। उसे गहरा दुख है। नहीं ये चीखें मेरे भाई की नहीं हैं क्योंकि वह तो बरसों पहले मारा जा चुका है।

अपने भाई के चित्र को एक बार फिर मैं निहारती हूं। वह बाहरी दालान में खड़ा है। अचानक सब कुछ ठहर जाता है। उन चित्रों को देखते हुए दिल धक् धक होता है। उसकी मृत देह पड़ी हुई है। सांप्रदायिक दक्षिण पंथी ब्रिगेड के लोगों ने उसकी जान ले ली जिन्हें सिर्फ एक खास लहर में ही सोचना होता है। उन्होंने उसका पीछा किया और उसे मारा डाला। उसकी नाक और मुंह से खून निकल रहा था और छटपटाते हुए उसकी मौत हुई।

फिर देखो अतिक्रमण। ये चीेखें अंदर आ रही हैं। आस पास देखिए, खामोशी फैल रही है।

अपने दो कमरों के घर की ओर मैं बढ़ती हूं सामने का दरवाजा खोलती हूं। वे आवाजें करीब आ रही हैं। वे किसी खास दिशा से नहीं आ रही हैं, बल्कि ये हर ओर से आ रही हैं।

बदल जाती है दिशा। बदलता हैं अंदाज़। बदलता है तौर-तरीका। लेकिन जो नहीं बदलता है वह है तैयारी। जैसे शिशुओं के पाथडे फेंक जाते हैं लेकिन बहुत दूर नहीं। शायद इसलिए कि कूड़ा चुनने वाले उसे उठाएं और एक किनारे कर दें।

इस अंधेरे में कूड़ा बीनने वाले भी नहीं दिख रहे हैं। जहां सारे दिन राजनीतिक खड़े रहे।

वे बेसब्र चहलकदमी करते रहे। हालांकि वे पोथड़े उनकी जांघों पर बंधे थे लेकिन शायद कब्ज उनके लिए रूकावट बनी हुई थी।

इन लोगों के आगे थे वे लोग जो नकाब पहने और सारे दिन खुद को धब्बों वाला कपड़ों में छिपाए नारे लगा रहे थे। नारों के स्वर तेज हो रहे थे। उधर दूसरी ओर भरे हुए मुंह में भुना हुआ माल था। उनकी जेबों में रबर के कंडोम थे। शायद यह सब खेल गांव का बचा-खुचा माल था।

बहुत दूर नहीं थी जश्री। वह पागलों की तरह रहती है, नहीं, नहीं, नहीं। मैं सेक्स के लिए खुद को नहीं बदलूंगी। मुझे मत छुओ… नहीं, वहां नहीं। वे खींच रहे हैं… फाड़ रहे हैं… मेरी जान ले रहे हैं!

वे लोग न जाने कहां से भागते हुए उसकी ओर आते हैं। एक-दूसरे को संभालते हुए। उसकी जांघ के गोश्त को जकड़ते हुए। उधर वह नर्सरी राइम के शब्दों को गुनगुना रहा था। उसको धक्का देते हुए और खींचते हुए कि वह कुछ घिसा पिटा अंग्रेजी गीत सुनाए। उसे बार-बार धकिमाते और लतियाते मेन रोड़ पर फेंक वे गायब हो जाते हैं, न जाने कहां गुप्प अंधेरे में।

मेरी आंखों से विद्रोह झलकता है, अंग फड़कने लगते हैं। झाडिय़ों से किसे उठती हूं। उसके पास पहुंचती हूं। उसके चेहरे को देखती हूं, उसकी आंखों में झांकती हूं। वह मरा पड़ा है। जीवन का कोई संकेत नहीं, खून ज़रूर बह रहा है। कभी इधर से कभी उधर से।

बिना कुछ किए मैं बैठ जाती हंू।

इस बार दूर नहीं जाती। जैसे दो दशक पहले मैं करती थी। मैं किसी भी तरह की प्रतिबद्धता से पीछे हट जाती थी। सांप्रदायिक हिंसा में अपने भाई की हत्या के बाद मैं कभी खुशहाल जि़ंदगी जीने के सपने नहीं देख सकी। इस आदमी से मुझे बेइतहा प्यार था। फिर भी खो बैठी।

उसने श्रीनगर को ही अपना घर बना लिया था अंग्रेजी साहित्य पढ़ाने के लिए। मैं रुक गई थी। वक्त से पहले ही बूढ़ी हो गई।