छह महीने चले विवाद और जांच के बाद आखिरकार रविवार, 24 जुलाई को दारुल उलूम, देवबंद के मोहतमिम (कुलपति) गुलाम मोहम्मद वस्तानवी बरखास्त कर दिए गए. उनके पक्ष में कोई भी चीज काम न आई. इसके बावजूद कि उनके खिलाफ गठित तीन सदस्यीय जांच कमेटी ने उन्हें निर्दोष करार दिया था और इसके बावजूद कि जांच कमेटी के दो सदस्य वस्तानवी को कुलपति बनाए रखने के पक्ष में थे, दारुल उलूम की प्रबंधकीय परिषद मजलिस-ए-शुअरा की बैठक में उन्हें अपना पद छोड़ने को कहा गया. हालांकि यहां वस्तानवी ने थोड़ा संघर्ष करने की कोशिश की. उन्होंने खुद इस्तीफा देने से इनकार कर दिया. बदले में फैसला मतदान के जरिए हुआ जिसमें उनके खिलाफ नौ वोट पड़े. उनकी हिमायत में पड़े चार वोटों में से एक खुद वस्तानवी का था और दो जांच कमेटी के सदस्यों के.
मजलिस के काम करने का तरीका बताता है कि वस्तानवी को हटाने के लिए उनके इंटरव्यू को महज एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया गया
वैसे गौर से देखा जाए तो वस्तानवी की देवबंद से विदाई की वजहें वे नहीं जो सतही तौर पर दिखती हैं. यानी वे आरोप जो उनकी नियुक्ति के कुछ समय बाद से ही उन पर लगने लगे थे. दरअसल यह सिलसिला वस्तानवी के इसी साल जनवरी में उनके कुलपति पद पर चुने जाने के कुछ समय बाद शुरू हुआ था. एक अंग्रेजी अखबार को दिए गए इंटरव्यू में उन्होंने गुजरात दंगों को ‘आठ साल पुराना मामला’ बताते हुए उससे आगे बढ़ने को कहा था. 19 जनवरी को दिए गए इस इंटरव्यू में उन्होंने यह भी कहा कि ‘गुजरात में उतनी मुश्किलें नहीं हैं जितनी बताई जाती हैं.’ इस इंटरव्यू को वस्तानवी द्वारा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हिमायत माना गया और देवबंद और देश के दूसरे हिस्सों से भी वस्तानवी को हटाए जाने की मांग उठने लगी. दारुल उलूम में भी छात्रों के एक गुट ने वस्तानवी के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किए. विरोध का दायरा बढ़ने पर 23 फरवरी को मजलिस की बैठक हुई जिसमें वस्तानवी से इस्तीफे की मांग की गई. वस्तानवी ने तब मजलिस से उन्हें सीधे नहीं हटाने का आग्रह किया. उन्होंने कहा कि उन पर लगाए जा रहे आरोपों की जांच कराने के लिए एक कमेटी गठित की जाए. कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद वे खुद ही इस्तीफा दे देंगे, भले ही कमेटी की रिपोर्ट उनके पक्ष में हो या उनके खिलाफ हो.
जांच के लिए बनी तीन सदस्यीय कमेटी ने लगभग पांच महीनों तक मामले की जांच की. तीनों सदस्यों, चेन्नई के मौलाना इब्राहीम कासमी, मालेगांव के मुफ्ती इस्माइल कासमी और मुफ्ती मंजूर कानपुरी ने दारुल उलूम का तीन बार दौरा किया. इसके बाद उन्होंने 23 जुलाई को मजलिस की बैठक में अपनी रिपोर्ट सौंप दी. एक नया विवाद तब खड़ा हुआ जब ऐसी खबरें सामने आईं कि जांच कमेटी के भीतर आम सहमति नहीं है. मौलाना इब्राहीम कासमी और मौलाना इस्माइल कासमी ने वस्तानवी के साथ सहानुभूति दिखाई जबकि मुफ्ती मंजूर कानपुरी ने कड़ा रुख अपनाया. मौलाना इस्माइल के मुताबिक वे और इब्राहीम कासमी तीन बार देवबंद आए और तीनों बार उन्होंने प्रदर्शनकारी छात्रों के बयान दर्ज करने चाहे. लेकिन हर बार मुफ्ती मंजूर ने आए हुए छात्रों को यह कह कर लौटा दिया कि उनके बयान की जरूरत नहीं है. इसका जिक्र इस्माइल कासमी ने अपनी रिपोर्ट में भी किया है. वे कहते हैं, ‘छात्रों का बयान इसलिए जरूरी था कि इसके बिना रिपोर्ट पूरी नहीं होती.’ लेकिन मुफ्ती मंजूर के मुताबिक उनकी नजर में छात्रों का बयान इसलिए जरूरी नहीं था क्योंकि वे किसी एक रुख पर कायम नहीं थे.
‘जिस तरह अंग्रेजों के जमाने में जमींदारों के तालुके हुआ करते थे, आज के जमाने में मदरसे ऐसे तालुके हो गए हैं. सारे देश में मुसलमानों का चाहे जो हो, लेकिन इनके मदरसे बने रहते हैं’
इस तरह बंटी हुई कमेटी ने जब मजलिस को रिपोर्ट सौंपी तो पाया गया कि उसने विवाद की मूल वजह पर अपनी कोई राय ही जाहिर नहीं की है. मजलिस के सदस्य मौलाना अलीम फारूकी के शब्दों में, ‘हमने रिपोर्ट की तह में न जाते हुए वस्तानवी के वादे को उनके निष्कासन का आधार बनाया. वस्तानवी ने कहा था कि रिपोर्ट आते ही वे इस्तीफा दे देंगे, चाहे रिपोर्ट में कुछ भी हो.’ इस तरह साफ-साफ दोष साबित नहीं होने के बावजूद वस्तानवी को उनके अपने ही बयान के आधार पर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
हालांकि वस्तानवी का इस मामले में दूसरा ही रुख है. निष्कासन के बाद मीडिया से बातचीत करते हुए उनका तर्क था कि कमेटी ने जो रिपोर्ट शुअरा को सौंपी थी वह अधूरी थी. उनका कहना था, ‘तीनों सदस्यों ने काफी मेहनत से रिपोर्ट बनाई थी, लेकिन खुद उन्होंने ही यह स्वीकार किया है कि रिपोर्ट अधूरी है. अगर एक बाकायदा पूरी रिपोर्ट सौंपी गई होती तो मैंने खुद इस्तीफा दे दिया होता. इस पर मैं पहले भी राजी था और अब भी हूं.’
मजलिस के काम करने का तरीका बताता है कि वस्तानवी को हटाने के लिए उनके इंटरव्यू को महज एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया गया. जांच समिति के सदस्य इस्माइल कासमी इस फैसले पर दुखी होकर सवाल करते हैं, ‘हमारी 15 पन्नों की रिपोर्ट पर गौर भी नहीं किया गया. जब वस्तानवी को हटाने का इरादा बना ही लिया गया था तो कमेटी क्यों बैठाई गई थी?’
देवबंद के इस 145 साल पुराने मदरसे के इतिहास और इसके काम करने के तरीके पर नजर डालें तो वस्तानवी को हटाए जाने की पृष्ठभूमि सामने आ जाती है. दरअसल उन्होंने अपनी विदाई लगभग तभी पक्की कर ली थी जब वे इस साल 10 जनवरी को प्रभावशाली मदनी घराने के अरशद मदनी को हरा कर कुलपति चुने गए थे. देवबंद की इस उथल-पुथल की जड़ में मदनी घराने की ही राजनीति है. अपनी विदाई के बाद वस्तानवी ने इसका इशारा करते हुए कहा भी था, ‘जो लोग दारुल उलूम को अपने निजी और सियासी जागीर के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं उन्होंने मुझे सात महीनों तक काम नहीं करने दिया.’
देवबंद को करीब से जानने वालों का मानना है कि वस्तानवी में कई ऐसी बातें थीं जो उन्हें अब तक चले आ रहे कुलपतियों से अलग करती थीं और परंपरावादियों को खटक रही थीं. मसलन वे पहले कुलपति थे जिनके पास एमबीए की डिग्री थी. वे उत्तर प्रदेश से बाहर के पहले कुलपति थे. पहले के अधिकतर कुलपतियों की तरह वे कभी देवबंद के छात्र नहीं रहे. इसके अलावा मुसलिम बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में उनका अपना स्वतंत्र योगदान था और वे महाराष्ट्र में लगभग दो दर्जन कॉलेज और सौ से अधिक मदरसे चलाते हैं जहां वे धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ मुसलिम बच्चों में आधुनिक शिक्षा की भी हिमायत करते हैं. इन सबको मिला कर वस्तानवी एक ऐसे शख्स के रूप में सामने आए जो देवबंद को पारंपरिक रास्ते से हटा कर एक नयी राह पर ले जा सकता था.
इसके साथ-साथ असुरक्षा की भावना भी उनकी राह का रोड़ा बनी. देवबंद पर स्थानीय मुसलिम राजनीतिक-धार्मिक नेताओं को एक बाहरी के प्रभाव में अपना प्रभुत्व घटने का खतरा सताने लगा था. दारुल उलूम पर अरसे से अपना नियंत्रण बनाए रखने वाले मदनी परिवार के लिए यह स्थिति माकूल नहीं थी. देवबंद से इस परिवार के संबंध का इतिहास लगभग एक शताब्दी पुराना है. इस संबंध की बुनियाद दारुल उलूम के संरक्षक रहे जाने-माने इस्लामी विद्वान मौलाना महमूद हसन के समय में पड़ी थी, जिनके ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष में उनके प्रमुख शिष्य हुसैन अहमद मदनी शामिल थे. इस संबंध की ओट में देवबंद मदरसे पर अपना दबदबा बढ़ाते हुए इस परिवार ने एक तरह से इस पर अपना नियंत्रण ही कायम कर लिया. इसके पीछे दो वजहें थीं. एक तो आजादी की लड़ाई में जिन्ना की मुसलिम लीग के उलट देवबंद ने राष्ट्रवादी रुख अपनाया. मुसलिम समुदाय में देवबंद की प्रतिष्ठा अंतत: राजनीतिक समर्थन के रूप में सामने आई. नतीजतन आजादी के बाद देवबंद की कांग्रेस से स्वाभाविक नजदीकी बनी. दूसरी वजह इससे होने वाली आर्थिक आय भी थी. देवबंद और मुसलिम राजनीति पर नजदीकी से नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार आतिक खान बताते हैं, ‘जिस तरह अंग्रेजों के जमाने में जमींदारों के तालुके हुआ करते थे, आज के जमाने में मदरसे ऐसे तालुके हो गए हैं. सारे देश में मुसलमानों का चाहे जो हो, लेकिन इनके मदरसे बने रहते हैं.’
पारंपरिक रूप से दारुल उलूम कांग्रेस का हिमायती रहा है. उत्तर प्रदेश में इसका लगभग एक चौथाई विधानसभा सीटों पर खासा असर है. वस्तानवी के बयान पर इतना बड़ा विवाद खड़ा हो जाने की वजह इसे भी माना जा रहा है. आने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर मदनी परिवार और दारुल उलूम के सियासी असर का फायदा उठाती रही पार्टियां नहीं चाहेंगी कि इसके शीर्ष पर एक ऐसा बाहरी आदमी बैठा रहे जो उनकी राजनीतिक गोटियों को गड़बड़ा सकता हो.
महमूद मदनी इस आरोप से इनकार करते हैं. वस्तानवी और अरशद के बीच पारिवारिक रिश्ते का हवाला देते हुए वे पूछते हैं, ‘वस्तानवी साहब अरशद मदनी के समधी हैं. वे बाहर के कहां हुए?’ इसके आगे वे कोई टिप्पणी करने से इनकार करते हुए कहते हैं, ‘मदनी परिवार और देवबंद से जुड़े बाकी के सवाल अरशद मदनी से किए जाने चाहिए जो वहां से जुड़े हुए हैं. मैं तो न देवबंद का अभी छात्र हूं न टीचर हूं न शुअरा में हूं.’
जवाब देने के लिए अरशद मदनी मौजूद नहीं हैं. वे अभी वस्तानवी को हटाए जाने के बाद उमरा (एक तरह का हज) करने गए हैं.