फरेब अगर इतिहास को उधेडऩे की कीमत पर खेला जाए तो सियासतदां को उसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए। चुनावी राजनीति में तो ऐसा करना अपने आपसे धोखाधड़ी करना है। टिकट बंटवारे में ‘फ्री हैंड’ मिलने के सवाल पर हकीकत और अफसाने के बीच अहंकार की एक बारीक विभाजक रेखा भी होती है। राजनेता अगर गफलत में रहते हैं कि इसके कौन पढ़ पाएगा? तो यह उनका दंभ ही होता है। इसका टालू जवाब देना कि, ‘टिकट बंटवारे में आरएसएस का कोई दबाव नहीं था…..हमने मुस्लिम को भी टिकट दिए हैं ! संघ की पूंछ पकड़ कर चुनावी मैदान में उतरी वसुंधरा राजे का यह जवाब क्या अबूझ पहेली नहीं है कि ‘हमने टोंक से यूनुस खान को उम्मीदवार बनाया है? क्या भाजपा की परवशता की वजह यह नहीं रही कि यहां से कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट की उम्मीदवारी रही, जबकि इस क्षेत्र में ंमुस्लिम वोटरों के पंजे ज्यादा गहरे हैं। ताकत बटोरने की कोशिश में भाजपा के इकलौते मुस्लिम उम्मीदवार की दावेदारी के लिए जोखिम तब ज्यादा बढ़ गया जब टोंक के पूर्व नवाब आफताब अली खान ने यह कहते हुए पायलट के समर्थन में बयान दे दिया कि, ‘भविष्य युवाओं का है और हम पायलट के साथ हैं। मैं मानता हूं कि मुद्दों को सुलझाने के लिए पायलट सबसे उपयुक्त प्रत्याशी है।’’ विश्लेषक कहते हेैं कि, क्या दो सौ में से केवल एक सीट पर मुस्लिम को खड़ा कर अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व काफी मान लिया जाना चाहिए?अगर नहीं तो सच यही है कि, ‘इस चुनाव में भाजपा ने हिन्दूत्व कार्ड ख्ेाला है…. ठीक यही स्थिति मध्यप्रदेश के चुनावों में रहना इस बात की तस्दीक करता है। अल्पसंख्यक समुदाय के नेता असदउद्दीन अगर यह कहते हैं तो क्या गलत कहते हैं कि, ‘हमसे सौ फीसदी वोट की उम्मीद और उम्मीदवारी सिर्फ आधा प्रतिशत?’ यहां आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत के इस कथन की क्या प्रासंगिता रह जाती है कि, ‘यदि हम मुस्लिमों को स्वीकार नहंी करते तो यह हिन्दूत्व नही है। हिन्दूत्व का अर्थ समावेशी भारतीय है।’’ लेकिन चुनावी अभियान में कट्टरता के आयाम तो इस कथन के धुर्रे उड़ा रहे हैं। इससे दीगर कांग्रेस का तरल हिन्दूत्व समझें तो कांग्रेस ने 16 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। विश्लेषक कहते हेै कि ‘क्या इसे कांग्रेस के अल्पसंख्यकवादी मोह की संज्ञा दी जानी चाहिए?, ‘क्या मानवेन्द्र सिंह को झालरापाटन से उतारने का जवाब भाजपा ने टोंक से यूनुस खान को उतार कर दिया है? इसका जवाब षडयंत्र कथा में बिंधा लगता है कि, ‘यह रणनीतिक लड़ाई है। कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति करती है, हम विकास की….? आखिर इसमें कौन से विकास का ककहरा छिपा है?
फिलहाल चुनावी रण की मौजूदा तस्वीर का मुजाहिरा करें तो, दौ सौ सीटों पर कुल 2294 प्रत्याशी आमने-सामने है। प्रदेश की 50 सीटों से ज्यादा पर दोनों ही दलों भाजपा और कांग्रेस के बड़े बागी मैदान में है। बेशक मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का दावा अपने तईं सही हो सकता है कि, ‘हमारी चुनाव समिति ने इनपुट सर्वे और जनाधार पर टिकट बांटे हैं। लेकिन बगावत और अदावत का नजारा भाजपा में क्यों ज्यादा है? भाजपा से मुंह फेरते लोगों की बढ़ती तादाद के बावजूद राजे का दो टूक जवाब है कि, ‘एंटी इन्कमबेंसी कोई मुद्दा नहीं है …।’’ लेकिन यह सबको दिखाई देता है कि,विकास के नाम पर वसुंधरा सरकार ने अगर किया तो यह किया कि, ‘हाथी की दवा चींटी को चटाई जाती रही….! हालांकि इस बार जनमत सर्वेक्षण पर पाबंदी है, लेकिन सच चोंकाता है कि, प्रदेश के लोग वसुंधरा सरकार से बेजार और गुस्से से सराबोर है। प्रदेश बदलाव की अंगड़ाई ले रहा है और भाजपा के सिक्के पर अवहेलना की गर्द गहरी और मोटी होती जा रही है।
अलबत्ता अभी तक आए सर्वे को नकारते हुए वसुंधरा राजे कहती है, हम विकास पर चुनाव लड़ रहे हैं, लिहाजा प्रचंड बहुत से सरकार बनाएगें…’’ तो इन दावों के आईने में एक प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक के चार चुनावी टेंऊड को समझना होगा। और इस बाबत ‘1998 से 2013 तक हुए चार चुनावों में दाखिल नामांकन काफी कुछ कह देते हैं। विश्लेषण के मुताबिक नामांकन की संख्या तुलनात्मक रूप से ज्यादा रहने पर कांग्रेस को फतह मिली और कम रहने पर भाजपा सत्ता में काबिज हुई। विश्लेषक मनीष शर्मा कहते हैं, ‘इस संदर्भ में 2018 को देखें तो इस बार पिछले सालों की अपेक्षा सर्वाधिक नामांकन हुआ है। क्या पांचवे चुनाव में भी यह सिलसिला कायम रहेगा? इसके लिए तो 11 दिसम्बर की प्रतीक्षा रहेगी। लेकिन रुझान तो कांग्रेस की तरफ लगता है….तो क्या यह वसुंधरा राजे की विदाई बेला है? उधर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट ने पार्टी का चुनावी घोषणा पत्र जारी करने से पहले ‘आरोप पत्र’ जारी कर वसुंधरा सरकार के तथाकथित ‘सुशासन’ के खांचों पर सीधी चोट की है। आरोप पत्र के मुताबिक प्रदेश की अर्थव्यवस्था पोखर में चली गई है। वर्ष 2013 में प्रदेश पर 1.90लाख करोड़ का कर्ज था पांच साल में बढ़कर 3.10 लाख करोड़ हो गया? विकास के दावों के ताप में बेरोजगारी का दावा झूठा निकला। मुख्यमंत्री ने 44 लाख को रोजगार देने का दावा किया, लेकिन इसमें चार की गिनती भी नजर नहीं आती। कर्ज में डूबे सौ किसानों ने आत्महत्या कर ली, लेकिन सरकार का विकास महामंथन इसे मानने को तैयार नहीं। स्वच्छ भारत का कैसा प्रचार था कि, 17 लाख लोगों को ‘टॉयलेट’ का पैसा ही नहीं मिला? भ्रष्टाचार तो चरम पर रहा। 45 हजार करोड़ का खान घोटाला करने वाले अफसर के प्रति सरकार का मोह देखिए कि उसे पदोन्नत कर दिया गया। हालांकि प्रदेश भाजपा चुनाव प्रबंधन कमेटी के संयोजक गजेन्द्र शेखावत इसे झूठ का पुलिंदा बताते हैं लेकिन गिरहबान में निगाह डाले बगैर?
वरिष्ठ पत्रकार लक्ष्मीचंद पंत कहते हैं, ‘इन दिनों राजस्थान के चुनावों में राजनीति का कोई सीधा गणित नहीं है। इसके विपरीत रणनीति का सबसे प्रभावी फार्मूला चतुराई पूर्ण दांव-पेच है।’ वसुंधरा राजे कहती है, ‘मैंने राजस्थान को बीमारू राज्य की छवि से बाहर निकाला है….तो उनके कार्यकाल में प्रदेश का कर्ज का आंकड़ा 1.90 लाख करोड़ से बढ़कर 3.10 करोड़ कैसे पहुंच गया? विश्लेषक कहते हैं कि, ”यही तो दांव-पेच है कि ‘सच पर पूरी तरह पर्दा डाल दो…। राजे का दावा है कि, ‘हम विकास पर चुनाव लड़ रहे हैं..? तो जातीय आधार पर खड़े किए गए प्रत्याशियों के आंकड़ों का क्या मतलब हुआ? यहां वरिष्ठ पत्रकार प्रताप भानु का उत्तर प्रदेश के जातीय समीकरणों का हवाला देना समीचीन होगा कि, ‘भाजपा जाति से ऊपर उठकर राजनीति करती है। खासकर जाति से ऊपर उठने के परम्परागत अर्थो में, लेकिन यह तो असहज करने वाले नतीजों से साक्षात कराता है? राजे के कथन में उनकी वैचारिक तरंगे साफ दिख रही है कि, ‘मैं जातीय राजनीति नहीं करती…. तो क्या यह उनका दोमुंहापन है? वरिष्ठ पत्रकार लक्ष्मीचंद पंत का हर सवाल इस मायने में जायज है कि, ‘राजनीति का क्या कोई नैतिक सामाजिक ढांचा है? और क्या योग्यता जनाधार और मेरिट के भी कोई मायने है? जातीय समीकरणों ने राजनीति का कबाड़ा कर दिया है। पंत कहते हैं कि, ‘राजस्थान में शायद पहली बार नए टिकटीय समीकरण देखे गए जब खोटे सिक्के भी चले, दागी- ओर अवसरवादी भी चले?’’ अलबत्ता चुनावों में युवाओं को मोका देने के मामलों में भाजपा पर कांग्रेस पूरी तरह भारी रही। पहली बार कांग्रेस ने 40 साल से कम आयु के 36 प्रत्याशियों को मैदान में उतारा। जबकि भाजपा 36 उम्मीदवारों पर ही ठिठक गई?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रविवार 25 नवम्बर से राजस्थान में चुनावी अभियान का आगाज कर रहे है। लेकिन इसके लिए अलवर का ही क्यों चुना? अलवर प्रदेश का वो शहर है जो गायों के नाम पर पिछले कई सालों से हिन्दूत्व की प्रयोगशाला बना हुआ है। वरिष्ठ पत्रकार कपिल भट्ट कहते हैं, राजस्थान में यह इलाका मेवात से जुड़ता है और गोकशी के नाम पर मॉब लीचिंग की घटनाओं के कारण यह इलाका देश भर में सुर्खियों में रहा हेै। लिहाजा अप्रत्यक्ष संकेत की लहरें क्या इस बात की तस्दीक नहीं करती कि, ‘हिन्दूत्व का सबसे बड़ा चेहरा माने जाने वालेे मोदी यहां से चुनावी अभियान शुरू कर हिन्दूत्व की राह को और पुख्ता कर रहे हैं? भट्ट कहते हैं, ‘जाहिर है कि भाजपा मेवात में हिन्दूत्व के कार्ड पर फिर से जीत का परचम फहराना चाहती है? मोदी की अलवर यात्रा को लेकर अलवर भाजपा के पूर्व जिला अध्यक्ष धर्मवीर शर्मा काफी कुछ संकेत दे जाते हैं कि, ‘मोदी जी के आने की खबर से पूरे जिले में उत्साह है ओर इसका सकारात्मक संकेत जाएगा…।’ मतलब साफ है कि, ‘भाजपा विकास के लक्ष्य पर चुनाव नहीं लड़ रही है बल्कि उसे मोदी के करिश्मे पर भरोसा है? धर्मवीर उनके आने से पांच-सात सीटों पर इजाफा होने का दावा करते है ं। लेकिन भट्ट कहते हेैं, ‘माना कि मोदी गेमचेंजर कहे जाते हें, लेकिन उसका पता तेा नतीजों में लगेगा।’ उधर कांग्रेस के बड़े नेता भंवर जितेन्द्र सिह मोदी के कथित जलवों को यह कहते हुए धूसर करते है कि, ‘उनके चुनावी वादों ने उन्हें झूठा साबित कर दिया हेै। अब यह झूठ चलने वाला नही। जनता राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनाने का मन बना चुकी है।
बहरहाल चुनावो ंमें इस बार आरएसएस पूरी तरह सक्रिय है। जयपुर में मंदिरों के मामले में नाराज संघ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के आश्वासन के बाद सक्रिय हुआ है। प्रांत स्तर पर संध की बैठकें शुरू होने के साथ ही चुनाव संचालन में संघ पदाधिकारी जुड़ गए है। सूत्रों की माने ंतो संघ की नागोर ओैर अजमेर की कुछ खास सीटों पर नजर है। संघ की नाराजगी दूर करने का मोर्चा अमित शाह को ही संभालना पड़ा। पहले जयपुर फिर भीलवाड़ा और आखिर में बीकानेर में उन्होंने संघ के पदाधिकारियेां से मुलाकात कर ंआश्वासन दिया कि उनकी नाराजगी दूर कर दी जाएगी। संघ की नाराजगी भी भाजपा ने दूर की तो आरएसएस के कुछ प्रत्याशियों को टिकट देकर। भाजपा ने किस तरह इस बार मुस्लिम प्रत्याशियों को दूर रखा और ‘हिन्दूत्व का कार्ड’ चला तो ऐसा भी संघ के दखल से ही हुआ। लेकिन सवाल है कि क्या कांग्रेस भाजपा के इस विभाजनकारी कार्ड को चलने देगी? बहरहाल यह भारतीय लोकतंत्र के सेफ्टीवाल को बंद करने की नामुराद कोशिश तो है ही?
गहलोत की नुकीली तंजकशी
कांगे्रस में तर्कवादी आक्रामक छवि अगर किसी नेता की रही है तो वे है, अशोक गहलेात। एक प्रतिष्ठित अखिल भारतीय स्तर के दैनिक के प्रादेशिक संस्करण केा दिए गए ताजा साक्षात्कार में उन्होंने इस मिथ को ध्वस्त किया है कि चुनाव में नए चेहरों को उतारना जोखिम भरा हेा सकता है। उन्होंने पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी की वैचारिकता से सुर मिलाते हुए कहा कि, ‘नई पीढ़ी आगे आनी चाहिए, महिलाएं आगे आनी चािहए। नई पीढ़ी को कोई रोक नहीं सकता। उन्होंने अनुभव और नई पीढ़ी के सामंजस्य को स्पष्ट करते हुए कहा कि, ‘हम लोग जो लंबे समय से हैं, उन्हें धीरे-धीरे जाना पड़ेगा। लेकिन इसका मतलब घर जाना नहीं पड़ेगा। हमारी जिम्मेदारियां दूसरी हो जाएंगी। वंशवाद का कांग्रेस में संस्थागत बताने के भाजपा के आरोपों को उधेड़ते हुए गहलोत कहते हैं, ‘ऐसा राजनैतिक प्रभुत्व के प्रभाव से होता तो बात होती ना? लेकिन जो बच्चे सालों से काम कर रहे हैं, इनके खानदान राजनैतिक है तो किसी को तकलीफ क्यों होनी चाहिए? उन्होंने कहा, ‘भाजपा में तो वंशवाद के लोग भरे पड़े हैं, वो खुद ही बात क्यों नहीं करते? कांग्रेस में सीएम कौन होगा? वसुंधरा की इस मामले में तंजकशी का जवाब देे हुए गहलोत की प्रखरता चोंकाती है, ‘वे हमसेे पूछते हैं, सीएम कोैन होगा? 75 दिन में खुद का अध्यक्ष तो तय नहीं कर पाए, उन्हें क्या हक है सवाल करने का?’’ गहलोत कहते हैं कि, ‘वसुंधरा राजे का अपने पार्टी का अध्यक्ष अमित शाह के साथ पांच साल तक राजनैतिक रिश्तों का रसायन पूरी तरह बिगड़ा रहा…लेकिन रुखसती के अंदेशों में शाह के आगे झुकती ही चली गई। गहलोत तंजकशी करते हेैं कि, ‘इतना झुककर अपनी माई बाप जनता को प्रणाम करती तो आज यह नोबत नहीं आती? उदयपुर के गवरी चैक की सभा में गहलोत का तंज बेहद नुकीला साबित हुआ, जब उन्होंने कहा, ‘जिस पार्टी ने मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री अैर प्रदेशाध्यक्ष बनाया, वसुंधरा उसी पार्टी की नहीं हुई तो प्रदेश की कैसे होगी?