वसुंधरा की तल्खी और बगावत से गुस्साया भाजपा नेतृत्व

राजस्थान में मचे सियासी संग्राम के तूफानी थपेड़ों के बीच जब कई अखबारों की सुॢखयों के साथ छपा कि- ‘गुस्साये भाजपा नेतृत्व ने वसुंधरा राजे को दिल्ली तलब किया’ ऐसे में राजनीतिक हलकों में सवालों का सैलाब उठना ही था। यह बात जुदा है कि राजे ने विवादों में ढलते सवालों का जवाब अपने खास अंदाज़ में दिया कि ‘कृपया संकटों के तमाम अंदेशों को मुल्तवी रखिए…।’ सौम्य मुस्कुराहट के साथ उन्होंने कहा कि नियति ने मुझे जिस ऊँचाई तक पहुँचाया है, फिलहाल उसमें कोई कटौती नहीं होने वाली है।

विश्लेषकों का कहना है कि यह सब कहते हुए राजे एक बार फिर अबूझ पहेली की तरह नज़र आयीं। लेकिन एक खामोश अहसास ज़रूर उनके चेहरे पर हावी होता नज़र आया। जानकारों का कहना है कि हाल की चन्द घटनाओं का गणित समझें तो भाजपा नेतृत्व और वसुंधरा राजे के बीच राजनीतिक टकराव की चिंगारी भडक़ चुकी है। अफवाहों का बाज़ार गर्म है कि भाजपा अध्यक्ष नड्डा और राजे के बीच आपसी मनभेद गहराया हुआ है। राजे राजनीतिक ताकत के रूप में अपनी अहमियत किस कदर गँवा चुकी है? उसका अंदाज़ा नड्डा के दो टूक लफ्ज़ों से हो जाता है कि आपको किसी सूबे का गवर्नर बना दिया जाए। अथवा आप चाहें, तो केंद्रीय राजनीति में आपको सक्रिय कर दिया जाए। विश्लेषकों का कहना है कि राजे कोई नौसिखिया राजनेता नहीं हैं। इस बात को कोई नहीं मान सकता कि राजे भाजपा की बदली हुई राजनीतिक संस्कृति न समझ पायी हों और अब तक अपने अँगूठे को ही घायल करती रही हों। वहीं वसुंधरा ने अवाम की क्या और क्या नहीं के बीच सीमा रेखा खींचते हुए कहा- ‘मैं पार्टी के हर फैसले के साथ हूँ, किन्तु स्वाभिमान से समझौता नहीं कर सकती।’ उन्होंने राजनीतिक विरोधाभास का खुलासा करते हुए कहा कि प्रदेश के कुछ नेता पदीय अधिकार मिलने के साथ ही पार्टी की रीति-नीति भूल गये हैं। क्यों हुआ ऐसा? क्या उन्हें अनुशासन का पाठ नहीं पढ़ाना चाहिए? इससे कई सवाल उठते हैं, मसलन- राजे का इशारा किसकी तरफ था? किसके तौर-तरीके सशंकित करने वाले हैं? आिखर राजे का गुस्सा किस-किस पर फूट रहा था? कांग्रेस की सियासी फिज़ाँ में भाजपा के अदृश्य दाँव-पेंच में राजे की चुप्पी का रहस्य क्या था?

हालाँकि राजे ने अपनी चुप्पी को सावन मास में पूजा-अर्चना की खातिर धौलपुर प्रवास को वजह बताया। लेकिन सूत्र कहते हैं कि राजे का अतीत इसकी पुष्टि नहीं करता। अनेक मौकों पर अपने दम-खम का परिचय दे चुकी राजे की चुप्पी ज़िम्मेदारी से दूर भागने की कहानी तो नहीं हो सकती। राजे के स्पष्टीकरण में किसी धारावाहिक से कम नाटकीयता नहीं थी। उनका हर सवाल भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया, विधानसभा में प्रतिपक्ष उपनेता राजेन्द्र सिंह राठौड़ और भाजपा के घटक दल के राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा के नागौर सांसद हनुमान बेनीवाल को कटघरे में खड़ा कर रहा था। सयासत तब और गरमा गयी, जब बेनीवाल ने राजे को सीधे निशाने पर लेेते हुए कहा कि वसुंधरा राजे गहलोत सरकार को बचाने में लगी हुई हैं। राजेे ने अपना पक्ष मज़बूती से रखते हुए कहा कि कैसी विडम्बना है कि पार्टी का बाहरी व्यक्ति, जो घटक दल के नाते पार्टी से जुड़ा है; बिना सिर-पैर का बयान दे। क्या उस पर यकीन कर लिया जाना चाहिए? क्या यह पार्टी में दरार पैदा करने की हिमाकत नहीं है? एक-दूसरे के खिलाफ गोटियाँ बिछाने का काम क्यों किया जा रहा है? कुल मिलाकर पूरे बखेड़े को सियासत और शैतानियत की जुगलबन्दी बताते हुए राजे ने प्रदेश भाजपा की कार्यशैली को ही कटघरे में खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि नीतियों की राजनीति ही सियासी दलों का सबसे बड़ा इम्तिहान होती है। लेकिन ता•ज़ुब है कि केंद्रीय नेतृत्व ने अभी तक प्रदेश संगठन की कार्यशैली की समीक्षा करने की ज़हमत ही नहीं उठायी। सूत्र कहते हैं कि बेशक कई मुद्दे राजे की दु:खती रग से जुड़े हैं; लेकिन यह तल्ख हकीकत ही कही जाएगी कि कुछ चर्बीदार नेता बेहतर रणनीतिक हैसियत हासिल करने के लिए अपनी गोटियाँ बिछाने की फिराक में थे।

विश्लेषकों का कहना है कि भले ही सतीश पूनिया, राठौड़ गुट का प्रदेश में कोई जनाधार नहीं है; लेकिन दोनों ही सत्ता परिवर्तन कराकर मुख्यमंत्री बनने की फिराक में हैं। पर क्या इस मशक्कत में भाजपा की ज़मीन खिसक रही है? अगर नहीं, तो भाजपा भी क्यों कांग्रेस की तर्ज पर विधायकों की बाड़ाबन्दी कर रही है? भाजपा ने 8 ज़िलों के 18 विधायकों की बाड़ाबन्दी करते हुए उन्हें गुजरात भेज दिया। सूत्र बताते हैं कि भाजपा ने प्रदेश संगठन की सलाह पर यह कदम उठाया है। भाजपा संगठन की इस कारगुज़ारी पर सफाई देते हुए नेता प्रतिपक्ष गुलाब चंद कटारिया का कहना है कि सरकार गिरने की स्थिति में है। ऐसे में हर तरह की तोडफ़ोड़ की कोशिश है। हम हमारे किसी भी विधायक को सरकार के प्रभाव में नहीं आने देना चाहते। इसलिए सबको सुरक्षित स्थानों पर भेजा गया है। विश्लेषक कहते हैं कि विरोध का धुआँ भाजपा में भी उठ रहा है। 18 विधायकों की इस खेप में वसुंधरा राजे के विधायक कितने हैं?

अब जबकि राजे की जवाबतलबी दुराग्रहों, तल्ख िकस्सों और मोहभंगों की रपटीली राह पर है, तो सम्भावना प्रबल होती जान पड़ती है कि उन्हें दलीय राजनीति में प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया के नेतृत्व में काम करने को कह दिया जाए। सूत्रों की मानें तो राजस्थान में जिस तरह भाजपा की संगठनात्मक गतिविधियाँ बदल रही हैं। तमाम तरह की राजनीतिक गतिविधियों पर पूनिया की पकड़ मज़बूत होती जा रही है। लेकिन राजे को इस खेल कोई तवज्जो मिल पायेगी; यह सोचना भी गलत है। विश्लेषकों का कहना है कि अपने दर्द और स्वाभिमान से इत्तिफाक रखने वाली राजे गर्दन झुका लेंगी, ऐसा सम्भव ही नहीं है। राजे को राजस्थान की राजनीति से बेदखल करना एक दु:स्वप्न तो हो सकता है; हकीकत नहीं।

खास बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पिछले साल भर से राजे से कन्नी काटे हुए हैं। अमित शाह राजे को फिर मिलने का मौका देंगे, इसके भी कोई आसार नहीं है। स्वाभिमानी राजे के पास एक ही आखरी हथियार बचा है- ‘थर्ड फ्रंट।’ यह हथियार राजे पहले भी आजमा चुकी हैं। भाजपा की तेज़तर्रार नेता वसुंधरा राजे के अवचेतन में कहीं-न-कहीं अपना असली रूप दिखाने की बेकरारी रही होगी या फिर कोई नया शिगूफा छोडऩे की भीतर से घंटी बजी होगी। पिछले दशक में हाशिये पर डाल दिये गये राजनीतिक पुरोधाओं के साथ स्नेह मिलन से तो ऐसा ही लगा था। खण्डहर होते नेताओं के सत्ता के स्वप्नीले घरों की चहारदीवारी में हुई इस रहस्यमय मुलाकात को खालिस सद्भावना भेंट तो नहीं कहा जा सकता। अलबत्ता खुद वसुंधरा का चुटीले अंदाज़ में यह कहना था कि राज को राज ही रहने दो। सुॢखयाँ में ढली इस मुलाकात के बारे में राजनीतिक विश्लेषकों का कहना था कि राजनीति और कारोबार में तिलक माथा और मौका देखकर लगाया जाता है। वसुंधरा ने भी बेगानों के माथे पर तिलक लगाने की कोशिश की, तो इसके पीछे दूरगामी राजनीतिक अनुभूति की तीव्रता थी। वसुंधरा के व्यवहार में हमेशा चक्रवर्ती होने की बात झलकती है। यही उनकी प्राण-वायु भी है। प्रदेश भाजपा के मुखिया पूनिया जिस तरह विरोध के ताप में तप रहे हैं, वसुंधरा ने वह तापमान माप लिया है। मगर पूनिया और उनके समर्थक इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि राजस्थान में वसुंधरा का मतलब ही भाजपा है।

सम्भवत: यही वजह रही कि राजनीतिक पंडितों ने एक बार फिर तीसरे मोर्चे की सम्भावनाएँ जताते हुए कहा है कि अगर बात बिगड़ी, तो हाशिये पर पड़े राजनीतिक भीष्म पितामह उनकी खातिर शर शय्या पर लेटने से इन्कार नहीं करेंगे। राजनीति के पुरोधाओं ने भी सियासत में जीवन खपाया है, इसलिए उनका अनुसरण करने वाले भी कम नहीं होंगे। सत्ता की राजनीति एक ज़बरदस्त नशा है, जिसकी मामूली खुराक भी थरथराते जिस्मों में फौलाद भर देती है।

बार-बार चुनौतियों से होना पड़ा दो-चार

वसुंधरा राजे का इतिहास खँगालें, तो कहना होगा कि उन्होंने हर मौके और मुद्दे पर अपनी बात मनवाने में कसर नहीं छोड़ी। बात ज़्यादा पुरानी नहीं है, जब तमाम दुरभिसंधियों को धता बताते हुए वसुंधरा राजे जिस तरह अपने भरोसेमंद अशोक परनामी की संगठन के अध्यक्ष पद पर दोबारा ताजपोशी करवाने में निर्णायक और सफल साबित हुईं। संगठन के शिखर पद की इस दौड़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक अलग ही चेहरा दिखायी दिया था। संघ अपनी कूटनीति के साथ फलक के दोनों सिरों की धुरी पर स्थापित था। इस अबूझ दौड़ में संघ की पहली पसन्द माने जाने वाले सतीश पूनिया थे, तो संघ पृष्ठभूमि के राज्य सभा सांसद नारायण पचारिया भी थे। यहाँ तक कि कभी राजे को गुर्राहट दिखा चुके ओंकार सिंह लाखावत भी पीछे नहीं थे; लेकिन संघ की नज़रें टेढ़ी होने के कारण खुद ही मैदान छोड़ गये। शतरंज की बिसात से पूनिया और पचारिया को इस तर्क के साथ हटा दिया गया कि इनको मौका दिये जाने पर सत्ता और संगठन के बीच दूरी बढ़ सकती थीं। इस सीनेरियो को अलग से देखें, तो संघ के कद्दावर नेता राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री वी. सतीश परनामी के नाम की घोषणा के दौरान वसुंधरा राजे के साथ थे। यहाँ तक कि कभी राजे के धुर-विरोधी रहे रामदास अग्रवाल भी इस मौके पर मौज़ूद थे। यह सतीश वही थे, जो कभी इस पटकथा के खिलाफ थे और कह चुके थे कि मुख्यमंत्री आवास को सत्ता और संगठन का साझा केंद्र नहीं होना चाहिए। जबकि राजनीतिक हलकों में उनकी प्रतिक्रिया पर हैरानी जतायी गयी थी। परनामी की ताजपोशी के मौके पर सहमति के बावजूद राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह क्यों नहीं आये? इसको लेकर राजनीतिक विश्लेषकों की प्रतिक्रिया थी कि उनकी आमद पर सम्भवत: उनका यह कथन ही उनके पाँवों की बेडिय़ाँ बन सकता था कि जिस प्रदेश में भी भाजपा सरकार है, वहाँ मुख्यमंत्री का खास समझा जाने वाला व्यक्ति प्रदेश अध्यक्ष नहीं होना चाहिए। इससे संगठन चौपट हो जाता है।

हालाँकि राजे ने अंदेशों की धुन्ध को यह कहकर साफ कर दिया कि केवल एक व्यक्ति ही परिणाम नहीं ला सकता। प्रदेश अध्यक्ष पद की खींचतान को लेकर चली बातों की बत्तीसी को उन्होंने यह कहकर बन्द कर दिया कि राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को मेरे विरुद्ध पता नहीं क्या कुछ कहा होगा? लेकिन शाह इससे विचलित नहीं हुए। उन्होंने अपना रास्ता अपनाया और अटूट विश्वास जताते हुए कहा कि बेधडक़ अपना काम करें। पार्टी को आगे ले जाने की हर सम्भव कोशिश करें। हम आपके पीछे खड़े हैं। इस हौसला अफजाई से ही अशोक परनामी को फिर से अध्यक्ष बनाया जा सका। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा राजे से नाराज़ है, क्योंकि उन्होंने राजस्थान में भाजपा की मदद न करते हुए केंद्र को भाजपा की छवि खराब होने से आगाह किया।