31 अक्टूबर 1984 को सरदार पटेल की जयंती थी और उसी समय देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का शरीर उनके ही अंग रक्षकों ने छलनी कर दिया था। अगले दो-तीन दिन में देश में 3000 से ज़्यादा सिक्खों की वीभत्स हत्या हुई। झवेर भाई पटेल के पुत्र सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म दिन मेरा भी है। मैं हमेशा इस बात से बहुत उत्साहित होता था, और यह बहुत दुखद दिन की तरह भी याद रहेगा।
उनके ऊपर नर्मदा घाटी की हत्या आरोपित कर दी गई है। संसार के बड़े पुतलों में उनका पुतला शुमार होगा मगर उनके नाम पर बने बांध से नर्मदा घाटी के हज़ारों गांव और उनके पुतले के आसपास के छह आदिवासी गांव उजड़ गए। वे अपने सरदार को याद रखेंगे मगर आज देश के सरदार ने उनके साथ धोखा किया है। सरदार पटेल की शख्सियत पूरी तरह उलटने का काम देश का सरदार ही कर रहा है।
सरदार पटेल के जीवन और जीवन चरित्र के बारे में लिखना शुरू किया जाए तो नागपुर झंडा सत्याग्रह 1923, मुंड कर का आंदोलन 1924, गुजरात बाढ़ का संकट 1927, बारडोली सत्याग्रह 1928 और इन सब में से गुजरते हुए देश के गृहमंत्री का पद संभालने की यात्रा एक असाधारण योग्यता वाले व्यक्ति का दर्शन कराती है। सैकड़ों रियासतों में बटे देश को एक सूत्र में बांधना और एक मजबूत गणतंत्र के रूप में देश को खड़ा करने में उनकी भूमिका अतुलनीय ही है।
इन सब परिपेक्ष्य में 3500 करोड़ की लोहे की उनकी मूर्ति नर्मदा घाटी के छह से ज़्यादा आदिवासी गांवों को पर्यटन के नाम पर उजाड़ कर खड़ी की गई। 31अक्टूबर को सरदार पटेल की आत्मा चीन से बन कर आई मूर्ति के आसपास होगी या सरदार सरोवर बांध से प्रभावित उजड़े लाखों आदिवासी किसानों की पीड़ा के आस पास होगी। इसमें कोई सोचने की बात नहीं जिसने अपना पूरा जीवन किसानों और देश की समृद्धि में लगाया वह अपने बड़े पुतले में तो कभी नहीं हो सकती।
मोदी जब 31 अक्तूबर को उनकी चीन से बनवाई मूर्ति का अनावरण करेंगे तब भी सरदार की आत्मा नर्मदा जिले के उन 72 आदिवासी गांव के हज़ारो घरों में ही होगी जो उस दिन विरोध दिखाते हुए चूल्हा नहीं जलाएंगे।
एक ओर सरदार सरोवर से विस्थापित प्रभावितों के पुनर्वास स्थलों तक पीने का पानी भी नहीं पहुंचा है, और दूसरी ओर ”नर्मदा” सूखा और बाढ़ के चक्र में फंसी है। साथ ही पानी रुकने से प्रदूषित होकर जलकुम्भी से ढकती जा रही है। पशुओं के शव तक तैरते पाए गए हैं। पानी पीने लायक नहीं रह गया है। नर्मदा के लोग कहते हैं कि मातेसरी की यह हालात हमें मंजूर नहीं है। सरदार सरोवर बांध के नीचे नदी सूखने से
समुंदर 80 किलोमीटर तक अन्दर आकर खेत, भूजल, नदी को खारा कर गया है। यह कैसा विकास?
लगभग 35000 परिवारों का पूर्ण पुनर्वास होना भी बाकी है। सर्वोच्च अदालत के आठ फरवरी 2017 के फैसले का भी पूर्णपालन नहीं हुआ है। महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश के पहाड़ी आदिवासियों को वनअधिकार और पुनर्वास के अधिकार आधे अधूरे मिले हैं… कईयों को घर-प्लॉट या आवास योजना का अनुदान मिलना बाकी है। पुनर्वास स्थलों पर शालाएं स्थानांतरित की गयी हैं लेकिन हजारों बच्चे मूल गांवों में हैं, जिनकी शाला छुड़वाने का काम सर्व शिक्षा अभियान का डिंडोरा पीटने वाली वर्तमान सरकार ने किया है। बिना पुनर्वास आदिवासियों के सैकड़ों घर, भी तोड़े या डूबाए गए… लेकिन 35000 परिवार मूल गांवों में आज भी हैं।
इतिहास कैसे करवट बदलता है और शूद्र राजनीति कैसे किसी महान नेता को अपने मनचाहे प्रतीक के रूप में बदलती है। सरदार वल्लभ भाई पटेल से ज़्यादा बड़ा उदाहरण देश की राजनीति में नहीं मिलता है।
यह साजिश तब शुरू हुई जब देशभर में सरदार पटेल की मूर्ति के लिए किसानों से उनके हल और अन्य काम की चीजों द्वारा लोहा इक_ा करने का अभियान शुरू किया गया। वो लोहा कहां गया? यह जांच का विषय है जो आज के देश की सरकार की बहुत सी जांचों में से एक जांच होगी।
नेहरू और पटेल के संबंधों को कटु दिखा कर ही यह संभव हो सकता है ऐसा आर एस एस ने जान लिया था। इसलिए सरदार पटेल व नेहरू की संबंधों में भ्रांतियां फैलाना उनका काम रहा है। राजीव भाई मणि भाई पटेल हिंद के सरदार किताब के अंत में लिखते है की आंतो की बिमारी से पीडि़त सरदार को जब मुंबई इलाज के लिए 12 दिसंबर 1950 को भेजा जा रहा था तो प्रधानमंत्री राष्ट्रपति सभी उनको विदा करने हवाई अड्डे पर गए थे। अलग होते समय सरदार इतना ही बोले थे जवाहर लाल के सर पर बहुत बड़ा बोझ है।
यह बात भी सरकारी फाइलों में सुरक्षित है कि नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी सुरक्षा की चिंता सरदार पटेल को कितनी थी? नेहरू की जानकारी के बिना ही प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके लिए तीन मूर्ति भवन पटेल ने ही केबिनेट नोट द्वारा पास करवाया था। प्रतीकों को छीनना उनको अपने अनुसार बदलना आरएसएस की फौज का एक लक्ष्य है। स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी न होने के कलंक को मिटाने का उनका यह एक तरीका है। सरदार पटेल के गरिमामय आदर्शों की झलक कहीं नजर नहीं आती।
गांधी के प्रति उनका आंतरिक प्रेम और सम्मान का रिश्ता समय के इन दो छोरों पर घटी घटनाओं से मालूम पड़ता है। 1928 में बारडोली सत्याग्रह अपने चरम पर था। महात्मा गांधी वहां पहुंचे पर लोगों के बहुत आग्रह पर भी गांधी ने किसी सभा में भाषण नहीं दिया। उन्होंने कहा सरदार का हुक्म है उनके सिवा कोई भाषण नहीं देगा और गांधी ने उसका पालन किया।
दूसरी बात 28 जनवरी 1948 की है। गांधी जी की सभा में बम फटा था पटेल और नेहरू बापू को समझाने गए थे कि उन्हें सुरक्षा लेनी होगी। गांधी अडिग थे उनकी सभा में आने वाले किसी भी व्यक्ति की जांच नहीं होगी। पटेल उस बूढ़े की लिए बहुत चिंतित थे क्या करें? और कैसे समझाएं? देश का गृहमंत्री कसमसा रहा था। उन्होंने नेहरू के बहुत से निर्णयों पर भी अपनी कड़ी प्रतिक्रिया दी। किंतु संसद और देश के इतिहास में यह कहीं नहीं है कि उन्होंने कांग्रेस छोड़ी या मंत्रिमंडल से अलग हुए।
वह एक परिपक्व नेता थे जो देश को आगे रखते थे और नेहरू के नेतृत्व में विश्वास भी रखते थे।
शुद्र राजनीति के निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए देश के सरदार का सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ यह स्वार्थी अन्याय न तो इतिहास माफ करेगा न ही सरदार वल्लभ भाई पटेल की आत्मा। जो देश के किसानों में बसी है।