भारत में आर्थिक असमानता की कहानी – ग़रीबों पर बोझ, अमीरों पर मेहरबानी
ऊँचे कहे जाने वाले लोगों का बोझ नीचे के लोगों को कुचल रहा है। आज ज़रूरत इस बात की है कि ऊपर के लोग नीचे दबाने वाले लोगों की पीठ से उतर जाएँ। -महात्मा गाँधी (30 जून, 1944 ई.)
आज जब हम आज़ादी के 75वें वर्ष का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, तब भारत के सम्बन्ध में ऑक्सफैम इंटरनेशनल की हालिया रिपोर्ट यह बता रही है कि भारत की 90 फ़ीसदी आबादी को 10 फ़ीसदी अमीरों का बोझ कुचल रहा है। भारत के मात्र 21 सबसे बड़े अरबपतियों के पास देश के 70 करोड़ लोगों की सम्पत्ति से भी ज़्यादा दौलत है। विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) की वार्षिक बैठक लाओस में 16 जनवरी, 2023 को सम्पन्न हुई, जिसमें ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने ‘सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट : द इंडिया स्टोरी’ शीर्षक रिपोर्ट में यह जानकारी दी।
क्या है ऑक्सफैम इंटरनेशनल?
ऑक्सफैम इंटरनेशनल लगभग 21 स्वतंत्र ग़ैर-सरकारी संगठनों का एक समूह है, जिसका गठन वर्ष 1942 में हुआ था। ऑक्सफैम भारत में आर्थिक और सामाजिक असमानता विषय पर 70 वर्षों से काम कर रही है। ऑक्सफैम का पूरा नाम ऑक्सफैम कमिटी फॉर फेमिन रिलीफ (अकाल राहत के लिए ऑक्सफोर्ड समिति) है। यह लगभग 70 देशों में काम कर रही है।
ऑक्सफैम ने अपनी रिपोर्ट में भारत में आर्थिक और सामाजिक स्तर पर असमानता की लगातार बढ़ती खाई को विस्तृत ढंग से रेखांकित किया है, जिसके लिए सरकार की नीतियों को ज़िम्मेदार ठहराया गया है। ऑक्सफैम का कहना है कि रिपोर्ट में उल्लेखित आँकड़ों और तथ्यों की पुष्टि अध्येताओं और सरकारी निकायों ने भी की है।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की 60 फ़ीसदी से ज़्यादा सम्पत्ति देश के केवल पाँच फ़ीसदी अमीर लोगों के पास है, वहीं निचले 50 फ़ीसदी लोगों के पास देश की केवल तीन फ़ीसदी सम्पत्ति है। पिछले दो वर्षों में भारत में 64 अरबपतियों का इज़ाफ़ा हुआ है और अरबपतियों की संख्या 102 से बढक़र 166 हो गयी। भारत के 100 अरबपतियों की सम्पत्ति 54.12 लाख करोड़ रुपये हो गयी है, जिससे लगभग डेढ़ साल तक देश के केंद्रीय बजट की पूर्ति की जा सकती है।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट में पिछले 10 वर्षों में देश में पैदा हुई सम्पत्ति के ग़ैर-बराबर बँटवारे को भी रेखांकित किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, सन् 2012 से सन् 2021 के बीच भारत में जितनी भी सम्पत्ति अस्तित्व में आयी, उसका 40 फ़ीसदी हिस्सा देश के सबसे अमीर एक फ़ीसदी लोगों के हाथ में गया, जबकि 50 फ़ीसदी जनता के हाथ में केवल तीन फ़ीसदी सम्पत्ति ही आयी।
यह वाक़ई भारत सरकार के आर्थिक स्थिरीकरण के नीतियों पर प्रश्नचिह्न लगाता है, जिसमें अमीर अधिक अमीर हो रहे हैं और ग़रीबों को जीवित रहने के लिए अपनी ज़रूरी खपत को कम करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि सन् 1980 के दशक भारत के टॉप एक फ़ीसदी के हाथों में देश की कुल आय का 6 फ़ीसदी हुआ करता था, आज यह 40 फ़ीसदी से भी ज़्यादा हो चुका है। जाति, धर्म, क्षेत्रीयता और लिंग के आधार पर बँटे भारत में आर्थिक असमानता बहुत ज़्यादा चिन्ता का विषय होना चाहिए। ऑक्सफैम की रिपोर्ट पर सरकार ने कोई टिप्पणी नहीं की है; लेकिन विपक्ष हमलावर हो गया। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने ट्वीट कर सरकार को घेरा- ‘भाजपा ने आर्थिक असमानता की खाई को इतना गहरा कर दिया है कि देश का आम इंसान उसमें धँसता जा रहा है। भारत में सबसे अमीर एक फ़ीसदी लोगों के पास देश की कुल सम्पत्ति का 40 फ़ीसदी से ज़्यादा हिस्सा है, जबकि आधी आबादी के पास तीन फ़ीसदी ही हिस्सा बचा है! भारत जोड़ो आन्दोलन आर्थिक असमानता की खाई को भरने का आन्दोलन है।’
वहीं कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी ने कहा- ‘भारत जोड़ो यात्रा सरकार की उन नीतियों के ख़िलाफ़ लोगों की आवाज़ है, जिनसे ग़रीबी बढ़ी है।’ संप्रग ने 20 करोड़ से ज़्यादा लोगों को ग़रीबी से निकाला। प्रधानमंत्री की ग़रीबी बढ़ाओ नीतियों ने उन्हें फिर ग़रीबी में धकेल दिया। मोदी सरकार केवल मुट्ठी भर लोगों के लिए काम कर रही है। भारत जोड़ो यात्रा इन नीतियों के ख़िलाफ़ देश की हुंकार है।’
प्रतिगामी कर प्रणाली
ऑक्सफैम का मानना है कि आर्थिक असमानता तेज़ी से बढऩे के लिए प्रतिगामी कर प्रणाली मुख्य रूप से ज़िम्मेदार है। इस कर प्रणाली में ग़रीब आदमी अधिक टैक्स दे रहा है, जबकि अमीरों से कम टैक्स लिया जा रहा है। 2021-22 में जीएसटी से भारत सरकार ने 14.83 लाख करोड़ रुपये अर्जित किये हैं, जिसमें 64 फ़ीसदी हिस्सा 50 फ़ीसदी सबसे ग़रीब लोगों का है, जबकि मात्र तीन फ़ीसदी हिस्सा 10 फ़ीसदी सबसे अमीर लोगों का है।
सरकार द्वारा उद्योगों को कॉरपोरेट कर के रूप में लगभग 1.5 लाख करोड़ रुपये से 2,00,000 करोड़ रुपये छूट मिलने के पश्चात् उद्योगों ने लोगों को रोज़गार देने के बजाय इस छूट की राशि को आसानी से अपनी जेब में ले लिया, नतीजतन प्रत्यक्ष करों में 5 फ़ीसदी की गिरावट आयी और राजकीय ख़र्च की निर्भरता कॉरपोरेट्स से आयकरदाताओं पर और अप्रत्यक्ष करों पर आ गया। अप्रत्यक्ष कर जैसे जीएसटी और ईंधन कर की बढ़ोतरी से हाशिये के लोगों पर अधिक बोझ पड़ा और ग़रीबों को जीवित रहने के लिए अपनी ज़रूरी खपत को कम करने को मजबूर होना पड़ा, जिससे वे भुखमरी, बेरोज़गारी, महँगाई और स्वास्थ्य आपदाओं का सामना कर रहे हैं। पिछले वर्ष 2021-22 में कॉरपोरेट्स ने रिकॉर्ड 70 फ़ीसदी मुनाफ़ा दर्ज किया, जबकि 84 फ़ीसदी परिवारों की आय में गिरावट आयी।
भेदभाव से बढ़ रही असमानता
वर्ष 1971 के बाद से ही विश्व के अधिकतर देशों में राष्ट्रीय आय में मज़दूरों का योगदान लगातार घटा है, जबकि इसी दौरान मज़दूरों की उत्पादक क्षमता से अमीरों की आय तेज़ी से बढ़ी है। अमीर-ग़रीब असमानता का यह प्रमुख कारण है। लेकिन भारत में इस असमानता के पीछे पूँजीवाद के साथ-साथ भारतीय सामाज का सदियों से शास्त्रगत धार्मिक ढाँचे में रहना भी एक प्रमुख कारण है, जिसके कारण बड़ी आबादी को जातिभेद और अस्पृश्यता का दंश झेलना पड़ा तथा व्यापार करने, शिक्षा ग्रहण करने के अधिकार से वंचित होना पड़ा।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में अभी भी दुनिया के सबसे ज़्यादा 22.89 करोड़ ग़रीब हैं। विरासती सम्पत्ति प्राप्त तथा विशेषाधिकार प्राप्त जातियों से आने वाले सबसे धनी अभिजात वर्ग का नीति निर्माण, शक्ति के केंद्रों और राजनीति पर अनुचित प्रभाव है, जो उन्हें और भी अधिक सम्पत्ति अर्जित करने का मार्ग प्रशस्त करता है। जबकि ऐतिहासिक रूप अस्पृश्य और हाशिये पर धकेले गये लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी ग़रीबी में फँसे हुए हैं। भौतिक दूरस्थता से पीडि़त अनुसूचित जनजाति वर्ग सबसे ज़्यादा ग़रीब है। भारत में अमीर और ग़रीब के बीच स्पष्ट वर्ग अंतर से परे, लिंग, जाति और भौगोलिक स्तरों पर पर्याप्त आय असमानता बनी हुई है।
नतीजतन महिला श्रम को पुरुष श्रम से 37 फ़ीसदी कम वेतन मिलता है, उसी तरह दलित श्रमिक को सवर्ण श्रमिक से 45 फ़ीसदी कम वेतन मिलता है। लैंगिक हाशियाकरण की शिकार महिलाओं एवं थर्ड जेंडरों को समाज में भूमिका स्थापित करने के लिए दोहरी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। थर्ड जेंडर और घुमंतू जातियों / जनजातियों को काम नहीं मिलता है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम जैसे क़ानून के बावजूद आज भी अधिकतर महिलाओं को विरासत की सम्पत्ति से वंचित रखा जाता है। ग़रीब महिलाओं, विशेष रूप से हाशिये की जातियों को अक्सर ऐसे काम में लगाया जाता है, जिसमें सम्मान की कमी होती है और जो अमानवीय है। उदाहरण के लिए मैला ढोने के अपमानजनक व्यवसाय में धकेले जाने वाले लोगों में दलित महिलाओं की एक बड़ी संख्या है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की हाल की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में कुल बेरोज़गारों की संख्या पाँच करोड़ पार कर चुकी है। एनसीआरबी की सन् 2021 रिपोर्ट के अनुसार भारत में 115 दिहाड़ी मज़दूर प्रति दिन आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। साल भर में 41,975 दिहाड़ी मज़दूर अपने उन हाथों से अपना ही गला घोटने पर मजबूर कर दिये गये जिन्हें अपने हाथों से इस दुनिया को ख़ूबसूरत बनाना था। भारत किसानों की आत्महत्या के मामले में अच्छा-ख़ासा नाम कमा चुका है। भारत बढ़ती ग़रीबी और एक सम्पन्न अभिजात वर्ग के साथ दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक है। इस दुष्चक्र को तोड़े बिना आर्थिक असमानता को ख़त्म करना मुश्किल होगा।
जनहित कार्यक्रमों के बजट में कटौती
सरकार ने आर्थिक-सामाजिक असमानता दूर करने वाले संवैधानिक प्रावधानों को धता बताकर उचित शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढाँचा प्रणाली तथा सामाजिक न्याय के उद्देश्यों से जुड़ी योजनाओं के बजटीय आवंटन में कठोरतापूर्वक लगातार कटौती की है।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार, बच्चों की शिक्षा के लिए बजटीय आवंटन को देखें, तो यह 2017-18 के 3.30 फ़ीसदी से घटकर 2022-23 के बजट अनुमान में 2.35 फ़ीसदी हो गया है। 2021-22 में कक्षा 1 से 8 तक जाने वाले छोटे बच्चों की ड्रॉपआउट दर लगभग दोगुनी हो गयी है और हाशिये के तब$के के बच्चों के लिए दर अधिक है, ख़ासकर माध्यमिक शिक्षा स्तर पर। बस्ती के 5 किलोमीटर के दायरे में माध्यमिक विद्यालयों की अनुपलब्धता के कारण लड़कियों के लिए विद्यालय जाना वास्तव में कठिन हो जाता है। हाल के एक भाषण में, केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि 15 करोड़ बच्चें स्कूली शिक्षा हासिल करने से वंचित हैं। ड्रॉपआउट की उच्च दर और स्कूली बच्चों की भारी संख्या के बावजूद, पिछले 10 वर्षों में माध्यमिक शिक्षा पर सरकारी व्यय बिना किसी बढ़ोतरी के सकल घरेलू उत्पाद के एक फ़ीसदी पर स्थिर है। देश में स्कूलों में कुल 19 फ़ीसदी शिक्षकों के पद ख़ाली हैं। इनमें से 69 फ़ीसदी रिक्तियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। प्राथमिक विद्यालय में ही 837592 पद रिक्त हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की मार्च 2022 की रिपोर्ट के अनुमानों के अनुसार, स्वास्थ्य पर उच्च ओओपी व्यय (लोगों के जेब से ख़र्च) हर साल लगभग 5.5 करोड़ भारतीयों को ग़रीब बना रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय परिवारों ने ओओपी व्यय के तहत स्वास्थ्य सेवाओं पर 2,87,573 करोड़ रुपये ख़र्च किये, जो कुल स्वास्थ्य व्यय का एक बड़ा हिस्सा है और सरकार के स्वास्थ्य बजट से लगभग 45,000 करोड़ रुपये अधिक है। भारतीय अपने चिकित्सा व्यय का 63 फ़ीसदी ओओपी देते हैं, जो विश्व में सबसे अधिक माना जाता है।
ऑक्सफैम रिपोर्ट के अनुसार, भारत सबसे कम सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ख़र्च वाले देशों में शामिल है। 2020-21 के अनुमानों से पता चलता है कि जीडीपी के फ़ीसदी के रूप में सरकारी स्वास्थ्य व्यय 2.1 फ़ीसदी है, जो नीतिगत बेंचमार्क 2.5 फ़ीसदी और वैश्विक औसत 6 फ़ीसदी से बहुत कम है। यह कम बजट व्यय न केवल भारत में समग्र स्वास्थ्य की निम्न स्थिति में बल्कि विभिन्न आर्थिक और सामाजिक समूहों में स्वास्थ्य सम्बन्धी असमानताओं को प्रकट करता है।
हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि जाति और जीवन प्रत्याशा भी गहन रूप से जुड़े हुए हैं। उच्च जाति की महिला की तुलना में औसत दलित महिला की मृत्यु 14.6 वर्ष पहले हो जाती है। भारत में आदिवासियों की जीवन प्रत्याशा भी ग़ैर-आदिवासी आबादी की तुलना में लगभग तीन वर्ष कम है। रिपोर्ट में बताया गया है कि देश की 75 फ़ीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है; लेकिन 31.5 फ़ीसदी अस्पताल ही वहाँ उपलब्ध हैं, और वहाँ के सिर्फ़ 16 फ़ीसदी अस्पतालों में बिस्तर है। ग्रामीण क्षेत्रों के 21.8 फ़ीसदी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टर नहीं हैं, जबकि 67.96 फ़ीसदी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं हैं। स्वास्थ्य सेवा में कम बजट आवंटन का विभिन्न स्तरों पर प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए भारत में बाल कुपोषण का एक बड़ा बोझ है। भारत में पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु के लिए कुपोषण को प्रमुख जोखिम कारक पाया गया है। यह निराशाजनक है कि देश में लगभग 42 फ़ीसदी जनजातीय बच्चे कुपोषित हैं। भारत में जनजातीय स्वास्थ्य पर सरकार की समिति के अनुसार, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जनजातीय स्वास्थ्य देखभाल के लिए प्रति व्यक्ति व्यय को बढ़ाकर 2447 रुपये किया जाना चाहिए। नवीनतम राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण ने पुष्टि की है कि भारत में 33 लाख से अधिक बच्चे कुपोषित हैं, जिनमें 17.7 लाख गम्भीर रूप से कुपोषित हैं। हालाँकि ग़ैर-सरकारी संगठनों का अनुमान सरकारी अनुमान से बहुत अधिक है।
महँगाई अनियंत्रित
अनियंत्रित महँगाई के कारण भारत में ग़रीब अपने आवश्यक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए संघर्षरत हैं। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार, अक्टूबर 2021 में पेट्रोल की क़ीमत में 54 फ़ीसदी टैक्स था, जबकि डीजल में 49 फ़ीसदी, जिससे आवश्यक वस्तुएँ असमान रूप से महँगी हो गयीं, जो ग़रीबों और वंचितों के लिए अभिशाप बन गया।
ऑक्सफैम रिपोर्ट के अनुसार, महँगाई बढऩे से अमीरों की तुलना में ग़रीबों पर अपेक्षाकृत अधिक वित्तीय बोझ होता है, जिसके परिणामस्वरूप समाज का ध्रुवीकरण होता है, अमीर अधिक अमीर हो जाते हैं और ग़रीब अधिक शक्तिहीन हो जाते हैं। धन की कमी के कारण 70 फ़ीसदी भारतीय संतुलित आहार नहीं ले पाते, पोषण-रहित आहार लेने से बीमार होने के कारण हर साल 17 लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है। देश का औसत वेतन केवल बुनियादी जीविका प्रदान करने के लिए पर्याप्त है और एक सप्ताह की आय खोने से अधिकतर आबादी भुखमरी की कगार पर चली जाती है। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश की सहरिया जनजाति, जो पहले से ही गम्भीर कुपोषण से ग्रस्त है; वस्तुओं की क़ीमतों में लगातार वृद्धि के कारण बेहद कमज़ोर हो गयी है।
आर्थिक असमानता से कैसे लड़ें?
हमारे राष्ट्र निर्माता आंबेडकर, गाँधी, नेहरू देश की ग़रीबी के प्रति सचेत थे। आज़ादी के समय से ही वे जानते थे कि अगर देश में ग़रीबी अपनी जड़ें जमाये रही, तो भारत एक ख़ुशहाल देश कभी नहीं बन पाएगा और इस तरह आज़ादी का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। इसीलिए उन्होंने संवैधानिक प्रावधानों के ज़रिये आर्थिक-सामाजिक असमानता दूर करने के उपाय किये। आंबेडकर मानते थे कि ग़रीबी ईश्वरीय प्रकोप नहीं है, सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों द्वारा ग़रीबी का अन्त सम्भव है। गुन्नार मिर्डल, अमत्र्य सेन और अभिजीत बनर्जी जैसे अर्थशास्त्रियों का भी मानना है कि राजकीय प्रयासों से ग़रीबी हटाया जा सकता है।
ऑक्सफैम का मानना है कि यदि सरकार आर्थिक असमानता को कम करना चाहती है तो प्रतिगामी कर प्रणाली को बदलना होगा। सबसे अमीर एक फ़ीसदी की सम्पत्ति पर अधिक कर लगाना होगा, क्योंकि सबसे धनी अभिजात वर्ग का नीति निर्माण और राजनीति पर अनुचित प्रभाव है, जो उन्हें और भी अधिक सम्पत्ति अर्जित करने का मार्ग प्रशस्त करता है। इस दुष्चक्र को तोडऩे के लिए सबसे अमीर एक फ़ीसदी अमीरों की शुद्ध सम्पत्ति पर अलग से कर लगाने से देश के शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण जैसे कार्यक्रमों को निर्बाध रूप से संचालित किया जा सकता है। साथ ही आवश्यक वस्तुओं एवं ईंधन पर जीएसटी और वैट जैसे अप्रत्यक्ष करों को कम करना होगा, ताकि ग़रीबों और वंचितों पर कर का बोझ कम हो सके।
ऑक्सफैम के अनुसार, भारत सरकार को स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं को सार्वभौमिक बनाने के लिए जीडीपी का 3.8 फ़ीसदी (5.5 लाख करोड़ रुपये) ख़र्च करने की आवश्यकता है। शीर्ष 100 भारतीय अरबपतियों पर 10 फ़ीसदी कर लगाने से यह राशि पूरी हो जाएगी। भारत के शीर्ष 10 अरबपतियों पर 5 फ़ीसदी कर लगाने से पाँच वर्षों के लिए जनजातीय स्वास्थ्य देखभाल की पूरी लागत को कवर करने में मदद मिलेगी। वित्त वर्ष 2022-23 में समग्र शिक्षा के लिए फंड 2021-22 में शिक्षा मंत्रालय द्वारा माँगी गयी राशि (58,585 करोड़ रुपये) की तुलना में बहुत कम (37,383 करोड़ रुपये) था। सबसे धनी 10 अरबपतियों पर एक फ़ीसदी कर लगाना इस कमी को 1.3 वर्षों के लिए पूरा करने के लिए पर्याप्त होगा। केवल एक अरबपति, गौतम अडानी पर 2017-2021 के बीच एकमुश्त कर लगाकर 1.79 लाख करोड़ रुपये जुटाया जा सकता था, जो प्राथमिक विद्यालयों के 50 लाख से अधिक शिक्षकों को एक वर्ष के लिए तनख़्वाह देने के लिए पर्याप्त था।
इधर हिंडनबर्ग ने एक ट्वीट में लिखा है कि अडानी ने हमारे द्वारा उठाये गये एक भी मुद्दे को सम्बोधित नहीं किया है, हमने उनसे 88 सवाल पूछे थे, जिसमें से एक का भी जवाब अडानी ग्रुप ने नहीं दिया है। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के बाद भारत में अडानी की सात सूचीबद्ध समूह कम्पनियों के निवेशकों का दो ही दिन में लाखों करोड़ का नुक़सान हुआ, जो लगातार हो रहा है। लेकिन फिर भी अडानी ग्रुप कह रहा है कि अमेरिकी निवेश फर्म की रिपोर्ट दुर्भावनापूर्ण और चुनिंदा ग़लत जानकारी पेश कर रही है। इस बयान पर हिंडलबर्ग ने अडानी ग्रुप को यूएस कोर्ट में आने की चुनौती दी है।
अतीत में आर्थिक असमानता और बेरोज़गारी को दूर करने के लिए अमेरिका में ऐसा क़दम उठाया जा चुका है, जब अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने पूँजीपतियों के शुद्ध आय पर कुल 94 फ़ीसदी का कर लगा दिया। और इस राशि से बेरोज़गारों को रोज़गार देने तथा असमानता ख़त्म करने वाले कार्यक्रम चलाने में ख़र्च किया गया, जिसका आगे चलकर सकारात्मक परिणाम देखने को मिले।
(लेखक सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ता हैं।)