आज के हालात पर नजऱ डालें तो यह लगता है कि देश में सांप्रदायिक घृणा बढ़ रही है। राजनेताओं के लिए धर्म की राजनीति काफी मुफीद साबित हो रही है। संविधान में लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के बावजूद राजनेता अपनी या अपने सिद्धांतों की आलोचना को सहन नहीं कर पाते। पश्चिम बंगाल में एक कार्टून बनाने पर एक कलाकार को जेल भेज दिया जाता है। पत्रकारों की कलम रोकने के लिए गौरी लंकेश जैसी पत्रकार को गोली मार दी जाती है। हालात यहां तक खराब हो चुके हैं कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है का नारा खोखला साबित होने लगा है। उत्तर भारत के लोगों पर मुंबई में हमले होते हैं। एक खास धर्म के लोगों को भीड़ अक्सर निशाने बनाती है। विश्वविद्यालयों में डर का वातावरण बनता जा रहा है। ‘भीड़तंत्र’ को मज़बूती मिल रही है। यह एक हथियार है जिसका इस्तेमाल आमतौर पर सत्ता पक्ष लोगों को आपस में बाटने और अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए सफलता पूर्वक करता रहता है।
ऐसे हालात देश में पहली बार पैदा नहीं हुए हैं। आज़ादी से पूर्व भी अंग्रेज ऐसे हालात पैदा करते थे। यदि हम 1928 में ‘किरती’ में छपे अमर शहीद भगत सिंह के लेख पर नजऱ डालें तो स्थिति काफी स्पष्ट हो जाती है।
संाप्रदायिकता की इस समस्या के हल के लिए क्रांतिकारी आंदोलन ने अपने विचार पेश किए। जून 1928 में ‘किरती’ में छपा यह लेख उस समय के हालात और उसके हल की बात करता है। इस लेख में भगत सिंह ने लिखा-
1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का खूब प्रचार किया। इस असर से राष्ट्रीय-राजनैतिक चेतना में सांप्रदायिक दंगों पर लंबी बहसें चली। दंगों को समाप्त करने की ज़रूरत सबने महसूस की और कांग्रेसी नेताओं ने हिंदू-मुस्लिम नेताओं में सुलहनामा लिखवाकर दंगों को रोकने जैसे यत्न किए।
इस समस्या के निश्चित हल के लिए क्रांतिकारी आंदोलन ने अपने विचार प्रस्तुत किये। भगत सिंह का यह लेख जून 1928 के किरती में छपा।
भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहंी छोड़ी है। यह मार काट इसलिए नहीं की गई कि फलां आदमी दोषी है, वरन् इसलिए कि फलां आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिंदू होना मुसलमानों के द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।
ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजऱ आता है। इन धर्मों ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि ये धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दगों ने संसार की नजऱों में भारत को बदनाम कर दिया है और हमने देखा है कि अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई विरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठंडा रखता है, बाकी डण्डे-लाठियां, तलवारें-छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सिर फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी बचे तो कुछ फांसी पर चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं, तथा रक्तपात होने पर धर्मजनों पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने पर आ जाता है।
जहां तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वहीं जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा अपने सिर पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज-स्वराज’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वहीं या तो अपने सिर छुपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धाता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठनेवालों की संख्या भी कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आंदोलन में जा मिले हैं, वैसे तो ज़मीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं, और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, वे अखबार वाले हैं।
पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था, आज बहुत ही गंदा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरूद्ध बढ़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनायें भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं, ऐसे लेखक जिनके दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत हों, बहुत कम हैं।
अखबारों का असली कत्र्तव्य शिक्षा देना, लोगों की संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावना हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की सांझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कत्र्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई झगड़े करवाना और भारत की सांझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों में खून के आंसू बहने लगते हैं और दिल से सवाल उठता है कि ”भारत का बनेगा क्या?”
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहां थे वे दिन कि स्वतंत्रता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहां आज यह दिन कि स्वराज एक सपना मात्र बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। वहीं नौकरशाही- जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था कि आज गई कल गई – आज अपनी जड़ें इतनी मज़बूत कर चुकी है कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियां दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गई थी। असहयोग आंदोलन के धीमा पडऩे पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया, जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये हैं। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल ज़रूर होता है। कार्ल माक्र्स के तीन बड़े सिद्धांतों में से यह एक मुख्य सिद्धांत है। इसी सिद्धांत के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णीय है।
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है, क्योंकि भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को चवन्नी देकर किसी और को भी अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धांतों को ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता।
लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती, इसलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिए और जब तब सरकार न बदल जाए, चैन की संास न लेनी चाहिए।
लोगों को परस्पर लडऩे से रोकने के लिए वर्गचेतना की ज़रूरत है। गरीब मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा लेना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वह किसी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता और देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि ज़ार के समय वहां भी ऐसी ही स्थितियां थीं, वहां भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहां श्रमिक-शासन हुआ है वहां नक्शा ही बदल गया है। अब वहां कभी दंगे नहीं हुए। अब वहां सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। ज़ार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत खराब थी, इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे। लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गई है और उनमें वर्गचेतना आ गई है, इसलिए अब वहां से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आती।
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हंै, लेकिन कलकत्ते के दंगे में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आई। वह यह कि वहां दंगों में ट्रेड यूनियनों के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया है और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्गचेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, वे साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।
यह खुशी का समाचार हमारे कानों में मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लडऩा व घृणा कराना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं और उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजऱ से हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहरा है और भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए, बल्कि तैयार-बर-तैयार हो यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने ताकि दंगे हों।
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसना चाहिए, क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आंदोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिन्दू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं, जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुंदर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।
यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इक_े हो सकते हैं। धर्मों में चाहे हम अलग-अलग ही रहें।
हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर ज़रूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमें बचा लेंगे।
मज़हबी वातावरण पर भगत सिंह की लेखनी का समर्थन आज भी लोग कर रहे हैं। पंजाबी के एक प्रोफेसर पीआर थापर का कहना है कि भगत सिंह का लेख आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि देश की आर्थिक व्यवस्था में कोई मौलिक बदलाव नहीं आया है। इस कारण जो सामाजिक और आर्थिक ढांचा अंग्रेजों ने तैयार किया था, आज़ादी के बाद सरकार ने उसी को अपना लिया।
पंजाबी के मशहूर लेखक और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित नछत्तर सिंह का कहना है कि भगत सिंह की सोच को अपनाने की आज उस समय से भी ज़्यादा ज़रूरत है। उस समय अंग्रेज थे जो बाहरी लोग थे और लोगों को साफ दिखते थे। आज गऱीबों का शोषण करने वाले हमारे बीच में बैठे हैं। युवाओं को नशे की और धकेला जा रहा है। नछत्तर सिंह का कहना है कि लोगों को विशेष तौर पर युवाओं को सीधे रास्ते पर लाने के लिए उनमें वर्ग चेतना को जगाना ज़रूरी है। भगत सिंह ने वर्ग चेतना जगाने पर ज़ोर दिया है जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना अंग्रेजों के समय था। नछत्तर सिंह का मानना है कि यदि लोगों में वर्ग चेतना आ जाएगी तो सांप्रदायिक दंगे और मार काट स्वंय ही बंद हो जाएगी।