वफ़ादार को ताज! थरूर के मुक़ाबले कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव में खडग़े का हाथ ऊपर

कांग्रेस में लम्बी कसरत और उठापटक के बाद आख़िर अध्यक्ष के चुनाव की तस्वीर साफ़ हो गयी है। ग़ैर-गाँधी के इस चुनाव में शशि थरूर और मल्लिकार्जुन खडग़े में टक्कर है, और हालात साफ़ संकेत कर रहे हैं कि कोई उलटफेर नहीं हुआ, तो अनुभवी और गाँधी परिवार के क़रीबी खडग़े कांग्रेस के अगले अध्यक्ष होंगे। जीतने पर जगजीवम राम के बाद वह कांग्रेस के दूसरे दलित अध्यक्ष होंगे। भले ग़ैर-गाँधी अध्यक्ष बने, खडग़े को गाँधी परिवार का ही प्रतिनिधि माना जाएगा। बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

यह संयोग ही था कि जिस दिन राहुल गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा शशि थरूर के गृह राज्य केरल से मल्लिकार्जुन खडग़े के गृह राज्य कर्नाटक पहुँची, दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए ख़ुद को पीछे कर खडग़े के नाम का समर्थन कर दिया। खडग़े और थरूर दोनों ने ही अध्यक्ष पद के लिए नामांकन दाख़िल किये हैं और साफ़ दिख रहा है कि गाँधी परिवार के वफ़ादार के रूप में खडग़े का कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना लगभग तय है। सन् 1998 में जब सोनिया गाँधी पार्टी की अध्यक्ष बनीं, उसके बाद खडग़े, (यदि चुने गये तो) पहले ग़ैर-गाँधी कांग्रेस अध्यक्ष होंगे। इससे पहले सीताराम केसरी गाँधी परिवार से बाहर के अध्यक्ष थे। यह भी हो सकता है कि नेताओं के आग्रह को मानते हुए थरूर नाम वापस ले लें और खडग़े को सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने जाने का रास्ता साफ़ कर दें।

खडग़े के रूप में 10 जनपथ ने एक तीर से कई निशाने साध लिये हैं। सबसे बड़ा यह कि राजनीतिक विरोधी भाजपा को चुप कराने के लिए अध्यक्ष पद परिवार से बाहर के व्यक्ति को दे दिया है। हालाँकि यह भी तय है कि भाजपा का हमला फिर भी भविष्य में गाँधी परिवार पर ही सीमित रहेगा। दूसरे, एक वफ़ादार को पार्टी अध्यक्ष बनाकर सन्देश दे दिया कि वफ़ादारी का पुरुस्कार मिलता ही है। भले खडग़े ज़मीन से उठकर आये नेता हों और उनका संसदीय और राजनीतिक अनुभव किसी भी नेता के मुक़ाबले काफ़ी हो, वह कहलाएँगे गाँधी परिवार के वफ़ादार ही।

उधर खडग़े के मुक़ाबले उतरे थरूर को गाँधी परिवार का वफ़ादार नहीं कहा जा सकता और वह जी-23 में भी रहे हैं। कोई सन्देह नहीं कि थरूर भले मैदान में उतरे हैं, वह ख़ुद कह चुके हैं कि भले दोस्ताना मुक़ाबले के लिए ही सही, वह चुनाव लड़ रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष पद की दौड़ में एक नामांकन के.एन. त्रिपाठी ने भी भरा है। हालाँकि न उनके जीतने की कोई उम्मीद है, और न ही उनका चर्चा है। लिहाज़ा प्रमुख रूप से खडग़े और थरूर ही मैदान में हैं।


राजस्थान का घटनाक्रम

राजस्थान की घटना के बाद ही खडग़े का नाम तय हुआ। पार्टी आलाकमान के भेजे दूतों के सामने पार्टी के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थक विधायकों ने जैसा व्यवहार किया उसने एक समय तय मानी जा रही गहलोत की कांग्रेस अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के रास्ते में रोड़ा अटका दिया। जब यह सारा घटनाक्रम हुआ और सोनिया गाँधी के इस घटना के प्रति नाराज़गी की बात सामने आयी, तो गहलोत दिल्ली दौड़े। यह माना जाता है कि उन्होंने फोन पर गाँधी से इस घटनाक्रम पर माफ़ी माँगी और कहा कि इसमें उनकी कोई भूमिका नहीं थी।

इसके बाद देर रात सोनिया गाँधी और प्रियंका गाँधी के बीच नये अध्यक्ष को लेकर चर्चा हुई, जिसमें खडग़े का नाम तय हुआ। हालाँकि इस बीच मध्य प्रदेश के दिग्गज और दो बार मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह ने भी कहा कि वे अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ेंगे। लेकिन नामांकन के आख़िरी दिन उन्होंने ख़ुद को पीछे करके खडग़े के नाम का समर्थन कर दिया, जो स्वाभाविक रूप से गाँधी परिवार की पसन्द बन चुके थे।

देखें, तो कांग्रेस में जगजीवन राम के बाद कोई भी दलित पार्टी का अध्यक्ष नहीं बना है। जगजीवन राम 1970-71 में कांग्रेस के अध्यक्ष थे। याद रहे, इसी साल जुलाई में जब ईडी ने सोनिया-राहुल को नेशनल हेराल्ड मामले में पूछताछ के लिए अपने दफ़्तर बुलाया था, उस समय संसद में विरोध का मोर्चा खडग़े ने ही सँभाला था। खडग़े के नामांकन में जिस तरह कांग्रेस के तमाम बड़े जुटे उससे ज़ाहिर हो जाता है कि गाँधी परिवार उनके साथ है। आनंद शर्मा जैसे नेता, जो हाल के महीनों में गाँधी परिवार को लेकर विपरीत विचार रखते रहे हैं; भी इस मौक़े पर उपस्थित थे। इसी तरह महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वी राज चव्हाण ने इस मौक़े पर कहा कि उन्हें जी-23 का नाम मीडिया ने दिया और वह कभी भी पार्टी से बाहर नहीं थे। वह सिर्फ़ पार्टी की बेहतरी की बात कर रहे थे। इसके विपरीत थरूर के साथ कोई बड़ा नेता नहीं था। यहाँ तक कि उन्हें अपने गृह राज्य केरल से भी समर्थन नहीं मिल पाया।

गहलोत और पायलट का भविष्य

कांग्रेस में अब इन दोनों नेताओं के भविष्य की बड़ी चर्चा है। राजस्थान के घटनाक्रम के बाद दोनों दिल्ली में पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी से मिले और अपनी अपनी बात उनके सामने रखी। मुलाक़ात के बाद गहलोत के चेहरे और पायलट के चेहरे की भाषा से समझा जा सकता है कि गहलोत को राजस्थान की घटना से ख़ुद पर अफ़सोस है और वह महसूस करते हैं कि उनसे बड़ी ग़लती हो गयी। नहीं भूलना चाहिए कि राजस्थान की घटना से पहले गहलोत ख़ुद कह चुके थे कि वह कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे हैं।

यह साफ़ है कि देर-सबेर सचिन पायलट राजस्थान में कांग्रेस की सूबेदारी सँभालेंगे। गहलोत कब तक मुख्यमंत्री रहेंगे, कहना मुश्किल है। पार्टी के संगठन मंत्री केसी वेणुगोपाल का यह बयान नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी कुछ दिन में राजस्थान के मुख्यमंत्री को लेकर फ़ैसला करेंगी। इस बयान का कोई अर्थ निकाला जाए, तो यही है कि गहलोत की कुर्सी को लेकर कोई फ़ैसला पार्टी कर सकती है। अर्थात् उनकी कुर्सी जाने का ख़तरा भी मँडरा रहा है।

गहलोत के क़रीबी तीन बड़े नेताओं को कांग्रेस अनुशासन समिति नोटिस जारी कर चुकी है, जबकि इसके बाद बाक़ायदा एक ब्यान में पार्टी ने इन सभी नेताओं को अनुशासन की सीमा नहीं लाँघने का निर्देश दिया है। निश्चित ही जो हुआ, वह पार्टी आलाकमान के निर्देशों की नाफ़रमानी तो थी ही। पार्टी ने राजस्थान के बहाने जो सन्देश दिया, वह यही है कि आलाकमान की नाफ़रमानी करने के क्या मायने क्या हैं। भाजपा में ऐसा हुआ होता, तो शायद इन नेताओं को कब का बाहर कर दिया गया होता।

पार्टी इस समय भारत जोड़ो पद यात्रा चला रही है और उसमें जुट रही भीड़ से नेता उत्साहित हैं। तो क्या मल्लिकार्जुन खडग़े को अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस दक्षिण भारत में अपने पाँव मज़बूत करना चाहती है? लगता तो यही है। दक्षिण में कांग्रेस की इस क़वायद के पीछे भाजपा का वहाँ ख़ुद को मज़बूत करने की कोशिश भी है। कांग्रेस को पता है कि उत्तर भारत में नरेंद्र मोदी के चलते उसके लिए फ़िलहाल बहुत ज़्यादा सम्भावनाएँ नहीं हैं। यही कारण है कि गुजरात और हिमाचल जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव इसी साल होते हुए भी कांग्रेस की पदयात्रा दक्षिण राज्यों पर ज़्यादा केंद्रित लगती है।

भाजपा ने कांग्रेस की इस यात्रा को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रिया दी है, उससे भी ज़ाहिर होता है कि उसे दक्षिण में कांग्रेस की इस कोशिश से चिन्ता है। वह इसके बाद दोबारा दक्षिण में सक्रिय हुई है। देखा जाए, तो दक्षिण कांग्रेस के लिए राजनीतिक ख़ज़ाने जैसा रहा है। भले कांग्रेस का बुरा दौर चल रहा हो, भविष्य में जनता क्या फ़ैसला करेगी, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। सन् 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस यदि दक्षिण में अपनी उपस्थिति जगाने में सफल रहती है, तो यह उसकी बड़ी सफलता होगी। खडग़े अध्यक्ष के रूप में इसमें बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं।

यह भी तय है कि कांग्रेस उत्तर भारत को भाजपा के लिए खुले मैदान की तरह नहीं छोड़ेगी। भविष्य में उसका उत्तर भारत पर केंद्रित एक और पदयात्रा का कार्यक्रम है। यह उत्तर प्रदेश और गुजरात के अलावा अपनी सत्ता वाले राजस्थान और छत्तीसगढ़ के साथ साथ भाजपा के मध्य प्रदेश पर ज़्यादा केंद्रित होगा। इसमें कोई दो-राय नहीं कि भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस देश की जनता का ध्यान अपनी तरफ़ खींचने में सफल रही है।

भले उत्तर भारत के मीडिया या टीवी चैनल इस यात्रा को ज़्यादा तरजीह न दे रहे हों, दक्षिण के स्थानीय मीडिया में राहुल गाँधी को ख़ूब जगह मिली है। युवाओं और बच्चों के आलावा महिलाओं से उनके बतियाने की उनकी तस्वीरें भी ख़ूब वायरल हुई हैं। पार्टी का आरोप रहा है कि भाजपा जानबूझकर यात्रा की चर्चा को दबाने की कोशिश करती रही है, क्योंकि उसमें इस यात्रा की सफलता से काफ़ी बेचैनी है। हालाँकि भाजपा इससे इनकार करती रही है।

खडग़े कांग्रेस की भविष्य की राजनीति में फिट बैठते हैं। वह वरिष्ठ भी हैं और निर्विवाद भी। अध्यक्ष के रूप में उनके लिए काम करना इसलिए भी कठिन नहीं होगा। दूसरे अब सोनिया गाँधी, राहुल और प्रियंका रणनीति पर फोकस कर सकेंगे और खडग़े अध्यक्ष बनने पर पार्टी मामलों को देख सकेंगे।

अभी होगा फेरबदल
यह तय है कि कांग्रेस में अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया पूरी होते ही राज्य इकाइयों के साथ-साथ एआईसीसी और सीडब्ल्यूसी में बड़ा फेरबदल देखने को मिलेगा। चूँकि खडग़े चुनाव के ज़रिये जीतकर अध्यक्ष बनेंगे, पार्टी के भीतर जी-23 की माँग भी पूरी हो गयी है। ऐसे में खडग़े जो भी टीम बनाएँगे, उस पर गाँधी परिवार की पूरी छाप होगी। जानकारों के मुताबिक, आने वाले समय में विरोध के स्वर उठाने वालों को किनारे कर दिया जाएगा, क्योंकि ज़्यादातर नियुक्तियाँ राहुल गाँधी की पसन्द के नेताओं से होंगी। बता दें कि ख़ुद खडग़े राहुल गाँधी की टीम के सदस्य हैं। ऐसे में खडग़े भले अपने अनुभव से पार्टी को नयी दिशा दें, छाप उस पर राहुल गाँधी की ही होगी। हाल के समय में राज्यों में राहुल गाँधी ने अपनी पसन्द के कई नेताओं की नियुक्तियाँ करवायी थीं, यह सिलसिला अब बिना विरोध चलेगा।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, चुनाव के बाद सोनिया गाँधी के सामने पार्टी की चेयरपर्सन या सलाहकार बनने का प्रस्ताव रखा जा सकता है। अभी यह भी तय नहीं है कि सोनिया गाँधी अगला चुनाव लड़ेंगी या नहीं। लेकिन उनका विपक्षी दलों के नेताओं से जैसा तालमेल है, उसे देखते हुए पार्टी को उनकी हमेशा ज़रूरत रहेगी।


नेहरू / गाँधी परिवार के अध्यक्ष

2 पंडित नेहरू : 5 साल
2 इंदिरा गाँधी : 7 साल
2 राजीव गाँधी : 6 साल
2 सोनिया गाँधी : 22 साल (19 पूर्ण, 3 साल अंतरिम)
2 राहुल गाँधी : 2 साल

कांग्रेस के अध्यक्ष
देश की सबसे पुरानी पार्टी और भारत के हर विकास और संकट को सत्ता में रहकर अन्य दलों के मुक़ाबले ज़्यादा क़रीबी से देखने वाली कांग्रेस में नया अध्यक्ष बनने की तैयारी है। यदि नज़र दौड़ाएँ, तो सन् 1947 में स्वतंत्रता के बाद अब तक कांग्रेस के 19 अध्यक्ष बने, जिनमें नेहरू-गाँधी परिवार से पाँच जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी अध्यक्ष रहे। हालाँकि कुल 75 वर्षों में से 41 साल नेहरू-गाँधी परिवार के सदस्य अध्यक्ष रहे और इनमें से भी सबसे लम्बा 22 साल का कार्यकाल सोनिया गाँधी का रहा। नेहरू-गाँधी परिवार से बाहर के नेताओं की बात करें, तो इनमें जे.बी. कृपलानी, बी. पट्टाभि सीतारमैया, पुरुषोत्तम दास टंडन, यूएन ढेबर, नीलम संजीव रेड्डी, के. कामराज, एस. निजलिंगप्पा, जगजीवन राम, शंकर दयाल शर्मा, डी.के. बरुआ, राजीव गाँधी, पी.वी. नरसिम्हा राव, सीताराम केसरी, सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी प्रमुख रहे हैं।

कई बार टूटी है कांग्रेस

आज़ादी के बाद से आज तक कांग्रेस कई बार टूटी है। जे.बी. कृपलानी से लेकर ग़ुलाम नबी आज़ाद तक कांग्रेस ने टूटने के गहरे ज़ख़्म कई बार झेले हैं। राजस्थान में पार्टी के संकट का भले बिना टूटे हल निकल आये, देश में बने अधिकतर क्षेत्रीय दल कांग्रेस से ही निकले हैं। वैसे तो कांग्रेस सबसे पहले आज़ादी से पूर्व तब टूटी थी, जब सन् 1923 में चौरी चौरा कांड के बाद गाँधी जी के असयोग आन्दोलन वापस लेने के विरोध में चितरंजन दास, नरसिंह चिंतामन केलकर, मोतीलाल नेहरू और बिट्ठलभाई पटेल कांग्रेस से अलग हो गये और कांग्रेस स्वराज्य पार्टी बना ली। इसके बाद सन् 1939 में सुभाष चंद्र बोस ने भीतरी खींचतान से परेशान होकर कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया और भारतीय फारवर्ड ब्लॉक का गठन किया। आज़ादी के बाद की बात करें, तो सन् 1951 में आचार्य जे.बी. कृपलानी जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल से सैद्धांतिक मतभेद के कारण कांग्रेस से बाहर चले गये। उन्होंने किसान मज़दूर पार्टी का गठन किया, जिसका बाद में समाजवादी पार्टी में विलय हो गया। कांग्रेस से एक और बड़े नेता की विदाई सन् 1956 में स्वतन्त्र भारत के दूसरे गवर्नर जनरल और प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी के रूप में हुई, जिन्होंने इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी गठित की। तीन साल बाद सन् 1959 में कांग्रेस में पहली बड़ी टूट हुई, जब उसकी राजस्थान, गुजरात, बिहार और ओडिशा की राज्य इकाइयों में बग़ावत के बाद के.एम. जॉर्ज के नेतृत्व में केरल कांग्रेस बनी। इसके बाद किसान नेता चरण सिंह सन् 1967 में कांग्रेस छोडक़र चले गये और भारतीय क्रान्ति दल का गठन किया।

इसी पार्टी को आज राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) के नाम से जाना जाता है। नेहरू-गाँधी परिवार में मोती लाल के बाद कांग्रेस से अलग होकर पार्टी बनाने वाली इंदिरा गाँधी दूसरी नेता थीं। सन् 1969 में जब उन्हें कांग्रेस से बर्ख़ास्त करने का फ़रमान जारी हुआ, तो उन्होंने कांग्रेस (आर) का गठन कर लिया, जो बाद में कांग्रेस(आई) कहलायी। यही पार्टी आज तक अस्तित्व में है और इसे अब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) कहते हैं। हालाँकि इसके बाद भी कांग्रेस से कई नेता बाहर गये, जिन्होंने अलग दल बना लिये। इनमें पहला बड़ा नाम वी.पी. सिंह का था, जिन्होंने राजीव गाँधी से अलग होकर अरुण नेहरू के साथ जनमोर्चा का गठन किया। बाद में जनमोर्चा भी एकजुट नहीं रहा और उसके नेताओं ने जनता दल, जनता दल (यू), राजद और समाजवादी पार्टी जैसी क्षेत्रीय दल बनाये। एक और बड़ा विद्रोह कांग्रेस में सन् 1999 में हुआ, जब पहले शरद पवार, तारिक अनवर और पी.ए. संगमा ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) बनायी और उसी साल ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) का गठन किया। इसके बाद आंध्र प्रदेश में कांग्रेस से अलग जाकर वाईएसआर कांग्रेस और जनता कांग्रेस, ओडिशा में बीजू जनता दल, जबकि जम्मू-कश्मीर में मुफ़्ती मोहम्मद सईद और उनकी बेटी महबूबा मुफ़्ती ने पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) बना ली। इनमें से कई दल राज्यों में सत्ता में भी आये या आज भी हैं। सोनिया गाँधी के कांग्रेस का ज़िम्मा सँभालने के बाद यह टूट हुई। हालाँकि उनके ही नेतृत्व में कांग्रेस का यूपीए गठबंधन केंद्र में सत्ता में आया। इसके बाद कुछ नेता कांग्रेस से बाहर गये। हालाँकि उनमें से ज़्यादातर भाजपा में शामिल हुए। इनमें असम में हिमंत बिस्वा सरमा, मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया, उत्तर प्रदेश में जितिन प्रसाद जैसे नाम शामिल हैं। सन् 2021 में कांग्रेस में पंजाब में बड़ी टूट हुई, जब कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस छोडक़र पंजाब लोक कांग्रेस बनायी और सितंबर, 2022 में इसका भाजपा में विलय कर दिया। इस दौरान सुनील जाखड़ भी भाजपा में शामिल हो गये थे। इसी साल कांग्रेस का मुस्लिम चेहरा माने जाने वाले ग़ुलाम नबी आज़ाद कांग्रेस से विदा हो गये और गृह राज्य जम्मू कश्मीर में डेमोक्रेटिक आज़ाद पार्टी का गठन कर लिया।

खडग़े का सफ़र

मज़दूर आन्दोलन से राजनीतिक सफ़र की शुरुआत करने वाले मल्लिकार्जुन खडग़े ज़मीन पर कितने मज़बूत हैं, यह इस बात से साफ़ हो जाता है कि सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहार में जब कांग्रेस 54 सीटों पर ही सिमट गयी थे और पार्टी के बड़े-बड़े दिग्गज चुनाव में पटखनी खा गये थे, खडग़े ने कर्नाटक के गुलबर्ग से चुनाव जीता था। जीत का फ़ायदा उन्हें यह मिला कि पार्टी ने लोकसभा में कांग्रेस दल का नेता बना दिया।

क़रीब 50 साल से ज़्यादा समय से खडग़े राजनीति में पैर जमाये हुए हैं। कांग्रेस में उनकी पहली बड़ी शुरुआत तब हुई, जब सन् 1969 में कर्नाटक के गुलबर्गा शहर का उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद सन् 1972 में वह विधायक बन गये और जनता में अपनी जबरदस्त पैठ के चलते सन् 2008 तक लगातार विधायक चुने जाते रहे। खडग़े अपने राजनीतिक करियर में नौ बार विधायक बने। सन् 2009 में पार्टी ने उन्हें गुलबर्गा लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाया और उन्होंने जीत हासिल की। इसके बाद सन् 2014 में भी वह इसी सीट से सांसद बने।

इसके बाद सन् 2019 में महाराष्ट्र में जब धुर-विरोधी शिवसेना के साथ गठबंधन की बात आयी, तो पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने उन पर भरोसा जताते हुए उन्हें दूत बनाकर वहाँ भेजा। खडग़े ने पार्टी अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाया और मिशन में सफल रहे।

एक मौक़े पर सन् 2013 में खडग़े कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद की दौड़ में सबसे आगे थे। हालाँकि उन्हें केंद्र की राजनीति में रहने का आग्रह किया गया, जिसके बाद सिद्धरमैया कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने। उस समय खडग़े मनमोहन सिंह सरकार में केबिनेट मंत्री थे। कर्नाटक के चुनाव के बाद उन्हें रेल मंत्री बना दिया गया। खडग़े पाँच साल (सन् 2009 से सन् 2014) तक मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री रहे। खडग़े भले सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में हार गये; लेकिन उन्हें पार्टी ने बिना देर किये राज्यसभा भेज दिया। ग़ुलाम नबी आज़ाद का कार्यकाल जब ख़त्म हुआ, तो खडग़े ही राज्यसभा में पार्टी के नेता बने।

खडग़े की छवि वैसे ईमानदार नेता की रही है। कोई बड़ा विवाद भी उनके नाम नहीं। हालाँकि सन् 2000 में खडग़े तब संकट में फँसते दिखे थे, जब चंदन तस्कर वीरप्पन ने कन्नड़ सुपरस्टार राजकुमार का अपहरण किया था। खडग़े के प्रदेश के गृह मंत्री रहते यह हुआ। लिहाज़ा विपक्ष ने उन पर कई सवाल उठाये थे। अब 2022 में नेशनल हेराल्ड मामले में प्रवर्तन निदेशालय की टीम ने उनसे पूछताछ की थी। इसके अलावा कभी उन पर भ्रष्टाचार या कोई गम्भीर आरोप कभी नहीं लगा है।

खडग़े की एक और ख़ासियत यह है कि दक्षिण भारत का होने के बावजूद उन्हें बोलना अच्छा लगता है। वह सदन में हमेशा हिन्दी में अपनी बात रखते रहे हैं। उन्हें राहुल गाँधी का नजदीकी माना जाता है और लोकसभा में राहुल गाँधी ने रफाल से लेकर नोटबंदी, महँगाई और बेरोज़गारी पर जब भी बोला, खडग़े ने इन मुद्दों को आगे तक बढ़ाने का काम बख़ूबी किया। खडग़े के परिवार में पत्न राधाबाई और तीन बेटियाँ और दो बेटे हैं। एक बेटे का कर्नाटक के बेंगलूरु में स्पर्श नाम से अस्पताल है, जबकि दूसरा बेटा विधायक है। सन् 2019 चुनाव के दौरान घोषणा में खडग़े ने अपनी सम्पत्ति 10 करोड़ के क़रीब ज़ाहिर की थी।

आज़ाद ने बना ली नयी पार्टी
कांग्रेस से बाहर होने के बाद आख़िर वरिष्ठ नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री ग़ुलाम नबी आज़ाद ने 26 सितंबर को अपनी नयी पार्टी के नाम की घोषणा कर दी। उन्होंने अपनी नयी पार्टी का नाम डेमोक्रेटिक आज़ाद पार्टी रखा है। पार्टी के नाम की घोषणा के बाद आज़ाद ने कहा कि वह नवरात्रि के शुभ अवसर पर पार्टी की शुरुआत कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि पार्टी का नाम डेमोक्रेटिक आज़ाद पार्टी है। उन्होंने कहा कि पार्टी की अपनी सोच होगी, किसी से प्रभावित नहीं होगी। आज़ाद का मतलब होता है स्वतंत्र। नीचे से चुनाव होंगे और एक हाथ में ताक़त नहीं रहेगी और जो हमारा संविधान होगा उसमें प्रावधान होगा पूर्ण लोकतंत्र के आधार पर। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर में किसी भी पार्टी का नाम रखना मुश्किल होता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आज़ाद भविष्य में क्या फ़ैसला करते हैं। उनके भाजपा के साथ जाने की अटकलें लगती रही हैं; लेकिन अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। वह भाजपा के विरोधी रहे हैं। लेकिन यह तय है कि आज़ाद ने अपनी राजनीति गृह राज्य तक सीमित रखने का फ़ैसला किया है। उनके साथ कुछ लोग गये हैं; लेकिन ज़िला इकाइयाँ अभी भी मूल कांग्रेस के साथ हैं। लिहाज़ा उनका रास्ता उनका सरल नहीं दिखता।

अनुच्छेद-370 ख़त्म होने के बाद जम्मू-कश्मीर में काफ़ी बदल गया है। राजनीति का रंगरूप भी। ख़ुद आज़ाद का कहना है कि अनुच्छेद-370 ख़त्म होने के बाद जब वह पहली बार सूबे में आये, तो यहाँ ट्रांसपोर्ट ख़त्म हो गया था। दुकानें ख़त्म हो गयी थीं, और 70 फ़ीसदी इंडस्ट्री बन्द हो गयी थीं। उनके मुताबिक, उन्होंने पता किया कि ऐसा क्यों हुआ? तो पता लगा कि उनमें अधिकतर सामान श्रीनगर जाता था। फ़िलहाल आज़ाद जम्मू-कश्मीर पर फोकस कर रहे हैं और यदि भाजपा के साथ उनके जाने की बात सामने आती है, तो कश्मीर में उन्हें लेने-के-देने पड़ जाएँगे।


थरूर का राजनीतिक सफ़र

कांग्रेस के भीतर अभी तक जी-23 के धड़े के साथ रहने वाले शशि थरूर पूर्व राजनयिक हैं। सन् 2009 के बाद से वह केरल के तिरुवनंतपुरम से लोक सभा सदस्य हैं। सन् 2009 से सन् 2010 तक वह मनमोहन सिंह सरकार में विदेश राज्य मंत्री और सन् 2012 से सन् 2014 तक मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री रहे। सन् 2007 तक वह संयुक्त राष्ट्र के करियर अधिकारी थे। थरूर सन् 2006 में यूएन महासचिव पद के लिए चुनाव लड़ चुके हैं। हालाँकि बान की मून की तुलना में वह दूसरे स्थान पर रहे।

एक उपन्यासकार के रूप में भी उनकी अच्छी पहचान है। उन्होंने सन् 1981 से कथा और ग़ैर-कथाओं की 17 बेस्टसेलिंग पुस्तकें लिखी हैं। यह पुस्तकें भारत के इतिहास, संस्कृति, फ़िल्म, राजनीति, समाज, विदेश नीति और अधिक सम्बन्धित विषयों पर हैं। मार्च, 2009 में थरूर ने केरल के तिरुवनंतपुरम में कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में पहली बार चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। इसके बाद उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार में राज्य मंत्री बनाया गया। इसके बाद मई, 2009 में उन्होंने विदेश मामलों के राज्य मंत्री के रूप में शपथ ली। मई, 2014 में थरूर ने तिरुवनंतपुरम से फिर से चुनाव जीता और मोदी की लहर में भाजपा के उम्मीदवार राजगोपाल को क़रीब 15,700 वोटों के अन्तर से हराया। अब वह कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में उम्मीदवार हैं।