उत्तराखंड के टिहरी लोकसभा उपचुनाव में राज्य के प्रथम परिवार का तिलिस्म उसी तरह खत्म हुआ जैसे कुछ महीने पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान अमेठी में गांधी परिवार का तिलिस्म टूटा था. ‘राज्य के भविष्य’ और ‘उत्तराखंड के युवराज’ के रूप में प्रचारित किए जा रहे मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के पुत्र साकेत बहुगुणा ने अपने पिता की लोकसभा सीट भी गंवा दी. उपचुनाव में अमूमन सत्ता पक्ष का पलड़ा भारी माना जाता है. ऊपर से यदि उपचुनाव मुख्यमंत्री के परिवार का सदस्य लड़ रहा हो तो जीत की संभावना और भी बढ़ जाती है. साकेत की हार से दो राज्यों के बीच अपनी राजनीतिक जड़ों की तलाश कर रहे बहुगुणा-जोशी परिवार के सदस्यों को करारा झटका लगा है.
वैसे देखा जाए तो इस चुनाव के दौरान उत्तराखंड में वंशवाद की उसी विषबेल के दर्शन हुए जो कांग्रेस और बृहत्तर संदर्भ में देखें तो पूरी भारतीय राजनीति पर कुंडली कसे हुए है. उम्मीदवारी के लिए साकेत के चुनाव से लेकर उनके प्रचार तक पार्टी संगठन और उसके नेताओं की भूमिका गौण और महज रस्म अदायगी तक सीमित रही. चुनाव प्रबंधन में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की मदद उनकी बहन रीता बहुगुणा जोशी, छोटे भाई शेखर बहुगुणा, तीनों भाई-बहनों के पुत्र, उनकी बहुएं और दो दर्जन के लगभग नजदीकी रिश्तेदार कर रहे थे. रीता बहुगुणा जोशी महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुकी हैं. राजनीतिक रूप से देश के सबसे ताकतवर सूबे उत्तर प्रदेश की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उन पर वहां की सारी विधान सभा और लोक-सभा सीटों पर चुनाव लड़ाने की जिम्मेदारी होती थी. लेकिन परिवार की प्रतिष्ठा वाली टिहरी लोकसभा सीट पर वे देहरादून जिले में पड़ने वाले विकास नगर विधानसभा क्षेत्र में डटी रहीं. रीता के जमकर पसीना बहाने के बाद भी इस विधानसभा क्षेत्र में उनके भतीजे साकेत 5,558 मतों से पीछे रहे, जबकि सात महीने पहले हुए विधान सभा चुनावों में इसी विधानसभा से कांग्रेस के उम्मीदवार नवप्रभात ने इससे दोगुने मतों से चुनाव जीता था. राज्य प्रधान संगठन के महामंत्री गुलफाम अली बताते हैं, ‘इतने कम दिनों में रीता बहुगुणा असली कार्यकर्ताओं और चाटुकारों में फर्क नहीं कर पाई, इसलिए असली कार्यकर्ता भी बिदक गए.’ नवप्रभात पहले कांग्रेस की तिवारी सरकार में ताकतवर कैबिनेट मंत्री थे.
वे एक बार टिहरी से लोकसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं. उनके पिता ब्रह्मदत्त भी टिहरी से संसद में पहुंचने के बाद केंद्र में पेट्रोलियम जैसे विभाग के मंत्री रहे थे. अनुभव और राजनीतिक पृष्ठभूमि होने के बावजूद विकास नगर में नवप्रभात की निगरानी के लिए रीता बहुगुणा जोशी को बैठाना नवप्रभात समर्थकों को नहीं भाया. देहरादून जिले की एक और विधानसभा सीट सहसपुर को खुद विजय बहुगुणा की पत्नी सुधा बहुगुणा देख रही थीं. इस सीट पर मुसलिमों और दलितों की अच्छी-खासी संख्या है. इस सीट पर चुनाव में जमीनी नेता की कमी को दूर करने के लिए विधानसभा चुनाव में टिकट न मिलने पर बागी हुए गुलजार सहित कई छोटे-बड़े नेताओं को कांग्रेस में शामिल करवाया गया था. गुलजार के नाम वापस लेकर कांग्रेस में शामिल होने और सपा व बसपा के मैदान में न होने पर कांग्रेस मुसलिम और दलित मतदाताओं को अपना मान चुकी थी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. पछवादून के पत्रकार कुंवर जावेद बताते हैं , ‘कांग्रेस में नेताओं की भीड़ तो आई, लेकिन उसके पास ऐसे कार्यकर्ता नहीं थे जो मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाते. नतीजा यह रहा कि बढ़ती महंगाई से त्रस्त मुसलिम मतदाता मत डालने गए ही नहीं.’ कांग्रेस सहसपुर में 2,565 मतों से पीछे रही.
संयोग देखिए कि टिहरी लोकसभा में पड़ने वाले 14 विधानसभा क्षेत्रों में से सिर्फ एक चकराता ही ऐसा था जहां कांग्रेस सम्मानजनक स्थिति में रही और इसी इकलौती सीट पर बहुगुणा परिवार के किसी प्रबंधक का हस्तक्षेप नहीं था. यहां पार्टी 9,645 मतों से आगे रही. पिछले चुनाव तक विजय बहुगुणा हर लोकसभा चुनाव में टिहरी और उत्तरकाशी जिलों में पीछे रहे थे इसलिए बहुगुणा परिवार ने इन दोनों जिलों के लिए विशेष चुनावी रणनीति बनाई थी. टिहरी जिले की चार विधान सभाओं के प्रभारी मुख्यमंत्री के छोटे भाई शेखर बहुगुणा थे. वे उत्तर प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं और पिछला विधानसभा चुनाव बुरी तरह हारे हैं. उत्तर प्रदेश में भले ही शेखर बहुगुणा की कोई राजनीतिक पूछ न रह गई हो लेकिन टिहरी लोकसभा उपचुनाव में उनका रुतबा देखने लायक था. प्रशासनिक अधिकारी और कांग्रेसी नेता उनके सामने नतमस्तक थे. उत्तरकाशी जिले को बहुगुणा परिवार की ओर से रीता बहुगुणा के पति डॉ पीसी जोशी बतौर प्रभारी देख रहे थे. इन दोनों दुर्गम जिलों में शेखर बहुगुणा और जोशी की मदद उनके युवा पुत्र कर रहे थे. सारा जोर लगाने के बाद भी टिहरी और उत्तरकाशी जिलों में कांग्रेस सात में से चार विधानसभा क्षेत्रों में केवल 4,864 मतों से आगे रही. चकराता के अलावा देहरादून जिले के छह विधानसभा क्षेत्रों में साकेत पीछे रहे. देहरादून शहर की चार विधानसभा सीटों मसूरी, कैंट, राजपुर और रायपुर में कांग्रेस की खूब दुर्गति हुई. इन चारों सीटों का चुनाव प्रबंधन साकेत की पत्नी गौरी, भाई सौरभ और उनकी पत्नी सुमेधा देख रही थीं.
चुनाव प्रचार में पार्टी संगठन और नेताओं की बुरी तरह से उपेक्षा हुई. टिहरी से कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ चुके पूर्व मंत्री किशोर उपाध्याय लोकसभा चुनाव में कहीं नहीं दिखे. उपाध्याय कहते हैं,‘ मुझे चुनाव प्रचार के दौरान कभी पूछा ही नहीं गया.’ देहरादून जिले के दिग्गज कांग्रेसी नेता हीरा सिंह बिष्ट ने चुनाव के बाद सार्वजनिक रूप से शिकायत की है कि उन्हें पार्टी कार्यालय में प्रवक्ता के रूप में बांध कर रखा गया. बिष्ट उत्तर प्रदेश के जमाने से बड़े नेता रहे हैं और दो बार टिहरी से लोकसभा चुनाव भी लड़ चुके हैं.
इससे पहले बहुगुणा ने अपने पुत्र साकेत के राजनीतिक राज्यारोहण के लिए समय चुनते हुए राजनीतिक दूरदर्शिता नहीं दिखाई. चुनाव से पहले उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग जिले के अधिकांश भाग प्राकृतिक आपदा से पस्त थे. आपदा में बेघर हुए सैकड़ों परिवारों का भले ही पुनर्वास न हुआ हो पर सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री ने पार्टी के भीतर लड़-झगड़ कर और किसी भी हालत में सीट जिता कर लाने के वादे के साथ बेटे का ‘राजनीतिक पुनर्वास’ करा ही लिया. टिकट पाते ही कानून स्नातक साकेत एक चर्चित कंपनी की सफेद कॉलर वाली नौकरी छोड़कर खद्दरधारी बन गए.
14 विधानसभा क्षेत्रों में से सिर्फ एक चकराता में ही कांग्रेस सम्मानजनक स्थिति में रही जहां बहुगुणा परिवार के किसी प्रबंधक का हस्तक्षेप नहीं था
लेकिन उत्तराखंड के लोगों को बहुगुणा का पुत्र मोह बिल्कुल नहीं भाया. साकेत के नाम की घोषणा होते ही सोशल नेटवर्किंग साइटों से लेकर गली-मुहल्लों तक विजय बहुगुणा के पुत्र मोह पर कठोर टिप्पणियां सामने आ रही थीं. चर्चित गीतकार नरेंद्र सिंह नेगी, वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा, जनकवि अतुल शर्मा आदि ने प्रत्याशियों के उत्तराखंड की भाषा, बोली और जानकारियों से जुड़े सवालों से संबधित एक पर्चा छपवाया था. इन पैमानों के आधार पर साकेत हर तरह से उत्तराखंड में पैराशूटी नेता सिद्ध हो रहे थे.
साकेत ने अपने दादा की विरासत के नाम पर वोट मांगे. इलाहाबाद की राजनीति करने वाले साकेत के दादा हेमवती नंदन बहुगुणा के लिए गढ़वाल क्षेत्र चार साल के अल्पकाल के लिए राजनीतिक कर्म-भूमि रहा. 1982 के ‘गढ़वाल चुनाव’ के बाद वे पहाड़ी क्षेत्र के लोगों के दिल में बैठ गए थे. तब उन्होंने सर्वशक्तिमान मानी जाने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ताकत का अडिगता से मुकाबला किया था. लेकिन इन चुनावों में सब उल्टा था. उनके पुत्र विजय बहुगुणा आज कांग्रेस के मुख्यमंत्री हैं. उन्होंने अपने बेटे साकेत के चुनाव में हर उस साधन और टोटके का इस्तेमाल किया जिन्हें चुनावी बुराइयां बताते हुए हेमवती नंदन बहुगुणा ने 1982 के चुनाव में उनका विरोध किया था. 1982 के चुनाव की तर्ज पर इस बार टिहरी लोकसभा चुनाव में भी पहाड़ों में हेलीकाप्टर में नेताओं को घुमाया गया. अकेली धनोल्टी विधानसभा सीट में मुख्यमंत्री, साकेत बहुगुणा आदि ने हेलीकॉप्टर से नौ सभाएं कीं. कांग्रेस संगठन के एक शीर्ष पदाधिकारी कहते हैं, ‘हर तरह से चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन किया गया.’ वे आगे चिंता जताते हैं कि यदि चुनाव इतने महंगे हो जाएंगे तो वास्तव में इन्हें उद्योगपति या कॉरपोरेट के लोग ही लड़ पाएंगे.
प्रचार में मुख्यमंत्री और उनके पुत्र मुद्दों के बजाय एक-दूसरे की तारीफ कर रहे थे या भाजपा प्रत्याशी पर बेतुकी टिप्पणियां कर रहे थे. युवा कांग्रेस के एक पदाधिकारी कहते हैं, ‘बड़ी कंपनी की लाखों की नौकरी छोड़ने, कॉरपोरेट की मदद से आपदा के काम करने, देश-विदेश की बड़ी-बड़ी कंपनियों की मदद से टिहरी लोकसभा का विकास करने जैसी साकेत की बातों से यह लग रहा था कि जैसे देश-दुनिया के कॉरपोरेट सेक्टर ने पैसे कमाने के बजाय अचानक समाज सेवा की जिम्मेदारी ले ली हो. उत्तराखंड में स्थापित फैक्टरियों में दोयम दर्जे की नौकरियां पाने वाले बेरोजगारों को मुख्यमंत्री और उनके पुत्र का ‘कॉरपोरेट खट-राग’ रिझा नहीं पाया.’ मुख्यमंत्री अल्प वेतन पर दसियों साल से काम कर रहे हजारों संविदाकर्मी युवाओं के लिए पक्की नौकरी की कोई योजना भले ही नहीं ला पाए हों लेकिन अपने बेटे को दो साल के लिए संविदा पर लोकसभा भेजने की विनती वे उन्हीं युवा मतदाताओं से करते रहे. कॉरपोरेटी प्रबंधन के बाद भी टिहरी में आजादी के बाद हुए सभी चुनावों की तुलना में सबसे कम मतदान (43 फीसदी) हुआ. साकेत 22,694 मतों से चुनाव हार गए. आजकल देश में व्यापार करने वाली राजनीतिक हस्तियों के नित नए घोटाले सामने आ रहे हैं. कॉरपोरेटी रिश्ते रखने वाले सांसदों द्वारा नीतियों को गलत तरीके से अपने व्यावसायिक हित में इस्तेमाल करने के किस्से आम हैं. वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत कहते हैं, ‘ऐसे में कॉरपोरेटी परंपरा वाले साकेत के हारने में ताज्जुब नहीं होना चाहिए.‘ रावत मानते हैं कि यदि मतदान प्रतिशत पहले की तरह होता तो साकेत की हार का अंतर अधिक होता.
मुख्यमंत्री बनते समय विजय बहुगुणा के साथ आधा दर्जन विधायकों का समर्थन भी नहीं था. उन्हें बहुसंख्यक कांग्रेसियों ने सहर्ष स्वीकारा भी नहीं. वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं, ‘विजय बहुगुणा खुद ही प्रदेश पर प्राकृतिक आपदा की तरह नई दिल्ली से थोपे गए थे. अब उनके पुत्र भी इसी तरह आए हैं.’
अब सवाल उठता है कि आगे क्या होगा. हर निर्णय के लिए दिल्ली का मुंह ताकने वाले विजय बहुगुणा के बारे में कुछ समय पहले तक उनके समर्थक प्रचारित कर रहे थे कि वे पुत्र के जीतते ही खुली पारी खेलेंगे. लेकिन अब स्थिति थोड़ी मुश्किल दिखती है. उनके धुर विरोधी और केंद्रीय मंत्री हरीश रावत कहते हैं, ‘उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार और संगठन पर एक गुट ही काबिज है जिसके भरोसे 2014 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा जा सकता.’ जानकार मानते हैं कि हिमाचल चुनाव के बाद फिर एक बार उत्तराखंड में मुख्यमंत्री विरोध की रणभेरियां बजेंगी. बहुगुणा के ममेरे भाई और भाजपा के मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी का विरोध तो उपचुनाव जीतने के बाद भी हुआ था.