हम क्यों लौटना चाहते हैं
स्मृतियों, जगहों और ऋतुओं में
जानते हुए कि लौटना एक गलत शब्द है-
जब हम लौटते हैं तो न हम वही होते हैं
और न रास्ते और वृक्ष और सूर्यास्त-
सब कुछ बदला हुआ होता है और चीज़ों का बदला हुआ होना
हमारी अँगुलियों पर अदृश्य शो-विन्डो के काँच-सा लगता है
और उस ओर रखे हुए स्वप्नों को छूना
एक मृगतृष्णा है
अनुभवों, स्पर्शों और वसन्त में लौटना
कितना हास्यास्पद है-फिर भी हर शख्श कहीं न कहीं लौटता है
और लौटना एक यंत्रणा है
चेहरों और वस्तुओं पर पपडिय़ाँ और एक त्रासद युग की खरोंच
देखकर अपनी सामूहिक पराजयों का स्मरण करते हुए
आईने के व्योमहीन आकाश में
एक चिडिय़ा लहूलुहान कोशिश करती है उस ओर के लिए
और एक गैर-रूमानी समय में
हम लौटते हैं अपने-अपने प्रतिबिंबित एकांत में
वह प्राप्त करने के लिए
जो पहले भी वहाँ कहीं नहीं था
जो मार खा रोई नहीं
तिलक मार्ग थाने के सामने
जो बिजली का एक बड़ा बक्स है
उसके पीछे नाली पर बनी झु्ग्गी का वाकया है यह
चालीस के करीब उम्र का बाप
सूखी सांवली लंबी-सी काया परेशान बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी
अपने हाथ में एक पतली हरी डाली लिए खड़ा हुआ
नाराज़ हो रहा था अपनी
पांच साल और सवा साल की बेटियों पर
जो चुपचाप उसकी तरफ ऊपर देख रही थीं
गु्स्सा बढ़ता गया बाप का
पता नहीं क्या हो गया था बच्चियों से
कु्त्ता खाना ले गया था
दूध दाल आटा चीनी तेल केरोसीन में से
क्या घर में था जो बगर गया था
या एक या दोनों सड़क पर मरते-मरते बची थीं
जो भी रहा हो तीन बेंतें लगी बड़ी वाली को पीठ पर
और दो पड़ीं छोटी को ठीक सर पर
जिस पर मुण्डन के बाद छोटे भूरे बाल आ रहे थे
बिलबिलाई नहीं बेटियाँ एकटक देखती रहीं बाप को तब भी
जो अन्दर जाने के लिए धमका कर चला गया
उसका कहा मानने से पहले
बेटियों ने देखा उसे
प्यार, करुणा और उम्मीद से
जब तक वह मोड़ पर ओझल नहीं हो गया