अब 71 साल हो गए। हम लगातार बोझा ढो रहे हैं। हमारी ज़रूरत तभी तक होती है जब तक निर्माण के लिए रेत-बजरी चाहिए हो। मकान बना और हमारी छुट्टी। उसमें हम रह नहीं सकते। हम तो बाहर खुले में या झोपडिय़ों में जीवन काटते हैं। लोगों से सुनते हैं बहुत कुछ बदल गया है। सत्ता बदल गई है, सत्ता चलाने का तरीका बदल गया है, आईना बदल गया है, आम आदमी को जीने के लिए मौलिक अधिकार मिल गए हैं। आज चाहे जो खाओ-पिओ, पहनों, कोई धर्म अपनाओं, कोई भाषा बोलो, देश के किसी भी हिस्से में रहो और अपनी बात को जिस तरह चाहो जनता तक पहुंचाओ। अब तो खाद्य सुरक्षा का नया कानून भी आ गया है। भूख से लडऩे के लिए। यह सुना है कि देश में ज़रूरत से ज़्यादा अन्न पैदा हो रहा है। चारों ओर खुशहाली ही खुशहाली है हमने ऐसा सुना है।
दो जून की रोटी के लिए जब मुझे अपनी ताकत से ज़्यादा भार ढोना पड़ता है, पूरी मज़दूरी नहीं मिलती रात को आधा पेट खा कर सोता हूं तो सोचता हूं कि क्या बदला है? 71 साल पहले भी ऐसा ही था। 20-20 घंटे काम लिया जाता था और साहूकारों के कजऱ् पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते थे। दो मु_ी अनाज के लिए तरले करते थे। तब भी वही करना पड़ता था जो राजे रजवाडे या बड़े जगीरदार कहते थे। अब भी हालत वही है। हम तो क्या खाएं, क्या न खाएं यह ऊपर से तय होने लगा है, कौन सा धर्म अपनाएं और किस से नफरत करें और किससे प्यार यह बात भी ऊपर से आ रही है। मैं बोझा किस प्रांत में उठाऊं यह भी दूसरे तय करने लगे हैं। किसी एक आदमी की हत्या पर पूरा देश जलता है और हज़ारों लोगों की हत्या होती है। यह मैंने देखा है। सुरक्षा का अधिकार भी कुछ ही लोगों को मिलता है। यह मैंने देखा है। आस्था के मंदिर ढहते देखे हैं। महिलाओं की इज्ज़त लुटते देखी है। क्या-क्या नहीं देखा इन आंखों ने। झूठे वादों से ले कर जुमलों तक मैंने सुने हैं। मैंने झूठ को फैलाए जाने के नए-नए तरीकें इज़ाद होते देखे हैं। देश का विकास हो रहा है। बड़ी-बड़ी इमारतें और मॉल खड़े हो रहे हैं। मैंने भी इन महलों के बनने में हाथ बटाया है। मैंने कारखानों में उत्पादन बढ़ाने में भरपूर सहयोग दिया है। पर हमेशा न्यूनतम वेतन के लिए लडऩा पड़ा है। लोगों का मुनाफा 1600 गुणा तक बढ़ गया एक साल में और हमारी मज़दूरी को मुद्रास्फीती से जोड़ा जाता है।
देश में विकास की बयार बह निकली है। अदालतों में मामलों की लंबी फहरिस्त को देखते हुए लोग सड़कों पर फैसले करने लगे हैं और खुद ही सज़ा सुना कर उसे लागू भी कर देते है। ऐसे मामलों में आमतौर पर सज़ा होती है मौत की। इसने पुलिस और अदालतों का काम आसान कर दिया है। लोग सड़कों को जब मर्जी जाम कर दें। जब मर्जी धार्मिक जलूस ले चलें और यदि सड़क पर कोई गाड़ी उनसे छू भी जाए तो सैकड़ों वहानों को आग के हवाले कर दें। यही है सही न्याय। वर्दीधारी पुलिस का काम होता है मूक दर्शक बने रहने का। उन पर बापू के तीन बंदरों की बात लागू होती है- बुरा मत देखो, जो कर रहा उसे करने दो, बुरा मत सुनो, लुटते-पिटते लोग कोई शिकायत करें तो उस पर कान मत धरो, बुरा मत कहो- हुड़दंगियों को कुछ मत कहो।
मैं तो पीठ पर रेत सीमेंट लाद ऐसी इमारत में गया था जो कभी राष्ट्र की संपत्ति थी, अब तो उसका मालिक कोई धन्ना सेठ हो गया है। ऐसा मुझे बताया गया है। सुना है वह इस संपत्ति का किराया देता है जैसे ही मैंने आठवां चक्कर लगाया, तब तक अंधेरा घिर आया था और वहां चल रहा निर्माण कार्य उस दिन के लिए थम गया। फिर मैं देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन गया और वहां मौजूद सुरक्षा सैनिकों ने मुझे डंडे मार-मार कर भगा दिया। मैं दूर एक पेड़ के नीचे सुस्ताने को लेटा तो नींद आ गई। आंख खुली तो सवेर थी। उस इमारत पर हज़ारों लोग इक_ा थे। मुझे अभी कल के काम की मज़दूरी लेनी थी। तभी लोगों की तालियों के बीच उस इमारत से आवाज़ आई- ”भाईयो और बहिनो…’’। आगे सुनने की मेरी ताकत नहीं थी। पिछले 71 सालों से हम सब यही तो सुनते आए हैं। बात वादों से जुमलों तक पहुंच गई पर मेरा मसला रोटी का आज भी बरकरार है।