एक बार मैंने शास्त्रों और कई भाषाओं के विज्ञाता, लेखक, कवि एवं शिक्षक अपने बड़े गुरु जी डॉ. उमाकान्त शर्मा जी से पूछा- ‘गुरु जी! धर्मों और जातियों में लोगों का बँटवारा होना चाहिए? क्या यह उचित है?’ उन्होंने दो-टूक कहा- ‘सब पागलपान है।’ मैंने फिर पूछा- ‘गुरु जी! तो क्या हमें किसी से भेदभाव नहीं करना चाहिए?’ उन्होंने कहा- ‘जैसा व्यवहार आपका किसी के प्रति होगा, वह आपसे वैसा ही व्यवहार करेगा।’ गुरु जी की बात सुनकर मैंने एक निर्णय तो उसी दिन ले लिया कि किसी से भेदभाव नहीं करना है। अगर किसी के कर्म बहुत बुरे हों, तो उसका विरोध अलग बात है। हालाँकि धर्म और जाति एक तरह का पागलपन है, यह बात उस समय मेरी उतनी समझ में उतनी नहीं आयी, जितनी कि अब आती है।
गुरु जी के कथन को सरल रूप में मैंने कुछ इस प्रकार समझा कि जब सभी के अन्दर ईश्वर का अंश आत्मा के रूप में मौज़ूद है, जो कि एक ही है; तो फिर किसी से भेदभाव क्यों किया जाए? जब सभी के शरीर में गन्दगी भरी है। जब सभी में कोई-न-कोई कमी है, तो फिर किसी से द्वेष क्यों? जब सभी जन्म से ही शूद्र हैं और सभी के शरीर से नित्य मल निकलता रहता है, तो फिर कौन पवित्र और कौन अपवित्र? लेकिन वास्तव में लोगों ने नफ़रत को अपने मन में ठीक उसी तरह बैठा लिया है, जैसे किसी कुएँ में पानी की तलछटी पर गन्दगी बैठी होती है। लोगों के पवित्र मन में भेदभाव की गन्दगी का यह आलम है कि वे अपने से इतर धर्म के लोगों से बिना कारण के ही नफ़रत करते हैं। अगर उनके आसपास किसी दूसरे धर्म के लोग न हों, तो वे अपने ही धर्म के उन लोगों से नफ़रत करते हैं, जो उनकी जाति के नहीं होते। अगर उनके आसपास अपने धर्म की दूसरी जातियों के लोग भी न हों, तो वे अपनी ही जाति में गोत्रों के आधार पर भेदभाव करते हैं। और अगर उनके आसपास अपनी ही जाति के दूसरे गोत्रों के लोग न हों, तो वे अपनी ही जाति के लोगों से भेदभाव करते हैं। हद तो यह है कि अगर आसपास अपनी भी जाति के लोग न हों, तो परिवार के सदस्यों में ही मतभेद और भेदभाव दिखता है।
हर धर्म के अन्दर इसी तरह का भेदभाव साफ़ दिखता है। दुर्भाग्य यह है कि धर्म की दुहाई भी सब देते हैं, और धर्म पर चलते भी नहीं हैं। दुनिया में सबसे ज़्यादा जनसंख्या वाले ईसाई कहते हैं कि सब गॉड अर्थात् ईश्वर की सन्तानें हैं। गॉड ने ही सबको पैदा किया है। गॉड ही सबकी रक्षा करता है। गॉड सबका पालनहार है। अगर ऐसा है, तो ईसाई आपस में तीन धड़ों- कैथोलिक, ऑर्थोडॉक्स और प्रोटेस्टेंट में बँटे हुए क्यों हैं? उनमें जातिवाद क्यों है? वे दुनिया के बाक़ी लोगों से इतनी नफ़रत क्यों करते हैं? इसका अर्थ है कि ईसाई अपने ईश्वर की वाणी पर भरोसा नहीं करते, या फिर उन्होंने अपने धर्म को नहीं समझा है। अगर समझते, तो इतनी तुच्छ सोच नहीं होती।
इस्लाम धर्म की भी यही कहानी है। इस्लाम धर्म के लोग कहते हैं कि ख़ुदा ही सबसे बड़ा है। इस कायनात अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि पर उसी का हुक्म चलता है। उसी ने सभी को पैदा किया है। उसी की इच्छा से सब हो रहा है। अगर ऐसा है, तो इस्लाम धर्म को मानने वाले दूसरे धर्म के लोगों से भेदभाव क्यों करते हैं? दूसरे धर्म के लोगों से तो दूर की बात, ख़ुद इस्लाम को मानने वाले लोग आपस में बुरी तरह बँटे पड़े हैं। आज दुनिया का दूसरी सबसे ज़्यादा जनसंख्या वाला यह धर्म शिया, सुन्नी और इनकी दर्ज़नों उप शाखाओं तथा सैकड़ों जातियों में बँटा पड़ा है। क्या इस्लाम को मानने वाले ख़ुदा की इस बात पर यक़ीन नहीं करते कि सब उसी के बन्दे हैं?
दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी जनसंख्या द्वारा माने जाने वाला सनातन धर्म कहता है कि सम्पूर्ण सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी ने की है। सम्पूर्ण सृष्टि का पालन पोषण भगवान विष्णु करते हैं और सम्पूर्ण सृष्टि के संहारक भगवान शिव हैं। सनातन धर्म यह भी कहता है कि ईश्वर एक ही है। सब उसी की माया है। पूरे ब्रह्माण्ड में जो कुछ है, उसी का है। सभी प्राणी उसी की सन्तान हैं। अगर ऐसा है, तो सनातन धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों से द्वेष क्यों करते हैं? उनमें आपस में इतना भेदभाव क्यों है? एक धर्म में दर्ज़नों पन्थ, सैकड़ों जातियाँ और एक-एक जाति में दर्ज़नों-दर्ज़नों गोत्र कैसे बन गये? क्यों सनातन धर्मी अपने ही धर्म की यह बात नहीं मानते कि पूरा विश्व एक परिवार है, इसलिए सभी से प्रेम करो। इसी तरह शेष धर्मों और पन्थों के लोग दूसरे धर्मों को मानने वालों से तो भेदभाव करते ही हैं, अपने ही धर्म के लोगों से भी ख़ूब भेदभाव करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि या तो सभी धर्मों के मानने वाले अपने-अपने धर्मों की बातों पर भरोसा नहीं करते, या उन्हें ईश्वर में विश्वास नहीं है। या तो सब ईश्वर की ताक़त को पहचानते नहीं है, या ईश्वर को चुनौती दे रहे हैं। कहना ही होगा कि धर्म, पन्थ और जातियों को लेकर भेदभाव लोगों का पागलपन ही है। क्या कभी लोग इस पागलपन से बाहर निकल सकेंगे?