जम्मू-कश्मीर पर अपनी नीति की समीक्षा करने को केंद्र अब भी तैयार नहीं लगता। पुलवामा हमले में सीआरपीएफ के 40 से ज्य़ादा कर्मी मारे गए। लेकिन ऐसा लगता है कि पुरानी नीति पर ही अमल करने पर ज़ोर है। पुलवामा धमाके के बाद केंद्र सरकार ने राजनीतिक-धार्मिक गुटों पर धावा बोला। जमात-ए-इस्लामी की सुरक्षा हटा दी और दूसरे राजनीतिक अलगाववादियों को दिया गया सुरक्षा चक्र भी खत्म कर दिया। अभी हाल नेशनल इंनस्टिगेशन एजंसी (एनआईए) ने हुर्रियत एम के अध्यक्ष मीरावाइज उमर फारूख और नसीम गिलानी (बड़े अलगाववादी सैयद अलीशाह गिलानी के पुत्र) को पूछताछ के लिए नई दिल्ली बुलाया। तकरीबन 15 दिन पहले एनआईए ने इनके घरों पर छापे मारे थे।
मीरवाइज को नर्ह दिल्ली में पूछताछ के लिए बुलाना भी गज़ब का कदम है। अभी तक केंद्र सरकारों ने तो मीरवाइज को जेल में रखना भी बंद कर दिया था। वे धार्मिक नेता हैं साथ ही अलगाववादी भी। वे सदियों पुराने धार्मिक संस्थान के प्रमुख हैं इसलिए सरकार ने उन्हें घर में ही नजऱबंद रखा था। केंद्र में भाजपा के नेतृत्व की सरकार ने यह सिलसिला तोड़ दिया है। उधर मीरवाइज ने सुरक्षा वजहों से एनआईए के सामने नई दिल्ली जाने से इंकार कर दिया है।
उनके वकील के अनुसार दिल्ली में सुरक्षा का उग्र माहौल है। ऐसी हालत में मेरे मुवक्किल की अपनी जिंदगी खतरे में पड़ सकती है इसलिए बेहतर यही है कि उन्हेें दिल्ली न बुलाया जाए। मीरवाइज के वकील एजाज अहमद डार ने एनआईए को सूचना भेजी। इसी सूचना से वकील डार ने यह भी बताया है कि मीरवाइज उमर फारूख कश्मीर के 13वें मीरवाइज हैं जो जम्मू-कश्मीर के लोगों की खातिर सच्चाई और न्याय की परंपरा निभाते आए हैं। उनका नजीरिया बहुत साफ है। उन्होंने हमेशा कहा है कि कश्मीर का मुद्दा राजनीतिक और मानवीय है। इसका राजनीतिक समाधान संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रस्ताव के तहत तीनों पक्षों भारत-पाकिस्तान और जम्मू-कश्मीर के लोगों के बीच बातचीत से ही सुलझ सकता है।
दूसरी तरफ सरकार ने जमात के ढेरों नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके जेलों में डाल दिया है। सरकार ने संस्थान की करोड़ों की संपत्ति पर जब्ती की सील लगा दी है। जबकि पहले आदेश था कि जमात के स्कूलों और मस्जिदों पर ही पाबंदी होगी। बाद में सरकार ने सफाई दी कि उनकी जब्ती और सीलिंग में कोई दिलचस्पी नहीं है। जम्मू-कश्मीर सरकार के प्रवक्ता राहुल कंसल ने कहा, च्पाबंदीशुदा संगठन के दफ्तरों, संपत्ति और दूसरे साजो सामान पर कार्रवाई की गई है।ज् यह पाबंदी पांच साल के लिए है।
इस कार्रवाई से पूरी घाटी में डर का माहौल है। च्कश्मीर में भाजपा की दमन की जबरदस्त नीति की नाकामी के बादज् यह उम्मीद थी कि सरकार शायद अपनी कश्मीर नीति पर फिर विचार करेगी। राजनीतिक टिप्पणीकार गौहर गिलानी ने कहा, च्लेकिन यह तो ज़ोर शोर से पुरानी नीति को अमल में ला रही है और एक अलग नतीजे की उम्मीद कर रही है। लेकिन इस से राज्य का ही अलगाव बढ़ेगा।ज्
जमात के खिलाफ कार्रवाई से पूरे राज्य में बेचैनी तो बढ़ी है। यह कार्यकर्ता-आधारित धार्मिक पार्टी है। पिछले तीस साल से इसने राजनीति छोड़ कर सिर्फ धर्म पर ही ध्यान दिया है। यह अब नेपथ्य में चला गया संस्थान है। इसने आतंकवाद से खुद को अलग लिया है हालांकि अपनी लगाववादी विचारधारा से इसका जुड़ाव है।
जमात की अपनी राजनीतिक धार्मिक क्रियाकिलापों से समाज में हमदर्दी और सदस्यों के बीच अपनी एक जबर्दस्त तस्वीर बनी हुई है। स्कूलों के जरिए इसका एक विशाल नेटवर्क कश्मीरी समाज में है। 90 के दशक में घाटी में मदरसों के चलन से एकदम अलग। शिक्षा के मामलों में जमात ज्य़ादा प्रगतिशील है। धार्मिक बातों का प्रशिक्षण इन स्कूलों में बेहद ज़रूरी है लेकिन मदरसों की तुलना में इसकी शिक्षा में कट्टरपन नहीं है। मदरसों से शिक्षित होकर निकले युवाओं की तुलना में जमात हो डाक्टर, इंनीनियर, वैज्ञानिक, विद्वान, और प्रशासक निकले।
इस कारण जमात के खिलाफ हुई कार्रवाई का असर कश्मीरी समाज पर पड़ा है। साथ ही इसने अलगाववादी गुटों से केंद्र की बातचीत के मौके बंद कर दिए हैं। गिलानी कहते है, च्यदि कल को केंद्र विरोधी कश्मीरी गुटों से बातचीत करना चाहे तो इसे शायद ही राज्य में वार्ताकार मिल सके। फिर नई दिल्ली की सरकार ने ढेरों वरिष्ठ हुर्रियत नेताओं को जेल में बंद कर दिया है।ज्
जेल में बंद हुर्रियत नेताओं में शब्बरीर शाह, अल्ताफ अदम शाह, फंतूश गिलानी(सैयद अली गिलानी के दामाद)। ऐयाज अकबर, राजा मेराजुद्दीन कलवल, पीर सैफुल्ला, अफताब हिलानी शाह, उर्फ शाहिद उल इस्लाम, नईम खान और फारूख अहमद डार उर्फ बिट्टा करारे आदि हैं।
संदेश बड़ा साफ है। सरकार चाहती है कि अलगाववादी लोगों के खिलाफ माहौल बने ताकि और घाटी मे बिगड़ रहे हालात पर काबू पाया जाए।
कश्मीर पर्यवेक्षकों के अनुसार इन गिरफ्तारियों का मकसद है कि केंद्र ने राज्य के असंतुष्ट गुटों में बातचीत का सिलसिला खत्म कर दिया है और यह पूरी तौर पर राज्य के मुद्दों को हल करने में ताकत का इस्तेमाल करना चाहते हैं। लेकिन घाटी में फिलहाल जो हालात हैं उनसे जाहिर है कि इस नीति से कोई जमीनी बदलाव नहीं होना है।
यह नीति भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के दौर में शुरू हुई। लेकिन इससे कोई बदलाव आने की बजाए कश्मीर में हालात और ज्य़ादा खराब हुए हैं, कहते हैं नसीर अहमद जो कश्मीर पेंडिंग किताब के लेखक हैं। हुर्रियत नेताओं की झूठे आरोपों के तहत गिरफ्तारियों करके केंद्र ने अलगाववादी राजनीतिक संगठन तक अपनी पहुंच भी सीमित कर ली है। सेना ही इस सरकार का ऐसा औजार है जिससे यह कश्मीर को सुलझाना चाहती है।
कश्मीर में गहराती राजनीतिक शून्यता को और ज्य़ादा बढ़ाते हुए भारत सरकार के निर्वाचन आयोग ने जम्मू-कश्मीर में हो रहे लोकसभा चुनावों के साथ-सथ विधानसभा चुनाव कराने से इंकार कर दिया है। उससे राज्य में केंद्र सरकार का राज ही बढ़ा है जिसे माना जा रहा है कि राज्य में भाजपा का वैचारिक एजंडा ही अमल में आ रहा है। नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने विधानसभा चुनावों को देर से करने पर अपनी नराजग़ी जताई है। नेशनल कांफे्रंस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री ऊमर अब्दुल्ल ने विधानसभा चुनावों को टालने को पाकिस्तान के सामने मोदी का घुटने टेकना बताया है। स्थानीय मीडिया ने भी इस फैसले का विरोध किया है।
दरअसल ऐसी कोई वजह नजऱ नहीं आती जिसके चलते निर्वाचन आयोग ने कश्मीर में चुनाव टाले। यदि यह मान भी लें कि सुरक्षा कारणों से ऐसा हुआ तो भी इतिहास गवाह है कि इससे खराब हालात में भी राज्य में चुनाव हुए है। एक स्थानीय दैनिक ने अपने संपादकीय में लिखा। यदि राज्य सरकार जमीनी स्तर पर पंचायत और शहरी निकायों के चुनाव कराने में कामयाब रहती है और हिंसा में कोई बढ़ोतरी नहीं होती,यहां तक कि दक्षिण कश्मीर में भी। ऐसे में कोई वजह नहीं है कि विधानसभा चुनाव आम चुनाव के साथ ही क्यों नहीं कराए जा रहे?