शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’
दिल्ली नगर निगम में बहुमत प्राप्त करने के बावजूद आम आदमी पार्टी अपना मेयर नहीं बना पा रही है। भाजपा इसमें सबसे बड़ा रोड़ा है। इससे साफ़ होता है कि भाजपा हर हाल में लोकतंत्र की हत्या करके सत्ता चाहती है।
दिल्ली नगर निगम के मेयर चुनाव को लेकर जो बवाल भाजपा मचा रही है, वह सीधे तौर पर बिना जन समर्थन के लोकतंत्र की हत्या करके किसी भी तरह सत्ता हथियाने का ही प्रयास है। दिल्ली नगर निगम के चुनाव के एक महीने के अन्तराल में मेयर और डिप्टी मेयर का चुनाव 6 जनवरी को होना था। दिल्ली नगर निगम की बैठक में लगातार हो रहा हंगामा और मेयर चुनाव का टलना दिल्ली के उपराज्यपाल की भूमिका और कार्यशैली पर सबसे बड़ा प्रश्नचिह्न लगाता है। अगर उपराज्यपाल की इस नाकामी को वह स्वयं भी व$क्त रहते समझ लें, तो यह उनके और जनता के हित में होगा।
दिल्ली नगर निगम में मेयर का पद कोई छोटा-मोटा पद नहीं, बल्कि एक छोटी सरकार के मुखिया के बराबर है। लेकिन दिल्ली में नगर निगम के मेयर के पास कई शक्तियाँ मुख्यमंत्री से भी ज्यादा होती हैं। ऐसे में भाजपा की सुपर पॉवर कभी नहीं चाहती कि यह ताक़त उसके अलावा किसी और के हाथ में जाए। वैसे भी राजनीति में सारा खेल ही अब ताक़त का हो गया है, जिसे खोना कोई भी नहीं चाहता। दिल्ली नगर निगम के मेयर के पास इतनी ताक़त आज से नहीं है। जब दिल्ली मुख्यमंत्री नहीं होता था, तब दिल्ली का मेयर ही दिल्ली का बॉस होता था। आज भी दिल्ली नगर निगम का मेयर नगर निगम के अधिकार से जुड़ा कोई भी फ़ैसला लेने के लिए स्वतंत्र होता है। उसके लिए किसी भी फ़ैसले की स्वीकृति के लिए फाइल को दिल्ली के उप राज्यपाल के पास या केंद्र सरकार के पास भेजने की अनिवार्यता अथवा बाध्यता नहीं होती है। वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री को कोई भी फाइल पास करने के लिए उप राज्यपाल से स्वीकृति लेनी होती है। कई कामों के लिए मुख्यमंत्री को केंद्र सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है।
केंद्र शासित प्रदेश होने के नाते दिल्ली के मुख्यमंत्री के लगभग हर काम में केंद्र सरकार और केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त उप राज्यपाल पर निर्भर रहना पड़ता है। वहीं मेयर के पास निगम के किसी भी अधिकारी व कर्मचारी का तबादला करने की शक्ति होती है। कई बड़े फ़ैसले लेने की शक्ति होती है।
वास्तव में किसी भी राज्य का मुख्यमंत्री ही क्षेत्र का प्रशासक होता है, परन्तु दिल्ली देश की राजधानी है और केंद्र सरकार की सत्ता दिल्ली से ही चलती है, इस वजह से दिल्ली में मुख्यमंत्री के पास ज्यादा अधिकार हैं ही नहीं। साथ ही जो कुछ अधिकार दिल्ली के मुख्यमंत्री के पास थे भी, पिछले आठ वर्षों में केंद्र सरकार ने उनमें से अधिकतर अधिकार छीन लिए हैं। यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ जाकर उप राज्यपाल को दिल्ली का बॉस भी घोषित कर दिया है। अब मुख्यमंत्री को अपने सभी फ़ैसलों की फाइल उप राज्यपाल के पास भेजना अनिवार्य हो चुका है। इसके विपरीत मुख्यमंत्री के फ़ैसलों को मानने के लिए उप राज्यपाल बाध्य नहीं है। वहीं दिल्ली के मेयर की तरह मुख्यमंत्री अपनी सरकार के अधीन अधिकारियों व कर्मचारियों का तबादला तक नहीं कर सकता। यहाँ तक कि मुख्यमंत्री को सरकार से जुड़े फ़ैसले लेने के लिए भी उप राज्यपाल अथवा केंद्र सरकार की अनुमति लेनी आवश्यक है।
मेयर व मुख्यमंत्री की ताक़तों में अन्तर से साफ़ हो चुका है कि आख़िर भाजपा मेयर पद पर आम आदमी पार्टी के किसी पार्षद को क्यों नियुक्त नहीं होने देना चाहती? भाजपा के बवाल से साफ़ हो गया है कि उसने भले ही नगर निगम चुनाव में हार के बाद अपना मेयर बनाने वाले बयान से पलटी मार ली थी, परन्तु भाजपा नेताओं में अंदरख़ाने यह तय हो चुका था कि मेयर अपना ही बनाना है, चाहे किसी भी तरह सही।
अगर देखा जाए, तो आम आदमी पार्टी का ही नैतिक मूल्यों के आधार पर मेयर बनना चाहिए, क्योंकि उसने नगर निगम की 250 सीटों में से 234 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जो कि दिल्ली नगर निगम में जीत के लिए पर्याप्त सीटें हैं तथा अपना मेयर बनाकर इस छोटी सरकार को चला सकती है। वहीं भाजपा ने 104 सीटें जीती हैं। मेयर के चुनाव में मतदान के लिए भाजपा के पास दिल्ली के लोकसभा सदस्य हैं।
परन्तु भाजपा के पास कुल पार्षदों की संख्या बहुमत से काफ़ी कम है। कांग्रेस के नौ पार्षदों में से दो आम आदमी पार्टी में शामिल हो चुके हैं। कांग्रेस के बाक़ी सात सदस्य मेयर चुनाव में हिस्सा नहीं लेंगे। ऐसे में अब मेयर बनाने के लिए 133 पार्षदों के बहुमत की आवश्यकता है, जो भाजपा के पास किसी भी जोड़तोड़ के बाद भी नहीं हैं। परन्तु भाजपा बड़े नेताओं की जुबान से सत्ता के नशे का स्वाद नहीं जा रहा है, इसीलिए वे मेयर अपना ही बनाना चाहते हैं। पेंच इसी में फँसा हुआ है कि आम आदमी पार्टी दिल्ली नगर निगम की सत्ता की हक़दार है व भाजपा इसे हड़पना चाहती है। अगर आम आदमी पार्टी का मेयर बन जाता है, तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और ताक़तवर हो जाएँगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह ही केजरीवाल भी अपनी मुट्ठी में सभी ताक़तों को समेटकर रखना चाहते हैं। परन्तु दोनों में अन्तर यह है कि अरविंद केजरीवाल जनहित से जुड़े फ़ैसलों में जनहित कार्यों के लिए चर्चा में हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई वादों की नाकामी के चलते लोगों का निशाना बनते जा रहे हैं।
वहीं अगर भाजपा ने अपना मेयर बना लिया, तो उसकी नीतियों तथा सत्ता हड़प नीति पर सवाल उठेंगे। यह अलग बात है कि भाजपा नेता इसकी परवाह नहीं करते। भाजपा कई राज्यों में पूर्ण समर्थन के बिना ही सरकार पहले भी बना चुकी है, यहाँ तक कि उसने कई राज्यों में कांग्रेस की सरकार तोडक़र सत्ता हथियायी है। कई राज्यों में वह इस तरह की नाकाम कोशिश भी कर चुकी है। फिर भी अगर दिल्ली नगर निगम में भाजपा का मेयर बना, तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की ताक़त नहीं बढ़ सकेगी। परन्तु नगर निगम में भाजपा के पास पार्षदों की संख्या इतनी है कि अगर उसके पाले में 19-20 पार्षद आ जाएँ, तो वह दिल्ली नगर निगम में अपनी सत्ता चला सकती है। वहीं अगर नहीं बना सकी, तो उसके पार्षद आम आदमी पार्टी की निगम सत्ता को हर रोज़ हंगामेदार व प्रभावित करने के लिए पर्याप्त हैं।
सर्वविदित है कि दिल्ली नगर निगम के चुनाव जीतने के लिए केंद्र सरकार ने चुनाव टालने से लेकर हर तिकड़म भिड़ायी थी, परन्तु उसकी कोई योजना उसके काम नहीं आ सकी। वैसे उसने जो कोशिश की, उससे उसकी बड़ी हार छोटी हार में बदल गयी। अब अगर नगर निगम में उप राज्यपाल वीके सक्सेना की भूमिका की बात करें, तो वह पहले ही आम आदमी पार्टी के रास्ते में रोड़े बिछा चुके हैं। उप राज्यपाल ने बड़ी ही चतुराई से मेयर के चुनाव के लिए भाजपा पार्षद सत्या शर्मा को पीठासीन अधिकारी नामित कर दिया। इस तरह से पक्षपातपूर्ण पीठासीन अधिकारी की नियुक्ति आम आदमी पार्टी ने नाराज़गी व्यक्त करते हुए भाजपा पर कई आरोप लगाये। उप राज्यपाल को आम आदमी पार्टी की सरकार ने पीठासीन अधिकारी के लिए मुकेश गोयल का नाम भेजा था, परन्तु उप राज्यपाल ने उनके स्थान पर भाजपा पार्षद को नियुक्त कर दिया। और फिर वही हुआ, जिसकी आशंका थी। मेयर चुनाव के दिन भाजपा पार्षदों के विकट हंगामे के बाद पीठासीन अधिकारी ने मेयर चुनाव की प्रक्रिया को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया। साफ़ है कि भाजपा इस दौरान शान्त नहीं बैठेगी और दिल्ली नगर निगम में अपनी सत्ता बनाने के लिए अंदरख़ाने हर खेल खेल रही होगी।
सवाल उठ रहे हैं कि क्या उपराज्यपाल ने नगर निगम में भाजपा की हार के बावजूद उसकी सत्ता वापसी के लिए यह चाल जानबूझकर चली है? क्या इस पक्षपातपूर्ण व अवसरवाद की चाल से आम आदमी पार्टी के पार्षद भाजपा की ओर मुड़ जाएँगे। यह बात पहले से ही चल रही है कि आम आदमी पार्टी के पार्षदों को भाजपा तोडऩे की ताक में लगातार लगी हुई है। परन्तु वह एक चालाक बिल्ले की तरह संत मुद्रा में बैठी है, ताकि जनता में यह चर्चा गर्मी न पकड़ सके कि भाजपा अनैतिक रूप से दिल्ली नगर निगम की सत्ता हथियाने की कोशिश कर रही है। उप राज्यपाल वीके सक्सेना द्वारा नियुक्त 10 मनोनीत पार्षदों को पहले शपथ दिलाना भी कहीं न कहीं इसी चतुराई का नतीजा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इस पर काफ़ी नाराज़ हैं। उन्होंने इसे संविधान के अनुच्छेद-243(आर) का उल्लंघन बताते हुए कहा है कि नगर निगम सदन में मनोनीत सदस्यों के मतदान करने पर रोक है व उनसे मत डलवाने का प्रयास करना असंवैधानिक है। आम आदमी पार्टी के तीन राज्यसभा सदस्य व दिल्ली विधानसभा के अध्यक्ष की ओर से नामित 14 विधायक भी मेयर व डिप्टी मेयर के लिए होने वाले चुनाव में मतदान कर सकते हैं। जानकार कह रहे हैं कि दिल्ली नगर निगम में मेयर व डिप्टी मेयर की चुनाव प्रक्रिया को भाजपा जबरन जटिल बना रही है। पहले भी राजनीतिक पार्टियों को ऐसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, जिसकी वजह दिल्ली नगर निगम अधिनियम द्वारा उप राज्यपाल को दी गयी शक्तियाँ हैं। दिल्ली नगर निगम डीएमसी अधिनियम के अनुसार काम करता है, क्योंकि नगर निगम विधायिका नहीं है। भारतीय संविधान में केवल विधायिका, जैसे विधानसभा, लोकसभा व राज्यसभा के लिए ही नियम हैं, जहाँ $कानून बनाये जाते हैं। नगर निगम अधिनियम में अलग तरह के नियम हैं। संशोधित डीएमसी अधिनियम, 2022 ने केंद्र अथवा उपराज्यपाल को सभी शक्तियाँ दे दी हैं। उपराज्यपाल केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त होता है। उपराज्यपाल वीके सक्सेना भाजपा समर्थक पहले ही हैं, जिससे आम आदमी पार्टी अपनी जीत के बाद भी नगर निगम में सत्ता हासिल कर पाने में अड़चनों का सामना कर रही है। कहने को उप राज्यपाल को संवैधानिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए दिल्ली नगर निगम की सत्ता में आम आदमी पार्टी को ही सत्ता चलाने का अवसर देना चाहिए।