पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जो संघर्ष उन्होंंने लोकतंत्र की स्थापना के लिए किया, उसे देश युगों युगों तक याद करेगा। वे अपने एकला चलो के मार्ग पर ऐसा कार्य कर गये जो स्थापित नेता भी नहीं कर सके।
आजादी के बाद देश को चलाने के लिए स्वस्थ लोकतंत्र की जरूरत थी, उस जरूरत को वह निरंतर अपनी विचार धारा से सींचतें रहे। लोकतंत्र की गाड़ी को देश में चलाने के लिए एक सशक्त विपक्ष की प्रेरणा देते रहे और उसी मार्ग पर चलकर देश को वक्त वक्त पर आगाह करते रहे।
लोकतंत्र में विपक्ष का होना जरूरी है, उस लोकतंत्र की अटलजी अलख जगाते रहे। वाम पंथ तो था, लेकिन उसकी भूमिका कुछ ही राज्यों तक सीमित रही। देखेंं तो पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा के अलावा वह पसर नहीं सका। उम्मीद करते थे कि इसमें कमिटेड विचार धारा के होते हुए वह कुछ कर दिखायेंगे, पर अपने चमत्कार से वह भारतीय जनता को प्रभावित करने में नाकामियाब रहेे। कामयाब होते तो कम से कम संसंदीय सीटें न होते हुए भी पार्टी का पूरे देश में ढांचा खड़ा किये रहते। लेकिन इसका अभाव खटकता है। भारत की जनता ने हमेशा विकल्प की तलाश की, यदि वाम विचार धारा भी अपनी पैठ जनता में बिठा पाती और पूरे भारत में अपनी पार्टी कैडर को मजबूत कर पाती तो स्वस्थ लोकतंत्र को गति मिलती। इसका अभाव प्राय: खटकता है। आजादी के बाद की अखिल भारतीय पार्टी कांग्रेस के अलावा अन्य राजनीतिक दल नहीं बन पाये। इस प्रयास में सिर्फ एक ही नाम उभरता है, वह है अटल बिहारी वाजपेयी। उनका समग्र जीवन राजनीति को समर्पित रहा। इसी सर्मपण के कारण आज कांगे्रस के विकल्प के रूप में कोई पार्टी है तो वह है – भारतीय जनता पार्टी इसका आर्किटैक्ट कोई है तो वह स्वर्गीय पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी हैं।
राजनीतिक विश्लेषक या इतिहास कभी मूल्यांकन करेगा तो वाजपेयी उस स्थान को भरते हैं जो भारत में लोकतंत्र के एक प्रहरी के रूप में दिखते हैं। आजादी मिलने के बाद इन पूरे सात दशकों में वह संसद और संसद के बाहर उस कर्तब्य को निभाते रहे जो भारतीय लोकतंत्र के लिए आवश्यक था। इसमें यह कोई जरूरी नहीं कि वे सत्ता में ही रहते। सत्ता के बाहर बिपक्ष की भूमिका उनसे अच्छा कोई दूसरा राजनीतिज्ञ नहीं निभा पाया। इसलिए वह सम्मानीय नेता और वास्तविक रूप में भारत रत्न थे। प.जवाहर लाल नेहरू, लालबहादुर षास्त्री और इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्रित्व काल में तीन मुख्य लड़ाइयां 1962 की चीन के साथ, 1965 और 1971 की पाकिस्तान के साथ लड़़ी गईं, उस बाह्य आपातकाल में अटल बिहारी वाजपेयी ने विपक्ष में होते हुए देश के सम्मान और लोकतंत्र के लिए सरकार के साथ भरपूर सहयोग किया। 1971 की पाकिस्तान के साथ लड़ाई में घोर विरोधी इंदिरा गांधी को भी दुर्गा का अवतार कहने से नहीं चूके। ऐसा साहस विरलों में ही होता है, ऐसे ही विरलों में वाजपेयीजी थे। अपने विरोधी के अच्छे काम की तारीफ करने में नहीं हिचकिचाते थे। यदि हम आज के सरकार और विपक्ष की तुलना करें तो ये बातें काल्पनिक लगती हैं। अटलजी ने बहुत बार जिक्र किया है कि मत भिन्नता भले ही हो, पर मन भिन्नता नहीं होनी चाहिए। मानवीय मूल्यों के वे पक्षधर थे। तभी तो वे राजनीति की इतनी लंबी पारी में अडिग रहे।
भारतीय राजनीति के स्वतंत्रता के बाद के परिदृश्य में देखें तो बहुत से नेताओं का इतिहास पाला बदलने का रहा है। यानी आया राम और गया राम की बाते होती रही हैं। बड़े – दिग्गजों ने पार्टियां बदलीं, पर अटल अटल ही रहे। उन्हें सत्ता का ऐसा लालच नहीं रहा कि वह सत्ता सुख पाने के लिए दूसरी पार्टी का दामन थाम लें। 1975 के आपात काल के बाद कांग्रेस यानी श्रीमती गांधी जिन्हें ”इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिराÓÓ कह कर उन्हीं की पार्टी के चाटुकारों ने नारे दिये, उसी को शिकस्त देने के लिए जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सारी राजनीतिक पार्टियां जो कांग्रेस का विरोध कर रही थीं, बाम- दक्षिण सभी का संगम उसमें था। एकता के प्रयोग ने 1977 में उस दुर्गा को सत्ताच्युत कर दिया, उसमें अटल बिहारी वाजपेयी एक प्रमुख घटक दल जनसंघ का नेतृत्व कर रहे थे। सब दलों ने अपनी आइडिंटीटी को समाप्त कर जनता दल का निर्माण किया था, उसमें कांगे्रस से ताजा ताजा टूटे जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा और नंदनी सथपती ने कांग्रेस फोर डेमोक्रेसी और बाम पंथी दल घटक के रूप में शामिल हो कर पहली केंद्र में विपक्षी पार्टियों की सरकार बनवाई। यह संयोजन ज्यादा नहीं चल पाया। 2 साल बाद जनता सरकार टूट गई। तब जो जनसंघ घटक दल था, वह अपने राष्ट्रीय स्वयं सेवक से दल आरएसएस से नाता नहीं तोडऩा चाहता था, लेकिन जनता दल के अन्य घटकों को यह मंजूर नहीं था। इस मत भिन्नता में बाजपेयी वाला धड़ा टूट गया। इस धड़े ने 1980 के आम चुनाव में अपनी पार्टी का निर्माण किया और उसका नाम रखा भारतीय जनता पार्टी। उसके बाद जनता दल के कितने ही टुकड़े हुए, लेकिन वे केंद्रीय राजनीति में अखिल भारतीय दल के रूप में नहीं उभर पाये। लेकिन सिर्फ अटल विहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले दल भाजपा जिसका 1980 के चुनाव में संसद में दो ही सीटें मिली थीं, उस दल ने आगे जाकर वाजपेयीजी के अथक प्रयासों से केंद्र में सरकार बनाई, उन प्रयासों में एक बार 13 दिन की और फिर 13 महीनें की सरकार बनाने के बाद आखिर में पूरे पांच साल के कार्यकाल की सरकार वाजपेयीजी ने दी। इन घटनाक्रमों को इस लिए याद किया जा रहा है कि मत भिन्नता होने के बावजूद वे सभी दलों के प्रिय पात्र बने रहे। यही सच्चे लोकतंत्र की पहचान है।
2009 में अचानक वाजपेयीजी पक्षाघात से पीडि़त हुए, इस कारण वे समाचारों से एक दम दूर चले गये उनका नाम लेने वाला भी कोई नहीं रहा। जबकि 2014 में कांग्रेस पर चुनावों में भ्रष्टाचारों की झड़ी लगने के बाद भारतीय जनता का मन कांग्रेस से उखड़ गया था; अब जनता को ऐसे विकल्प की तलाश थी जो केंद्र में सरकार बना सके। इसके लिए भारतीय जनता पार्टी ही एक ऐसा विकल्प जनता को दिखा जो केंद्र की बागडोर संभाल सकती थी, फिर आनन फानन में केंद्र में जनता ने पूर्ण बहुमत से भाजपा को सरकार बनाने का अवसर दिया। इन चार सालों के गुजर जाने के बाद वाजपेयीजी का नाम लेने वाला कहीं नहीं दिखा। उनके प्रिय शिष्य जो उत्तराधिकारी बने। उन्होंने भी कोई खोज खबर नहीं की, आप इन चार सालों का समाचार का रिकार्ड देखेंगे तो वाजपेयीजी के विचार और उनकी प्रेरणा पर किसी राजनीतिक शिष्य ने बात नहीं की और समाचारों से दूर हो गये। जून के महीने उनकी हालत बहुत नाजुक होने पर एम्स में भर्ती किये गये, पर केंद्र सरकार ने विशेष खोज खबर नहीं की, अचानक एक दिन समाचार आया कि राहुल गांधी अस्पताल में वाजपेयीजी का हाल समाचार लेने गये हैं, इस घटना ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कान खड़े कर दिये तब तो उनके दौरे एम्स लगने लगे। आज वाजपेयीजी हमारे बीच नहीं हैं, पर कहीं उनकी आत्मा देख रही होगी कि स्वार्थ कितना अंधा होता है। जो मृत शरीर और उनकी राख को भुनाने में लगे हैं। 14 अगस्त के दिन वाजपेयीजी वैंटिलेटर पर आईसीयू में थे हमें तो लग ही रहा था कि इनका जिंदा रहने का वक्त अब नहीं है। 15 अगस्त को जब प्रधानमंत्री लालकिले की प्राचीर से भाषण दे रहे थे, तब मैंने उनके एक शब्द को पकड़ा, जिसमें वे वाजपेयीजी को भूतकाल में ले जा चुके थे। शायद इसकी ओर लोगों का ध्यान नहीं गया पर मैं उसी क्षण समझ चुका था कि लालकिले की प्राचीर से अनजाने में ही वे शब्द निकले होंगे; जो सत्य के निकट थे।
मुझे तो इस बात में भी संदेह है कि उनकी मृत्यु 16 को हुई हो, ऐसा आभास होता है कि वे 14 अगस्त को विदा हो चुके होंगे, पर प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के इस राष्टीय पर्व को देखते हुए निधन की घोषणा न करवाई हो, अक्सर ऐसी घटनायें बड़़ी हस्तियों के निधन के समय हो ही जाती हैं।
एक और पक्ष वाजपेयीजी के निधन के बाद उनकी अस्थियों के विर्शजन पर किया जा रहा है, उसमें किस की भावना जुड़ी है? जब प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का निधन हुआ था, तब उन्होंने इस बात का इजहार किया था कि मेरी अस्थियों का विर्शजन प्रयाग संगम में करना, यह किसी धार्मिक मान्यता से नहीं, बल्कि मैंने यहां से गंागा यमुना के कितने ही रूप देखे हैं। यह उनकी इच्छा थी, पर वाजपेयीजी ने ऐसा कहीं लिखा हो या किसी से कहा होता तो शायद यह बात छिपी नहीं रहती, लेकिन लगता है वर्तमान देश का नेतृत्व उनके साथ अति स्नेह जताकर ऐसा कर रहे हों या फिर यह आने वाले चुनाव के लिए अपनी जमीन तैयार कर रहे हैं। वाकई यदि वाजपेयीजी को अस्थियों के ऐसी विर्शजन की इच्छा थी, तब ही यह बात गले से नीचे उतरती है, नही ंतो यह पूरे देश में अस्थियों के विर्शजन के साथ जगह जगह अटल नामों की बेमौसम बौछार चुनावी स्टंट के अलावा और कुछ नहीं है।
अटलजी के प्रति हमारी विनम्र श्रद्धांजलि, संसदीय इतिहास में से लोकतंत्र का एक प्रहरी हमने खो दिया है।
हमें उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए कि विकट से विकट परिस्थितियों में कैसे अडिग रहना है और हार नहीं माननी है।