विश्व में लोकतंत्र को नया आयाम देने वाले हिटलर साहब कहा करते थे कि एक झूठ को बार-बार बोलो तो वह सच लगने लगता है। तभी तो हमारे नेता भी ऐसा ही करते हैं। इसी प्रकार किसी गीत को बार-बार सुनो तो वह अच्छा लगने लगता है। ‘भ्रष्टाचार’ भी कुछ ऐसा ही शब्द है। अपने देश में यह इतनी बार बोला जाता है कि अब यह भी लोकतंत्र का पांचवा स्तम्भ लगने लगा है। बाकी चार स्तंभ तो कुछ कमज़ोर हैं पर यह पांचवा दिनों-दिन मज़बूत होता जा रहा है। भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी कितने मोहक शब्द लगने लगे हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि भ्रष्टाचारी शब्द जुड़ता है देश के नेताओं के साथ, बड़े उद्योगपतियों के साथ, या बड़े नौकरशाहों के साथ यानी छोटा आदमी तो इस फहरिस्त में आता ही नहीं। हम क्या चाहते हैं? हम चाहते हैं अपने बच्चों को बनाना बड़ा नेता, बड़ा उद्योगपति या फिर बड़ा अफसर।
पर यहां एक विरोधाभास है। जो भी सरकार आई वह यही कहती है – ‘भ्रष्टाचार’ खत्म करके ही दम लेंगे। हालांकि ऐसा होता नहीं उल्टे होता तो यह है – ‘मजऱ् बढ़ता गया ज़्यों-ज़्यों दवा की’। तो इस धमकी से डरने की ज़रूरत नहीं यह केवल जुमला है जो बोलना पड़ता है। वैसे आज हम छाती फुला कर और सिर उठा कर कह सकते हैं कि हमने भ्रष्टाचार के मामले में दुनिया को कहीं पीछे छोड़ दिया है। देखना यह है कि भ्रष्टाचार है क्या? छोटी सी बात है – ‘पैसा दो काम लो’। बस इतना ही तो है। आपने ज़मीन का सौदा करना है तो राजस्व विभाग के कर्मचारी को पैसा दो। यदि विमान का सौदा है या तोप का सौदा है तो नेताओं को पैसा दो। अब तो भ्रष्टाचार को नए नाम भी दिए जाने लगे हैं- जैसे ‘डोनेशन’। बच्चे हमारी तरह ‘लायक’ हों और डाक्टर या इंजीनियर बनने की सलाहियत उनमें न हो तो निराश न हों। ऐसे योग्य छात्रों के लिए प्रोवीजऩ है। पर उसके लिए आपका अमीर होना ज़रूरी है। आप अमीर हैं, उद्योगपति हैं, तो पैसा फेंक दीजिए। मेडिकल या इंजीनियरिंग कालेज की एडमीशन आपके लाडलों के लिए घर तक चल कर आएगी। इस पैसा फेंकने को कहते हैं ‘डोनेशन’। बाकी बात रही गऱीब की, तो भाई यदि उसे डाक्टर या इंजीनियर बनवाना होता तो भगवान उसे अमीर घर में पैदा करता, भीखू के घर नहीं। हां यदि मामला स्कूल इत्यादि में दाखिले का हो तो स्कूल में ‘वाटर कूलर’ या ‘एसी’ पंख लगवा दो। मतलब यह कि जितना बड़ा काम उतना बड़ा दाम। इस सरकार ने तो शुरू में ही कह दिया था कि मुफ्त में कुछ नहीं मिलेगा।
अब बताओ इतनी सरल बात हमारे जैसे कुछ लोगों को समझ में नहीं आती। कभी सीबीआई, कभी ईडी, कभी विजिलेंस जैसे विभागों को लगा देते है काम पर। बात तो सही है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो दाम कैसे बढ़ेगे। आखिर इन विभागों के लोगों के भी तो मुंह और पेट लगे हैं।
भ्रष्टाचार चुनाव और देशभक्ति का भी आपस में काफी गहरा गठजोड़ है। जैसे चुनाव पास आते हैं सब में देश भक्ति जागती है। उनके अंदर का भगत सिंह जीवित हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि ऊपर दिए गए सभी विभाग हरकत में आ जाते हैं। फिर विपक्ष के नेताओं से उन मामलों में पूछताछ शुरू हो जाती है जो दशकों पहले कथित रूप से घट चुके होते हैं। इस सारी प्रक्रिया में पांच-सात महीने लग जाते हैं और चुनाव निपट जाते हैं। फिर यह पूछताछ और कथित जांच एक बक्से में डाल दिए जाते हैं, तब तक के लिए जब तक नए चुनाव नहीं आ जाते। ये कुछ ऐसा ही होता है जैसे गर्मियां आने पर सर्दियों के कपड़ों को सुरक्षित अलमारियों में रख दिया जाता है।
इसके बाद फिर वही रोज़मर्रा के काम शुरू हो जाते हैं। सब कुछ भुला दिया जाता है। गली मुहल्ले के छुट भैया नेता एक दूजे से बहस करते, गाली गलौज करते या सिर फुटोल करते रहते हैं पर ऊपर के स्तर पर कोई फर्क नहीं पड़ता। कार्यकर्ता दरियां बिछाने और उठाते रहते है, उम्र गुजऱ जाती है। ऐसा करने पर उनकी जिं़दगी में कोई बदलाव नहीं आता। यह ऐसा ही है जैसा हम लोगों के जीवन में घटता है। धोबी के हाथों पिटने और बोझा ढोने के अलावा हमारे जीवन में कुछ नहीं है। न तो हमारी संपत्ति है और न ही हमारे पास कोई धन दौलत। इसके अलावा हमारे लोकतंत्र में पूंजीपति, नौकरशाह और नेता नहीं होते, इसलिए शायद हमारे समाज में भ्रष्टाचार नहीं होता। हम जो है जैसे हैं अच्छे-बुरे, अक्लमंद या बेअक्ल पर ‘भ्रष्टाचारी ‘ नहीं हैं।