‘लेखकों को गप के लिए स्पेस ढूंढ़ना पड़ेगा’

वरिष्ठ कवि  राजेश जोशी ने साहित्य की हरेक विधा में अपना हाथ आजमाया और उसे बखूबी अंजाम तक भी पहुंचाया है. कविता के अलावा उन्होंने कहानी, नाटक, नुक्कड़ नाटक, आलोचना, नोटबुक भी लिखे हैं. बच्चों के लिए भी लिखा. वे 66 की उम्र में भी युवाओं की तरह परिवर्तन को स्वीकारते हैं. यही वजह है कि पाठकों को वे ‘किस्सा कोताह’ जैसी रचना दे पाने का माद्दा रखते हैं. ‘किस्सा कोताह’ में आत्मकथा है. परंपरा है. इतिहास है. अगर राजेश जोशी की मानें तो किताब को किसी विधा में शामिल करने के बजाय मुक्त आख्यान मान लेने में कोई हर्ज नहीं. इसी किताब के बहाने उनसे स्वतंत्र मिश्र की बातचीत.

 

 ‘किस्सा कोताह’  में आप कह रहे हैं कि विधा तय करने से क्या होगा, क्योंकि कोई विधा साबुत बची नहीं. कहानी, कहानी नहीं रही. उपन्यास, उपन्यास नहीं रहा. कविता तो खैर… टिप्पणी चाहूंगा.

हम ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां चीजें बहुत तेजी से बदल रही हैं. हम औद्योगिक युग से निकल कर तकनीकी युग में पहुंच चुके हैं. बदलाव की वजह से बहुत सारी चीजें टूटती हैं और नए तरीके से आकार लेती हैं. एंटी नॉवल (18वीं-19वीं सदी में यूरोप में सामान्य परंपरा से हटकर उपन्यास लिखा जाने लगा जिसमें कोई कथा-सूत्र देखने को नहीं मिलता था) का भी दौर आया. भाषा में बदलाव आया. अकविता और अकहानी का भी दौर आया. नेहरू से लोगों का मोहभंग हुआ था. लोगों ने जेपी की बात सुननी शुरू कर दी. समाज में आए बदलाव का असर लेखन में भी दिखा. शिल्प में भी बदलाव आए. इसलिए विधा ही जब अपने मूल रूप में स्थायी नहीं रहती तब विधा तय करने का क्या मतलब? खासकर जब आप मुक्त आख्यान लिख रहे हैं तब आप विधा कैसे तय करेंगे.

क्या गपबाजी के लिए स्पेस कम हुआ है?

गप के लिए स्पेस बनाना होगा. दरअसल गप खुद में एक स्पेस है. भाषा में अगर स्पेस की बात करें तो यह जरूरी होगा कि आप कल्पना करें. गप कोई यथार्थ से परे नहीं है. लेकिन गप यथार्थ को अतिशयोक्ति में बदल देता है. गप कल्पनाशीलता के लिए एक स्पेस ढूंढ़ता है. वह उड़ान के लिए एक स्पेस ढूंढ़ता है.

शहर का किस्सा सुनाने वाले मनवा भांड के लिए आपने एक कविता लिखी है. क्या ऐसा लगता है कि मनवा भांड हमारे बीच से गायब-से हो गए हैं?

सच है कि मनवा भांड जैसे लोग हमारे बीच नहीं रहे. समाज जिस गति से बदल रहा है वह गप के दूसरे प्लेटफॉर्म ढूंढ़ लेगा. शहरों या गांवों में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो पटरियों पर बैठ कर तरह-तरह के किस्से सुनाते रहते हैं. अब लेखकों को गप के लिए स्पेस बनाना होगा. स्टोरी टेलिंग कहानी की एक शैली के तौर पर ही विकसित हो गई. यूरोप में स्टोरी टेलर मजमे वाली जगह जाकर  लोगों को किस्सा सुनाते हैं. भारत में भी इसकी परंपरा रही है. यहां अाल्हा-ऊदल, जात्रा, जट-जटिन जैसी स्टोरी टेलिंग की बड़े लोकप्रिय शैलियां रही हैं. आप देखेंगे कि स्टोरी टेलिंग में खूब सारी गप होती थी.

आल्हा-ऊदल जैसी परंपरा खत्म हो रही है तो क्या इससे नाटक को नुकसान पहुंचा है? 

समाज में बदलाव आएंगे तो उसका असर लेखन पर भी दिखेगा. पारंपरिक चीजों को तोड़ कर नई शैली में चीजें आपके सामने आने लगती हैं. कोई चीज गायब नहीं होती है बस उसका रूप बदलता रहता है. संयुक्त परिवार वाला सुकून अब एकल प्रथा के अस्तित्व में आने से गायब हो गया है. संयुक्त परिवार में एक किस्म का सुकून था. संयुक्त परिवार की कुछ अच्छाइयां थीं तो कुछ बुराइयां भी. संयुक्त परिवार की व्यवस्था व्यक्तिगत विकास और स्वतंत्रता को बाधित करती थी. इन्हीं वजहों से संयुक्त परिवार टूटा. लेकिन संयुक्त परिवार में साथ-साथ रहने से कई तरह की सुरक्षा भी मिलती है. मैंने बहुत पहले संयुक्त परिवार के लिए एक कविता लिखी थी. मैंने उसमें कहा था कि एकल परिवार की वजह से चोरों को ज्यादा सुविधा मिल गई है. एकल परिवार में सारे सदस्य बाजार या सिनेमा निकलते हैं तब चोरों को सूना घर मिल जाता है. ऐसा संयुक्त परिवार में नहीं होता. संयुक्त परिवार में मन की बातें आसानी से शेयर की जा सकती थीं. अब एकल परिवार में यह संभव नहीं हो पा रहा है जिससे तनाव बढ़ा है. संयुक्त परिवार में काम आपस में बंट जाने से सबको स्पेस मिल जाता था. आप दूसरों को काम देकर अपने लिए समय निकाल सकते थे.

आप लिखते हैं कि सतर्कता आदमी को चालाक बनाती है और बहक आदमी को सहज. बहक आदमी को अराजक भी तो बनाती है और पारिवारिक व्यवस्था में उससे खलल भी पैदा होता है.

बहक कई तरह की हो सकती है. सतर्कता भी कई तरह की हो सकती है. सतर्क होकर कई लोग अपने काम को अच्छी तरह अंजाम देते हैं. लेकिन जब कामकाज में जरूरत से ज्यादा सतर्क होते हैं तब आपके भीतर एक किस्म की चालाकी भी पनपने लगती है. इसी तरह बहक का भी मामला है कि आप किसलिए बहक रहे हैं. अपने को मुक्त करने के लिए बहक रहे हैं या दूसरों को परेशान करने के लिए. अगर आप दूसरे ढंग से बहकेंगे तो उससे अराजकता पैदा होगी. पर किताब में बहक का प्रयोग सतर्कता के विलोम में किया गया है. किताब में बहक का मतलब खुद को मुक्त करने से है. रचना का एक काम मुक्त करना भी है. आखिरकार आप अपने को मुक्त नहीं करेंगे तब बहुत सारी सूक्ष्म चीजों को आप नहीं समझ पाएंगे. कल्पनाशीलता को सतर्क होकर ज्यादा बांधने की कोशिश करेंगे तब कहीं-न-कहीं आप उड़ान को रोकने की कोशिश कर रहे हैं.

आज बच्चे पत्र-पत्रिकाओं से दूर होकर टेलीविजन में घुसते चले जा रहे हैं. ऐसे में बच्चों के लिए लिखने वालों को किन चुनौतियों से पार पाना होगा?

हमारे यहां खासकर बच्चों के लिए हिंदी में जो लेखन हो रहा है वह अपने स्वरूप में पारंपरिक ही बना हुआ है. बच्चों को एनीमेशन के जरिए कहानियां दिखाई जा रही हैं. उसकी भाषा बुरी है. बच्चों पर इसका गलत असर पड़ रहा है. यहां बनने वाली एनीमेशन फिल्मों का स्तर विश्वस्तरीय नहीं है. कार्टून का स्तर भी निम्न कोटि का है. पहले वर्ल्ड डिजनी शो आता था. उसका स्तर बहुत बढ़िया था. मीडिया (इलेक्ट्रॉनिक) का आकर्षण चाहे जितना बढ़ जाए लेकिन उससे प्रिंट मीडिया पूरी तौर पर खत्म नहीं होगा. इसलिए किताब या प्रिंटिंग वर्ल्ड की जरूरत हमेशा बनी रहेगी. अब आपकी चुनौती होगी कि किताब को इतना आकर्षक बनाया जाए कि वह रंगीन टीवी के सामने कुछ देर टिक सके. किताब को आकर्षक बनाकर ही आप बच्चों को स्क्रीन से हटा सकेंगे. नए समय की भाषा, नए समय के सवाल, नए समय के परिवर्तन के साथ जो कहानियां जुडेंगी, उसे ही बच्चे पढ़ेंगे. अब बच्चे मोबाइल और इंटरनेट को इतनी आसानी से हैंडल करते हैं कि उन्हें शेर और भालू की कहानियां कहां पसंद आएंगी. आपको नई तकनीक के बारे में कहानी गढ़नी पड़ेगी. आप नई भाषा में कहानी नहीं देंगे तब वे क्यों पढ़ेंगे. पहले के लेखकों ने शेर और भालू से कहानियां गढ़ीं वैसे ही आज के लेखकों को नए समय के हिसाब से कल्पनाएं गढ़नी होंगी.  गप यथार्थ को अतिशयोक्ति में बदलता है. गप कल्पनाशीलता और उड़ान के लिए एक स्पेस ढूंढ़ता है.