छत्तीसगढ़ में प्राकृतिक संसाधनों का अकूत भंडार है, लेकिन ऐसा लगता है कि इसका फायदा सिर्फ उन्हीं लोगों को हो रहा है जिन पर मुख्यमंत्री रमन सिंह की कृपादृष्टि है. आशीष खेतान की रिपोर्ट.
साल 2011 की बात है. दीवाली का मौका था. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में चर्चित अखबार ‘पत्रिका’ के स्थानीय संपादक गिरिराज शर्मा के पास एक विशेष उपहार पहुंचा. राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह के कार्यालय की तरफ से उन्हें दो बड़े-बड़े डिब्बे भेजे गए थे. तहलका से बात करते हुए शर्मा बताते हैं कि पहले डिब्बे में सूखे मेवे थे और दूसरे में एक बढ़िया वीडियो कैमरा, 1000 रु के कड़कते 51 नोट और सोने का एक छोटा-सा राजसिंहासन. 2003 से रमन सिंह छत्तीसगढ़ का राजसिंहासन संभाल रहे हैं. इतने महंगे उपहार का उद्देश्य सिर्फ शर्मा को खुश करना नहीं बल्कि शायद यह संदेश देना भी था कि अगर वे चाहें तो सत्ता से होने वाले फायदों के एक हिस्सेदार वे भी हो सकते हैं. शर्मा ने धन्यवाद प्रेषित करते हुए यह उपहार लौटा दिया. इससे भी अहम तथ्य यह है कि सत्ता के दुरुपयोग और सरकार व धनपशुओं के बीच के गठजोड़ के बारे में खबरें छापकर पत्रिका लगातार राज्य की भाजपा सरकार को आईना दिखाने का पत्रकारीय धर्म निभाता रहा.
नतीजा यह हुआ कि अखबार को मिलने वाले सारे सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए. विधानसभा कार्यवाही के कवरेज के लिए जाने वाले रिपोर्टरों के पास बंद करवा दिए गए. अखबार के कार्यालय पर भाजपा कार्यकर्ताओं की भीड़ ने हमला किया. मंत्रियों और अधिकारियों ने इसके संवाददाताओं से मिलना बंद कर दिया. किसी आयोजन में यदि मुख्यमंत्री शामिल हो रहे हैं तो यह तय था कि ‘पत्रिका’ के संपादक को इस आयोजन का निमंत्रण नहीं जाएगा. दुर्भावना का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ. मुख्यमंत्री ने खुद दो पन्ने का नोट लिखते हुए ‘पत्रिका’ के राज्य ब्यूरो प्रमुख की पत्नी जो तृतीय श्रेणी की कर्मचारी थीं- को फर्जी आरोपों में उनकी सरकारी सेवा से बर्खास्त कर दिया. दस्तावेज बताते हैं कि बर्खास्तगी की कार्रवाई मुख्यमंत्री के आदेश पर शुरू की गई. ऐसा अब तक शायद ही कहीं देखा गया होगा कि लिपिक वर्ग के किसी कर्मचारी के सेवा संबंधी मामले में खुद मुख्यमंत्री ने दिलचस्पी ली हो और उसकी बर्खास्तगी सुनिश्चित की हो. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कानून के समक्ष बराबरी जैसे बुनियादी अधिकारों के हनन का दावा करते हुए पत्रिका समूह ने उच्चतम न्यायालय में राज्य सरकार के खिलाफ एक याचिका दाखिल की है जिस पर अदालत ने सरकार से जवाब मांगा है
छत्तीसगढ़ में 23 से ज्यादा दैनिक अखबार हैं और दर्जन भर से ज्यादा समाचार चैनल. लेकिन राज्य में सिर्फ दो साल पुराने पत्रिका जैसे कुछ मुट्ठी भर संस्थान ही हैं जिन्होंने अपनी पत्रकारिता में एक निष्पक्षता बनाए रखी है. राज्य में चल रहे अखबारों और चैनलों की कमाई का सबसे बड़ा स्रोत सरकारी विज्ञापन ही है. राज्य के जनसंपर्क विभाग का वार्षिक बजट करीब 40 करोड़ रु है. इसलिए हैरानी की बात नहीं कि 2003 से यह विभाग रमन सिंह खुद संभाले हुए हैं.
सिर्फ खनन का लाइसेंस पाने के लिए फर्जी कंपनियां बना ली गईं और लाइसेंस मिलने के बाद ये कंपनियां सबसे ज्यादा कीमत लगाने वाले को बेच दी गईं
दैनिक भास्कर समूह के इशारे पर पुलिस ने इस मामले में 14 स्थानीय पत्रकारों के खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज की है. ये सभी अलग-अलग अखबारों से जुड़े हैं और इनमें से कोई भी दैनिक भास्कर का नहीं है. इन पत्रकारों पर तोड़फोड़ और अतिक्रमण का मामला दर्ज किया गया है. इन सभी पत्रकारों की खबरें बता रही थीं कि जमीन के प्रस्तावित अधिग्रहण से किस तरह बड़े पैमाने पर विस्थापन और आजीविका का नुकसान होगा. ऐसे ही एक पत्रकार नारायण बाइन कहते हैं, ‘अगर डीबी पावर जमीन अधिग्रहण कर लेती है तो 500 से भी ज्यादा परिवार बेघर होंगे और इसके अलावा करीब 600 किसानों की आजीविका छिन जाएगी.’ बाइन रायगढ़ से जोहार छत्तीसगढ़ नाम का एक अखबार निकालते हैं. राज्य का दूसरा सबसे बड़ा अखबार है हरिभूमि. इसका मालिकाना हक आर्यन कोल बेनीफिशिएशन नामक कंपनी के पास है. यह कंपनी एक कोल वाशरी (जहां कोयले को साफ करने का शुरुआती काम होता है), एक ट्रांसपोर्ट कंपनी और 30 मेगावॉट क्षमता वाला एक पावर प्लांट भी चलाती है. दूसरे अखबारों की कीमत जहां दो या तीन रु है वहीं सप्ताहांत को छोड़ दें तो हरिभूमि केवल एक रु में बिकता है. अखबार के दो संस्करण निकलते हैं. एक राजधानी रायपुर से और दूसरा बिलासपुर से.
आर्यन कोल बेनीफिशिएशन कंपनी पर कोल इंडिया लिमिटेड की आनुषंगिक कंपनी साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड, बिलासपुर से बढ़िया किस्म का कोयला चुराकर उसे बाजार में कोल इंडिया द्वारा खारिज कोयले के नाम पर बेचने का भी आरोप लग चुका है. माना जाता है कि इस चोरी के माध्यम से कंपनी ने हजारों करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया. इस मामले की कई बार जांच भी हुई लेकिन इनमें कभी भी पक्के सबूत नहीं जुटाए जा सके. बहुत-से लोग यह भी मानते हैं कि आर्यन ग्रुप द्वारा अखबार निकालने का मकसद ही यह था कि कंपनी के बढ़ते व्यावसायिक हितों की सुरक्षा हो सके. कंपनी के प्रमोटर एनडीए सरकार के पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. साहिब सिंह वर्मा के निकट संबंधी हैं. इस कंपनी की स्थापना ही सन 1999 में एनडीए के शासन काल में हुई और केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के समय कंपनी ने असाधारण तरक्की की. एक पत्र के जरिये राज्य सरकार ने 11 सितम्बर, 2007 को आर्यन ग्रुप को कोल ब्लॉक आवंटित करने की सिफारिश की थी. शायद इसी विशेष कृपादृष्टि का ही परिणाम है कि छत्तीसगढ़ में हरिभूमि और दैनिक भास्कर, जिनका सर्कुलेशन करीब चार लाख रोजाना है आज मुख्यमंत्री रमन सिंह के मुखपत्र कहलाने लगे हैं.
छत्तीसगढ़ सरकार और मीडिया के बीच का यह भद्दा गठजोड़ तो इस कहानी का सिर्फ एक पहलू है. आगे जो तथ्य सामने आएंगे वे साफ बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में सत्ता से पोषित भ्रष्टाचार किस हद तक पहुंच गया है. कम से कम तीन ऐसी कंपनियां हैं जिन्हें सारे संवैधानिक और स्थापित नियम-कानूनों का उल्लंघन कर लौह-अयस्क और कोल ब्लॉक आवंटित किए गए हैं और ये तीनों ही कंपनियां भाजपा नेताओं द्वारा सीधे-सीधे प्रमोट की जा रही हैं. राज्य में 70,000 एकड़ से भी ज्यादा खनिज-समृद्ध भूमि (जिसमें से अधिकतर घने जंगलों से ढकी है) निजी कंपनियों को दे दी गई है ताकि वे उनमें दबे खनिज का पता लगा सकें. इस काम के लिए किसी कंपनी को एक विशेष लाइसेंस दिया जाता है जिसे प्रॉस्पेक्टिंग लाइसेंस कहा जाता है. वित्तीय एवं तकनीकी क्षमता और खनन क्षेत्र में अनुभव नहीं रखने के बावजूद इन कंपनियों को यह काम दिया गया है.
ऑडिट करने वाले विभाग ने ध्यान नहीं दिया कि संचेती और उनकी सहयोगी कंपनी ने निविदा में जो मूल्य भरा वह बाजार भाव के हिसाब से काफी कम था
खनन का जो कानून है उसके हिसाब से प्रॉस्पेक्टिंग लाइसेंस का मतलब है लाइसेंस धारक को खनिजों पर मिलने वाली रियायतों पर विशेषाधिकार. दूसरे शब्दों में कहें तो यदि लाइसेंस धारक संभावित क्षेत्र में खनिज की खोज कर लेता है तो यह इस बात की गारंटी हो जाती है कि खनन का लाइसेंस भी उसे ही मिलेगा. इस कानून का मकसद यह है कि खनन क्षेत्र में निजी निवेश को आकर्षित किया जाए और खनिजों की खोज के लिए अत्याधुनिक तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ावा मिले. लेकिन रमन सिंह सरकार ने इस मूल भावना के साथ ही खिलवाड़ किया. राज्य में प्रॉस्पेक्टिंग लाइसेंस उन इलाकों के लिए दिए गए जिनके बारे में लगभग पक्का ही है कि वहां खनिज भंडार हैं. खेल यह हुआ कि सिर्फ लाइसेंस पाने के लिए कई फर्जी कंपनियां बना ली गईं और लाइसेंस मिलने के बाद ये कंपनियां सबसे ज्यादा कीमत लगाने वाले को बेच दी गईं.
ऐसी ही एक कंपनी के प्रमोटर सुरेश कोचर भी हैं. कोचर रमन सिंह के स्कूली दिनों के दोस्त हैं. रमन सिंह के मुख्यमंत्री बनने के एक साल बाद यानी 2004 में कोचर ने मां बंबलेश्वरी माइंस ऐंड इस्पात लिमिटेड नाम से एक कंपनी बनाई. बनने के दो दिन बाद ही कंपनी ने 661.08 हेक्टेयर क्षेत्र में लौह अयस्क खनन के प्रॉस्पेक्टिंग लाइसेंस हेतु आवेदन किया. यह क्षेत्र मुख्यमंत्री के विधान सभा क्षेत्र राजनांदगांव में पड़ता था. कंपनी के पास वित्तीय एवं तकनीकी योग्यता के नाम पर दिखाने को कुछ भी नहीं था. इसके बावजूद 11 जुलाई, 2005 को राज्य सरकार ने केंद्र को एक पत्र लिखा जिसमें इस कंपनी को कोयला ब्लॉक देने की सिफारिश की गई थी. तहलका को मिले साक्ष्य बताते हैं कि कंपनी को आधे दर्जन से ज्यादा आवेदनकर्ताओं पर तरजीह दी गई. इनमें से कुछ आवेदनकर्ताओं के पास तो विनिर्माण संबंधी सुविधाएं भी थीं जबकि कोचर की कंपनी का अस्तित्व सिर्फ कागजों पर था. इसके बावजूद उस पर विशेष कृपादृष्टि हुई. अगले पांच साल तक कंपनी ने कुछ भी नहीं किया और फिर 2008 में इस कंपनी को मोनेट इस्पात ऐंड एनर्जी को बेच दिया गया.
बिलासपुर के वकील सुदीप श्रीवास्तव कहते हैं, ‘बैलाडीला और अरिदोंगरी जैसे खनन क्षेत्रों को जिन्हें राज्य में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों ने माइनिंग लाइसेंस के तहत अपने पास रखा था, प्रॉस्पेक्टिंग लाइसेंस के जरिए निजी कंपनियों को दे दिया गया. इसी तरीके से राजनांदगांव के बोरिया-टिब्बू, हहलादी और कांकेर जिलों के ज्ञात खनन क्षेत्रों को भी निजी कंपनियों को दे दिया गया. यह सब कुछ सिर्फ सहमति पत्रों के आधार पर ही किया गया है.’ श्रीवास्तव ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की है. इसमें ऐसे दर्जनों सहमति पत्रों को चुनौती दी गई है. दरअसल जनवरी 2004 से 2010 के बीच सरकार ने लोहा, इस्पात, ऊर्जा और ऐसी दूसरी कई औद्योगिक इकाइयों के लिए 108 सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए हैं जिनमें खनिजों की जरूरत पड़ती है. इनमें से ज्यादातर सहमति पत्र उद्योगों में तब्दील नहीं हुए हैं. उदाहरण के लिए, सरकार ने एक संदिग्ध कंपनी अक्षय इन्वेस्टमेंट प्राइवेट लिमिटेड को 63 हेक्टेयर क्षेत्र में लौह अयस्क के लिए प्रॉस्पेक्टिंग लाइसेंस दे दिया. यही नहीं, सरकार ने इस कंपनी के लिए एक कैप्टिव कोल ब्लॉक की भी सिफारिश की, जो कोयला मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी द्वारा दे भी दिया गया. आवंटन के छह साल बाद भी कंपनी ने प्रस्तावित लौह और ऊर्जा संयंत्र नहीं लगाए हैं.
आरोप लग रहे हैं कि इन सहमति पत्रों के पीछे न कोई योजना थी और न कोई दूरदर्शिता. वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी कहते हैं, ‘जांजगीर जिला हमारे सबसे छोटे जिलों में से है, लेकिन धान और अन्य फसलों की अच्छी-खासी पैदावार होने के चलते यहां 90 प्रतिशत सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है. यह जिला राज्य में कृषि के लिए सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्र है. इस जिले में सरकार ने 30-35 से भी अधिक एमओयू किए हैं. सरकारी अधिकारियों ने ही मुझे बताया है कि यदि जिले में सारे प्रस्तावित पावर प्लांट बने तो सिंचाई के लिए बिल्कुल भी पानी नहीं बचेगा.’ अपेक्षित प्रगति न कर पाने के चलते सरकार द्वारा आज तक केवल 15 सहमति पत्र ही निरस्त किए गए हैं. लेकिन कई मामलों में ऐसा भी हुआ है कि सहमति पत्र तो निरस्त हो गया मगर सरकार ने प्रॉस्पेक्टिंग लाइसेंस वापस नहीं लिया. साल 2000 में जब छत्तीसगढ़ अलग राज्य बना था तो इसका सबसे बड़ा मकसद यह था कि यहां बहुमूल्य खनिजों का जो खजाना दबा हुआ है उसका इस्तेमाल देश के इस हिस्से की उपेक्षित और पिछड़ी आबादी के विकास के लिए होगा. आज भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद ने यहां न सिर्फ लोगों की उम्मीदों बल्कि लोकतंत्र का भी मजाक बना कर रख दिया है. प्रेस की आजादी पर सुनियोजित हमलों, जनांदोलनों के खिलाफ फर्जी मामलों और भ्रष्टाचार का विरोध करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न जैसी चीजें उसी सड़न से निकल रही हैं जो यहां खनन क्षेत्र में लग गई है.
साल 2003 से रमन सिंह मुख्यमंत्री होने के अलावा खनन, ऊर्जा, सामान्य प्रशासन और जनसंपर्क विभाग का प्रभार भी संभाले हुए हैं. जैसे कोयला आवंटन मामले में जिम्मेदारी प्रधानमंत्री की बनती है उसी तरह छत्तीसगढ़ में कोयला और लौह अयस्क भंडार के आवंटन के मामले में यही बात रमन सिंह पर भी लागू होती है. जब तहलका ने इन आरोपों पर रमन सिंह की प्रतिक्रिया लेने की कोशिश की तो उनके कार्यालय से जवाब आया कि मुख्यमंत्री इन आरोपों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देंगे.
भाजपा से राज्य सभा सांसद अजय संचेती की कंपनी एसएमएस को किस तरह एक कोयला ब्लॉक कौड़ियों के दाम आवंटित हुआ, इस पर काफी कुछ कहा जा चुका है. तहलका द्वारा जुटाई गई जानकारी बताती है कि संचेती की कंपनी को 25,000 करोड़ रुपये तक का फायदा पहुंचाया गया है. यह आवंटन छत्तीसगढ़ खनिज विकास निगम (सीएमडीसी) ने किया था जो राज्य खनिज विभाग के अंतर्गत आता है. छत्तीसगढ़ के महालेखाकार ने भी इसी साल अप्रैल में जारी अपनी रिपोर्ट में सरकारी खजाने को 1,052 करोड़ रुपये के घाटे का अनुमान लगाया था. भारतीय महालेखा और नियंत्रक (कैग) के तहत आने वाले इस विभाग ने यह अनुमान सरगुजा जिले में आसपास स्थित दो ब्लॉकों के तुलनात्मक विश्लेषण के बाद लगाया था. इन ब्लॉकों का आवंटन इस आधार पर किया गया था कि कंपनी को एक ब्लॉक 552 रुपये प्रति मीट्रिक टन पर मिलेगा और दूसरा ब्लॉक उसे 129.6 रुपये प्रति मीट्रिक टन पर दिया जाएगा. इस आवंटन का सबसे दिलचस्प पहलू है कि जिस दूसरे कोल ब्लॉक को कम कीमत पर आवंटित किया गया उसमें उस गुणवत्ता का कोयला है जिसे बहुत दुर्लभ और बेशकीमती माना जाता है.
अभी खबरों में यही कहा जा रहा है कि इससे सरकारी खजाने को 1,025 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. भाजपा अपना दामन पाक-साफ बताते हुए दावा कर रही है कि यह आवंटन प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी के आधार पर किया गया था. लेकिन तहलका को प्रतिस्पर्धी निविदा प्रक्रिया के मिले सभी दस्तावेज एक चौंकाने वाला खुलासा करते हैं. इनके मुताबिक दोनों ब्लॉकों में सुरक्षित कुल कोयले का भंडार आठ करोड़ टन है और इसमें बड़ा हिस्सा उच्च गुणवत्ता के कोयले का है. संचेती की एसएमएस और नागपुर की सोलर एक्सप्लोसिव्स लिमिटेड (सत्यनारायण नुवाल की यह कंपनी 2005 में एक कोल ब्लॉक खरीद के मामले में सीबीआई जांच के दायरे में है) ने यह कोल ब्लॉक हासिल करने के लिए एक संयुक्त उपक्रम बनाया था. इस उपक्रम को खनन करने और खुले बाजार में कोयला बेचने का अधिकार अगले 32 साल के लिए मिला है.
ऑडिट करने वाले विभाग ने ध्यान नहीं दिया कि संचेती और उनकी सहयोगी कंपनी ने निविदा में जो मूल्य भरा वह बाजार भाव के हिसाब से काफी कम था
निविदा प्रक्रिया 2008 में खत्म हुई थी. यदि संचेती और उनकी सहयोगी कंपनी आज पूरे कोयले को बेचें तो उनका मुनाफा 8,000 करोड़ रुपये से ऊपर बनेगा. लेकिन यह कोयला अगले 32 साल में बेचा जाना है. इस हिसाब से मुनाफा 20,000 से 25,000 करोड़ रुपये के बीच बैठेगा (दरअसल कोयले की कमी के साथ भविष्य में इसकी मांग और कीमत दोनों में बढ़ोतरी होगी). सरकारी ऑडिट में जिस नुकसान की बात की गई है उसका आकलन दोनों ब्लॉकों के आवंटन के लिए आई निविदाओं के आधार पर किया गया है. लेकिन ज्यादातर जानकारों और ऑडिट करने वाले विभाग ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि संचेती और उनकी सहयोगी कंपनी ने निविदा में जो मूल्य भरा था वह बाजार भाव के हिसाब से काफी कम था. दूसरे ब्लॉक के लिए तो यह असामान्य रूप से कम था. हालांकि इसी तथ्य के चलते यह घोटाला खुला भी.
तहलका के पास जो दस्तावेज हैं वे बताते हैं कि संचेती के संयुक्त उपक्रम को फायदा पहुंचाने के लिए पूरी निविदा प्रक्रिया को तोड़ा-मरोड़ा गया. सीएमडीसी ने इस प्रक्रिया के लिए नागपुर की एक कंसल्टेंसी फर्म एक्सिनो कैपिटल सर्विस लिमिटेड को नियुक्त किया था. लेकिन इस नियुक्ति में निविदा या कोई चयन प्रक्रिया नहीं अपनाई गई. इस फर्म ने निविदा प्रपत्र के लिए तकनीकी व वित्तीय शर्तें तैयार की थीं. इन शर्तों के आधार पर निविदाओं का मूल्यांकन और संयुक्त उपक्रम के लिए करारनामा भी इसी ने तैयार किया था. यहां संदेह पैदा करने वाला संयोग यह है कि निविदाकर्ता, संचेती के राजनीतिक संरक्षक भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी और कंसल्टेंसी फर्म, तीनों ही नागपुर के हैं. इन दस्तावेजों से यह भी पता चलता है कि एसएमएस ने निविदा हासिल करने के लिए संदिग्ध दस्तावेजों का सहारा लिया था. कंसल्टेंट ने एसएमएस के खनन क्षेत्र में अनुभव की कमी की न सिर्फ उपेक्षा की बल्कि उसे कोल ब्लॉक हासिल करने में मदद भी की. निविदाओं के लिए कोई सुरक्षित निधि भी तय नहीं की गई थी.
सवाल यह भी उठता है कि आखिर अपनी ही खदानों से कोयला निकालने के लिए सीएमडीसी को निजी कंपनियों की क्या जरूरत आन पड़ी थी. दोनों ब्लॉक खुली खदानें हैं. इसका मतलब यह है कि इनसे कोयला निकालने के लिए न तो बहुत खर्च की जरूरत थी और न बहुत ही उन्नत तकनीक की. दूसरा सवाल यह है कि आखिर सीएमडीसी खनन किए और और बेचे गए कुल कोयले से हुए मुनाफे का सिर्फ 51 फीसदी हिस्सा लेने या इतने कम दामों पर कोल ब्लॉक देने के लिए राजी क्यों हुआ. सीएमडीसी के मुखिया गौरी शंकर अग्रवाल हैं. तहलका से बातचीत में वे पक्षपात के तमाम आरोपों को खारिज करते हैं. उनके मुताबिक सभी निविदाओं के आवंटन में पूरी पारदर्शिता बरती गई है. तहलका ने एसएमएस और सोलर एक्सप्लोसिव्स दोनों कंपनियों से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उनकी तरफ से हमें इस मुद्दे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. भ्रष्टाचार का सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता. आगे आने वाला उदाहरण तो रमन सिंह द्वारा लिए गए सबसे सनसनीखेज निर्णयों में से एक है. 215 हेक्टेयर इलाके के लिए एक माइनिंग लीज और कांकेर जिले में 700 हेक्टेयर से भी ज्यादा इलाके के लिए प्रॉस्पेक्टिंग लाइसेंस देने के लिए उनकी सरकार ने रिकॉर्डों में हेरफेर किया, कानूनी प्रावधानों की उपेक्षा की और अपने ही विभाग के नियमों को तोड़ा-मरोड़ा.
जून 2004 की बात है. दिल्ली के कुंडेवालान में एक दुकान चलाने वाले दो भाइयों ने ‘पुष्प स्टील ऐंड माइनिंग प्राइवेट लिमिटेड’ नामक एक कंपनी शुरू की. संजय और अतुल जैन नामक इन बंधुओं की कंपनी की पेड अप कैपिटल (शेयर बेचकर जुटाई गई रकम) मात्र 2.25 लाख रु थी. ठीक उसी दिन, पुष्प स्टील ने छत्तीसगढ़ की एक लोहे की खदान के एक प्रॉस्पेक्टिंग लाइसेंस के लिए आवेदन भी कर दिया. सात जनवरी, 2005 को रमन सिंह की सरकार ने इस कंपनी के साथ एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए. इस समझौते के अनुसार कंपनी ने 380 करोड़ के कुल निवेश का वादा किया था. हैरानी स्वाभाविक है कि कैसे कोई सरकार कुल जमा सवा दो लाख रु की कंपनी के साथ 380 करोड़ रु का समझौता कर सकती है. लेकिन आगे होने वाली घटनाओं से यह साफ हो गया कि यह एक बड़ी साजिश के तहत किया जा रहा था.
सहमति पत्र के हिसाब से प्रोजेक्ट की लागत तीन हिस्सों में बांटी गई थी :
• लोहे का कारखाना – 80 करोड़ रु
• ऊर्जा संयंत्र – 75 करोड़ रु
• कंप्लाएंट पार्ट्स – 225 करोड़ रु
यानी 380 करोड़ के निवेश का सबसे बड़ा हिस्सा न लोहे के कारखाने के लिए था और न ही ऊर्जा सयंत्र के लिए. बल्कि 225 करोड़ की रकम सिर्फ कम प्रदूषण करने वाले कुछ मशीनी हिस्सों को बनाने जैसे अजीब मदों के लिए जारी की गई थी. जाहिर है, यह इस परियोजना के लिए मिले बड़े अनुदान को न्यायसंगत दिखाने के लिए किया गया था. सहमति पत्र के मुताबिक समझौता पारित होने के दो साल के भीतर प्रोजेक्ट पर काम शुरू होना था. दुर्ग जिले के बोराई औद्योगिक क्षेत्र में 12 हेक्टेयर जमीन भी इस प्रोजेक्ट के लिए जारी कर दी गई. लेकिन प्रोजेक्ट का काम आज तक शुरू नहीं हुआ है.
पांच मई, 2005 को छत्तीसगढ़ सरकार ने एक आदेश जारी किया. इसमें उसने हहलादी लौह अयस्क भंडार की 215 हेक्टेयर जमीन खनन के लिए लीज पर देने की सिफारिश की. सहमति पत्र के हिसाब से प्रस्तावित लोहे के कारखाने की वार्षिक क्षमता तीन लाख 15 हजार टन प्रति वर्ष थी. लेकिन कंपनी को इतना बड़ा इलाका देने के निर्णय को न्यायसंगत दिखाने के लिए सरकार ने अपने आदेश में यह सीमा अपने आप ही बढ़ाकर चार लाख टन प्रति वर्ष कर दी. साथ ही कंपनी द्वारा बनाए जाने वाले अंतिम उत्पाद को भी लोहे से बदल कर ‘इंटीग्रेटेड स्टील’ कर दिया गया क्योंकि स्टील यानी इस्पात के उत्पादन में ज्यादा लौह अयस्क की जरूरत होती है. इसी आदेश के जरिए सरकार ने कंपनी को 705.33 हेक्टेयर इलाके के लिए प्रॉस्पेक्टिव लाइसेंस जारी करने की भी सिफारिश की. यह आदेश राज्य में खनन मंत्रालय का प्रभार खुद संभाल रहे मुख्यमंत्री रमन सिंह के अनुमोदन के बाद ही जारी किए गए थे.
उसी क्षेत्र में प्रॉस्पेक्टिव लाइसेंस के लिए आवेदन करने वाली एक प्रतिस्पर्धी कंपनी ने सरकार के इस मनमाने आवंटन के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. हाई कोर्ट ने 705.33 हेक्टेयर में से 354 हेक्टेयर जमीन के प्रॉस्पेक्टिव लाइसेंस को खारिज कर दिया. पुष्प स्टील ने निर्णय के खिलाफ खंडपीठ में अपील दायर की. मामले में अंतिम निर्णय आना बाकी है. जिस तरीके से ये फैसले लिए गए उसे देखते हुए इस मामले की आपराधिक जांच होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नतीजा यह है कि दो लाख रु की एक अदनी-सी कंपनी आज हजारों करोड़ रु के खनिज भंडार पर कब्जा जमाए बैठी है. तहलका से बातचीत में कंपनी के डायरेक्टर अतुल जैन इन सभी आरोपों को खारिज करते हैं. जैन कहते हैं, ‘हमारी कंपनी मान्यता प्राप्त और प्रतिष्ठित है. रायपुर में हमारा कारखाना चल रहा है और हम जल्दी ही आगे विस्तार भी करने वाले हैं. हमारा ग्रुप स्टील के व्यवसाय में पिछले 25 साल से है. आप जो भी आरोप लगा रहे हैं वे पूरी तरह निराधार और गलत हैं.’
यह कहानी बताती है कि राजनीति व पूंजीपतियों के गठजोड़ और प्राकृतिक संसाधनों की लूट की जिस सबसे बड़ी समस्या से आज देश जूझ रहा है उसके लिए भाजपा भी उतनी ही जिम्मेदार है जितनी कांग्रेस. कांग्रेस के पास नवीन जिंदल हंै तो भाजपा के पास अजय संचेती. कांग्रेस के पास ‘लोकमत’ है तो भाजपा के पास ‘हरिभूमि.’ कोयले के मसले पर तो केंद्र और राज्य दोनों ही दोषी नजर आते हैं, लेकिन कोयले से इतर दूसरे प्राकृतिक संसाधनों के मसले पर असली भ्रष्टाचार राज्यों के स्तर पर हो रहा है. और इस तरह से देखें तो कर्नाटक से लेकर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक भाजपा के हाथ भी भ्रष्टाचार की कालिख से उतने ही रंगे नजर आते हैं जितने कांग्रेस के.
करीबियों पर कृपा
- प्रकाश इंडस्ट्रीज के कर्ता-धर्ता वेद प्रकाश अग्रवाल हैं. वे जय प्रकाश अग्रवाल के भाई हैं जो सूर्या फाउंडेशन चलाते हैं. सूर्या फाउंडेशन भाजपा समर्थित एनजीओ है जो पार्टी के लिए चुनाव सर्वेक्षण करता है. 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले भी इसने भाजपा के लिए एक चुनावी सर्वे किया था. छत्तीसगढ़ सरकार की सिफारिश पर कोयला मंत्रालय ने प्रकाश इंडस्ट्रीज को कोयले के चार ब्लॉक आवंटित किए. इनमें 10 करोड़ टन से भी ज्यादा उच्च गुणवत्तायुक्त कोयले का भंडार बताया जाता है. निर्धारित सीमा से ज्यादा कोयला निकालने और उसकी कालाबाजारी करने के लिए सीबीआई ने कंपनी पर 2010 में छापा मारा था. कंपनी पर जालसाजी और अधिकारियों को रिश्वत देने के भी आरोप हैं. कंपनी को रमन सिंह सरकार की सिफारिश पर कोयले के दो और ब्लॉक आवंटित होने वाले थे कि तभी उस पर सीबीआई का छापा पड़ गया. इसके बाद कोयला मंत्रालय ने ये दो ब्लॉक तो आवंटित नहीं किए मगर जो चार ब्लॉक इसे पहले ही आवंटित हो चुके हैं वे अब भी इसके पास हैं.
- एक संयुक्त उपक्रम, जिसमें भाजपा से राज्य सभा सांसद अजय संचेती की 24.99 फीसदी हिस्सेदारी है, को राज्य में दो कोल ब्लॉक आवंटित हुए हैं. इनमें आठ करोड़ टन से भी ज्यादा कोयले का भंडार है. लीज की अवधि 32 साल है और इस दौरान इस संयुक्त उपक्रम को 25 हजार करोड़ रु का अनुचित फायदा होगा. संचेती को भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी का करीबी माना जाता है. संयुक्त उपक्रम की साझेदार कंपनी सोलर एक्सप्लोसिव्स ने अपनी वेबसाइट पर इन कोयला ब्लॉकों को खजाना करार दिया है.
- नवभारत ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज के प्रमोटर वीके सिंह हैं जिनकी पत्नी नीना सिंह छत्तीसगढ़ के राजिम से 1998 में भाजपा के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ चुकी हैं. 2008 में राज्य सरकार ने इस समूह की एक कंपनी नवभारत फ्यूज के लिए लौह अयस्क का एक ब्लॉक आवंटित करने की सिफारिश की. यह ब्लॉक 220 हेक्टेयर का था. कंपनी पहले से ही लोहे का एक कारखाना चला रही थी और लौह अयस्क के ब्लॉक के लिए सिफारिश इस वादे पर की गई कि यह अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाएगी. 2009 में सरकार ने समूह की एक और कंपनी नवभारत कोल फील्ड्स को 36 करोड़ टन कोयला भंडार वाला एक कोल ब्लॉक देने की भी सिफारिश की. आरोप लग रहे हैं कि कंपनी ने अपनी उत्पादन क्षमता के बारे में गलत आंकड़े पेश किए ताकि आवंटन को न्यायसंगत ठहराया जा सके. बताया जाता है कि ब्लॉक मिलने के बाद कंपनी ने अपनी 74 फीसदी हिस्सेदारी 300 करोड़ रु में सोलर एक्सप्लोसिव्स नामक कंपनी को बेच दी. यही कंपनी भटगांव कोल ब्लॉक घोटाले के केंद्र में है.