लुप्त हो रहा पंजाब का इनले हस्तशिल्प

पंजाब के होशियारपुर में इनले हस्तशिल्प की कभी धूम हुआ करती थी। इसकी प्रसिद्धि का आलम यह था कि विदेशों में भी इसकी ख़ूब माँग थी। लेकिन समय के साथ होशियारपुर की यह कला हस्तशिल्प (हैंडीक्राफ्ट) सूची से ही बाहर होकर महज़ चित्रकौशल (ड्राइंग क्राफ्ट) की सूची में पहुँच गयी है या कहें कि डाल दी गयी है। इन दिनों होशियारपुर में इसका कितना काम है? बता रही हैं आशा अर्पित :-

पंजाब के ज़िला होशियारपुर का डब्बी बाज़ार कभी लकड़ी पर हाथी दाँत की कारीगरी के लिए देश-विदेश में ख़ूब मशहूर था। बच्चों के लकड़ी के खिलौनों से लेकर हाथी दाँत की नक़्क़ाशी से बने चकला-बेलन, चाय की ट्रे, फोटो फ्रेम, शीशा फ्रेम आदि से लेकर भारी फर्नीचर तक देश विदेश में निर्यात किया जाता था। लेकिन आज स्थिति यह है कि डब्बी बाज़ार में इस हैंडीक्राफ्ट की कुछ ही दुकानें बची हैं। यह पच्चीकारी यानी इनले होशियारपुर के हस्तशिल्प (हैंडीक्राफ्ट्स) की सूची से अब ग़ायब होने के कगार पर है।

हाथी दाँत पर बैन लगने से पुराने कुशल कारीगरों के अभाव में और नयी पीढ़ी के आगे न आने के कारण इनले क्राफ्ट सरकारी स्तर पर डाइंग क्राफ्ट की सूची में डाल दिया गया है। हालाँकि हक़ीक़त यह है कि आज भी पंजाबी एनआरआई बच्चों के लिए लकड़ी के खिलौनों की माँग करते हैं। कई देशों में इनले क्राफ्ट आज भी पसन्द किया जाता है और लोग ख़रीदते भी हैं, ऐसा इनले हैंडीक्राफ्ट के स्थानीय कुशल शिल्पकार मानते हैं।

राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त शहर के कुशल शिल्पी रूपन मठारू को इस हस्तशिल्प में काम करते हुए 40 वर्ष हो चुके हैं। मठारू ने बताया कि हमारे समय में 5,000 से लेकर 6,000 तक कारीगर थे, जो आज की तारीख़ में 70 के क़रीब रह गये हैं। यह काम काफ़ी मेहनत वाला है। इसलिए नयी पीढ़ी के बच्चे और युवक इसमें रुचि नहीं ले रहे और पढ़े-लिखे युवक यह काम करना नहीं चाहते। वे सरकारी नौकरी चाहते हैं। रूपन का कहना है कि पच्चीकारी यानी इनले क्राफ्ट बढ़ईगीरी (कारपेंटरी) से मिलता-जुलता है।

बढ़ईगीरी में युवक दो-तीन महीने में काम सीख लेता है और जिसके साथ काम सीखता है, वह उसे दो या तीन हज़ार रुपये दिहाड़ी दे देता है। लेकिन इस क्राफ्ट में उत्पाद महँगा होता है। हस्तशिल्प का काम कम होने की बड़ी वजह यह भी है कि इसको लेकर राज्य सरकार की तरफ़ से कोई सहयोग नहीं मिलता है।

पहले स्टेट अवॉर्ड मिलता था; लेकिन वर्ष 1991 से वह भी बन्द हो गया। सम्मान (अवॉर्ड) से शिल्पकारों को बड़ा उत्साह मिलता था। वस्त्र मंत्रालय की तरफ़ से 60 वर्ष से ऊपर की उम्र वाले शिल्पकार को पेंशन की सुविधा भी दी गयी है; लेकिन यह उसी को मिलती थी, जिसे स्टेट अवॉर्ड मिला हुआ हो। शहर में ऐसे चार शिल्पकार हैं, जिन्हें पेंशन मिलती है। इस हस्तशिल्प के शिल्पकारों की आज ऐसी हालत है कि कोई रेहड़ी लगा रहा है, तो कोई पेंट का काम कर रहा है; क्योंकि उन्हें इस काम में पैसे नहीं मिले।

रूपम मठारू आगे बताते हैं कि पहले दो तरह से काम होता था। शिल्पी अपने घर में काम करता था, उसका अपना यूनिट होता था और कच्चा माल भी वह अपना ही लेता था। इसके बाद वह उत्पाद (प्रोडक्ट) बनाकर बेच देता था। दूसरे तरीक़े से शिल्पकार किसी दुकान से कच्चा माल लेकर और प्रोडक्ट बनाकर दुकानदार को ही दे देता था। इसके बदले में जितने पैसे मिलते थे, ले लेता था। अब ये दोनों काम बन्द हो गये हैं। दुकानदारों ने कारीगर को अपने पास रख लिये। रोज़ाना 300 रुपये की दिहाड़ी पर; जो वर्षों से वही चली आ रही है। इसलिए वे घर का गुज़ारा कैसे करेंगे? बच्चों को क्यों इस काम में लाएँगे। बल्कि एक आम मज़दूर को भी अब 500 रुपये दिहाड़ी मिलती है।

नयी पीढ़ी के कारीगर कमलजीत

इस हस्तशिल्प में कई पुरस्कार प्राप्त कर चुके शिल्पी रूपम मठारू के पुत्र कमलजीत छठी पीढ़ी का काम आगे बढ़ा रहे हैं। परिवार में काम होता देखकर और स्कूल से आने के बाद पिता की मदद करते हुए उनकी पच्चीकारी यानी इनले क्राफ्ट में रुचि पैदा हो गयी। पिता को पुरस्कार मिलते देख उन्होंने 12वीं के बाद पूरा समय इस काम को देना शुरू कर दिया। वर्ष 2009 में उसे भी नेशनल मेरिट अवॉर्ड मिला, उस टेबल पर जो उन्होंने अपने पिता और पुरहीरा गाँव के कुशल शिल्पी बलदेव किशन की मदद से बनाया था।

कमलजीत का कहना है कि इस पुरस्कार ने उसका हौसला बढ़ाया और आगे का उनका रास्ता खुल गया। कमलजीत दावे के साथ कहते हैं कि यह हस्तशिल्प व्यक्ति को करोड़पति बना सकता है; अगर मेहनत, कौशल के साथ-साथ उच्च शिक्षा भी हासिल कर ली जाए। उन्होंने बताया कि इस हस्तशिल्प की विदेशों में आज भी अच्छी माँग है। लेकिन इस काम में सिर्फ़ वे ही बच्चे आते हैं, जो पढ़े-लिखे नहीं हैं। समस्या यह है कि वे नये डिजाइन नहीं बना सकते, विपणन (मार्केटिंग) नहीं कर सकते। युवा कमलजीत  तीन बार सरकारी ख़र्च पर विदेश गये और उनके हस्तशिल्प उत्पादों की अच्छी बिक्री भी हुई।

कमलजीत ने बताया कि उसकी 12वीं तक की पढ़ाई वहाँ काम नहीं आयी। बर्मिंघम (यूके) में उसका सामान तो बिक रहा था, पर उसे अंग्रेजी में बात करनी नहीं आती थी। साओ पौलो (ब्राजील) में पहले ही दिन ऑर्डर मिल गया था। उसके उत्पाद के दाम भी भारत से चार गुना ज़्यादा थे; लेकिन फिर भी वहाँ के लोगों ने उसी क़ीमत पर प्रोडक्ट ख़रीदे, कोई सौदेबाज़ी नहीं की। वैसे इस बार वह अंग्रेजी सीख कर गये थे, उन्हें ग्राहक से संवाद करने में दिक़्क़त पेश नहीं आयी।

कैसे हो कायाकल्प?

पंजाब के ज़िला होशियारपुर की विरासत की पहचान इनले क्राफ्ट का कायाकल्प करने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास करने पर ज़ोर दिया जाना चाहिए। मार्केटिंग के साथ-साथ बच्चों में ख़ासकर नयी पीढ़ी के युवकों में इस शिल्प (क्राफ्ट) के प्रति रुझान पैदा करने के लिए इनोवेशन के साथ गुणवत्ता वाला प्रशिक्षण कार्यशाला (ट्रेनिंग वर्कशॉप) आयोजित की जानी चाहिए। भारी फर्नीचर की बजाय रोज़ाना काम में आने वाली चीज़े तैयार की जानी चाहिए।

रूपम का कहना है कि इस हस्तशिल्प में बनाये जाने वाले बनावट (डिजाइन) और रचना (मोटिफ) बदले जाएँ। इनले के लिए बोन यानी हड्डी की बजाय सिल्वर, ताँबा, पीतल आदि धातुओं का उपयोग भी किया जा सकता है, जो प्रोडक्ट को अलग लुक दे सकता है। लेजर कटिंग और सीएमसी मशीनें सरकारी स्तर पर मुहैया करायी जानी चाहिए; क्योंकि लेजर कटिंग की मशीन चार से पाँच लाख तक और सीएमसी मशीनों की क़ीमत 40 से 45 लाख तक है, जो कि एक आम कारीगर या  शिल्पकार वहन नहीं कर सकता।

वह कहते हैं कि सरकारी स्तर पर ये मशीनें ऐसी जगह लगायी जाएँ, जहाँ से आसपास के शिल्पी आकर सामूहिक रूप से अपना काम कर सकें। इसके अलावा इस क्राफ्ट की अच्छी मार्केटिंग भी बहुत ज़रूरी है। भारी फर्नीचर की बजाय छोटे-छोटे आइटम तैयार होने चाहिए, जैसे- चाय की ट्रे, पेन बॉक्स, फोटो फ्रेम, मोबाइल स्टैंड, शीशा फ्रेम आदि।

 

कई बार सम्मानित हो चुके हैं रूपम

वर्ष 1989 में स्टेट अवार्ड, वर्ष 1994 में नेशनल मेरिट अवार्ड, 1997 में नेशनल अवार्ड और वर्ष 2016 में शिल्प गुरु सम्मान पाने वाले शिल्पकार रूपम मठारू मेहनत से अपने काम को आगे बढ़ाते रहे हैं। उनके मुताबिक, लेटिन अमेरिका, नॉर्थ अमेरिका, ब्राजील, पेरू और अर्जेंटीना जैसे देशों में इनले हैंडीक्राफ्ट की आज भी ख़ूब माँग है।