पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी के रवैये से परेशान कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश के चुनावों से काफी उम्मीदें लगा रखी थीं. लेकिन देश के सबसे बड़े प्रदेश के चुनावी नतीजों ने देश की सबसे पुरानी पार्टी और केंद्र सरकार के लिए सबसे मुश्किल वाले दिनों की शुरुआत कर दी है. जब नतीजे आए तो देश की राजनीति को जानने-समझने वाले कई लोगों की पहली प्रतिक्रिया थी कि अब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन वाली केंद्र सरकार महीनों और सालों की बजाय हफ्तों के हिसाब से चलने वाली बन गई है. हर तरफ मनमोहन सिंह की सरकार की उम्र को लेकर सवाल उठाए जाने लगे. हालत यह हो गई कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को बाहर आकर यह कहना पड़ा कि संप्रग को कोई खतरा नहीं है. इसके बाद कांग्रेस नेता जयंती नटराजन ने भी सोनिया की हां में हां मिलाते हुए यही बात दोहराई.
हालांकि, कांग्रेस प्रमुख और अन्य कांग्रेसी नेता जो कह रहे हैं उसे सच्चाई से मुंह छिपाने के तौर पर देखा जा रहा है क्योंकि अगर सब कुछ ठीक होता तो सोनिया गांधी के बयान के अगले ही दिन केंद्रीय रेल मंत्री और तृणमूल के प्रमुख नेता दिनेश त्रिवेदी इंडियन एक्सप्रेस को यह नहीं कहते कि वे चाहते हैं कि लोकसभा चुनाव जल्दी हो जाएं क्योंकि ऐसा होने पर तृणमूल की सीटों में बढ़ोतरी होगी. बाद में जब कांग्रेस की तरफ से हो-हल्ला मचा तो त्रिवेदी ने यह कहकर सुलगती चिंगारी पर थोड़ी-सी राख डालने की कोशिश की कि यह उनकी निजी राय है. मगर उनके मंत्रालय के अधिकारियों का मानना है कि त्रिवेदी ऐसे नेता नहीं हैं जो सोचे-समझे बिना ऐसा बयान दे दें. कुछ ही दिन पहले राहुल गांधी से मिलने उनके घर चले जाने की वजह से त्रिवेदी को ममता के गुस्से का शिकार होना पड़ा था. रेल मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि इस घटना के बाद तो इस बात की संभावना और भी कम हो जाती है कि त्रिवेदी इतना बड़ा बयान बगैर ममता की हरी झंडी के दे दें. इनका कहना है कि मंत्रालय में त्रिवेदी की पहचान ‘दस्तखत मंत्री’ की है और यह इसलिए बनी है कि उन्हें फैसले की मंजूरी कोलकाता से लेनी होती है.
इसका मतलब यह निकलता है कि आने वाले दिनों में तृणमूल का रवैया आक्रामक रहेगा और ऐसे में केंद्र सरकार के लिए कोई भी बड़ा फैसला लेना आसान नहीं होगा. तृणमूल के अलावा और भी क्षेत्रीय पार्टियां हैं जो लोकसभा चुनावों के लिए 2014 तक का इंतजार नहीं करना चाहती हैं. इनमें जयललिता की एआईएडीएमके, प्रकाश सिंह बादल की शिरोमणि अकाली दल और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी शामिल हैं. ये सभी अपने-अपने राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिली सफलता से उत्साहित हैं और इन्हें उम्मीद है कि यदि लोकसभा चुनाव जल्दी होते हैं तो इनकी सीटें बढ़ेंगी.
भाजपा की ओर से लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने चुनाव परिणाम के दिन ही यह संकेत दिया था कि देश में आम चुनाव हो सकते हैं. लेकिन पार्टी सूत्रों की मानें तो जल्दी चुनाव के मसले पर भाजपा दो धड़ों में बंटी है. एक धड़ा वह है जो लालकृष्ण आडवाणी के साथ है. ये लोग और खुद आडवाणी भी चाहते हैं कि जल्दी चुनाव हो जाएं. अगर चुनाव जल्दी होते हैं तो आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने का अपना सपना पूरा करने का एक मौका और मिल सकता है. वहीं एक दूसरा धड़ा ऐसा नहीं चाहता है. इसे लगता है कि संप्रग की सरकार जितने दिन और चलेगी उतनी ही ज्यादा इसकी फजीहत होने वाली है. इसके बाद जो चुनाव होंगे उनमें भाजपा और उसके घटक दलों को कहीं अधिक फायदा मिलेगा.
अब मनमोहन सिंह सरकार का भविष्य पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस का राजनीतिक प्रबंधन कैसा रहता है
कांग्रेस और संप्रग सरकार की मुश्किलें कम होती इसलिए भी नहीं लग रही हैं कि तमाम क्षेत्रीय पार्टियां एक नया राजनीतिक विकल्प खड़ा करने की कोशिश में जुट गई हैं. इसके केंद्र में उड़ीसा के मुख्यमंत्री और बीजू जनता दल के प्रमुख नवीन पटनायक हैं. वे अभी न संप्रग में हैं और न ही भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में. उनका साथ आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और तेलगूदेशम पार्टी के प्रमुख चंद्रबाबू नायडू दे रहे हैं. इस कोशिश को ममता बनर्जी और जयललिता का साथ तो मिल ही रहा है, खबर यह भी है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख व केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार भी इस नए विकल्प को खड़ा करने में गुपचुप सहयोग दे रहे हैं. उत्तर प्रदेश के चुनावों में बेहद मजबूती के साथ उभरे मुलायम सिंह यादव और पंजाब में दोबारा जीतकर वापस सत्ता में लौटे प्रकाश सिंह बादल को भी इससे जोड़ने की कोशिश चल रही है. ममता को शपथ ग्रहण समारोह के लिए बादल और मुलायम द्वारा भेजे गए निमंत्रण को नए राजनीतिक समीकरणों से जोड़कर देखा जा रहा है.
हालांकि, कहा जा रहा है कि नीतीश, बादल और पवार जैसे लोग चुनाव से पहले ऐसे किसी विकल्प में खुले तौर पर शामिल होने से बचेंगे लेकिन चुनाव बाद ये पास आ सकते हैं. इस विकल्प की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें प्रधानमंत्री पद के कई दावेदार हैं और कांग्रेस यह सोचकर संतुष्ट हो सकती है कि यही टकराव नए विकल्प के बिखराव की वजह बन सकता है.
नीतियों के स्तर पर बड़े फेरबदल की तैयारी मनमोहन सिंह यह सोचकर कर रहे थे कि उत्तर प्रदेश चुनावों के बाद राज्य में कांग्रेस के समर्थन से समाजवादी पार्टी की सरकार बनेगी जो केंद्र में उन्हें तृणमूल की धमकियों से मुक्ति दिलाएगी. इसी आत्मविश्वास में प्रधानमंत्री ने यह भी कहा था कि चुनावों के बाद वे फिर खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को मंजूरी दिलाने की कोशिश करेंगे. लेकिन नतीजों ने प्रधानमंत्री के मंसूबे पर पानी फेर दिया.
अब केंद्र सरकार को दिए जा रहे मुलायम सिंह के समर्थन को हल्के में नहीं लिया जा सकता है, इसलिए तृणमूल पर केंद्र सरकार की निर्भरता और बढ़ गई है. हालांकि, लालू प्रसाद यादव की बेटी की शादी के मौके पर सोनिया और मुलायम की मौजूदगी को कई जानकार कांग्रेस द्वारा सपा को और करीब लाने की कोशिश के तौर पर देख रहे हैं.
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘नीतियों के स्तर पर जो ठहराव इस सरकार में आ गया है उसे तोड़ना अब मनमोहन सिंह के लिए बहुत मुश्किल है क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियों को मिली मजबूती से साफ है कि वे राष्ट्रीय पार्टियों के साथ अपनी शर्तों पर काम करेंगी.’ वरिष्ठ पत्रकार और गठबंधन राजनीति पर चर्चित किताब ‘डिवाइडेड वी स्टैंड’ लिखने वाले परंजय गुहा ठाकुरता कहते हैं, ‘अब कई उन नीतियों पर भी क्षेत्रीय दल अड़ंगा लगाएंगे जिनको लेकर ऊपरी तौर पर एक सहमति दिख रही थी. इन दलों को यह पता है कि केंद्र सरकार की जितनी अधिक फजीहत होगी चुनावों में उन्हें उतना अधिक फायदा होगा. लोकसभा और राज्यसभा में कांग्रेस की कमजोर स्थिति का फायदा ये दल हर मोड़ पर उठाने की कोशिश करेंगे.’
क्षेत्रीय पार्टियों के आक्रामक रवैये के बीच जब भी मनमोहन सिंह सरकार किसी महत्वपूर्ण विधेयक को संसद से पारित करवाना चाहेगी तो उसे विपक्ष का साथ अनिवार्य तौर पर चाहिए होगा. जिस दिन चुनावी नतीजे आ रहे थे उसी दिन राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने कह दिया था कि अब संप्रग सरकार विपक्ष के सहयोग के बिना न तो राष्ट्रपति का चुनाव करा सकती है और न ही कोई बड़ा नीतिगत फैसला ले सकती है. संसद के बजट सत्र में ही महत्वपूर्ण 30 विधेयक आने हैं. अभी के सियासी समीकरण में अब विपक्ष के पास यह ताकत आ गई है कि वह किस विधेयक को आगे बढ़ने दे और किसे रोक दे. खाद्य सुरक्षा, लोकपाल और जमीन अधिग्रहण समेत कई ऐसे विधेयक हैं जिन्हें पारित करवाकर कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव की अपनी तैयारियों को मजबूती देना चाहती है. लेकिन इन चुनावी नतीजों के बाद के समीकरण ने देश की सबसे पुरानी पार्टी को इतना लाचार बना दिया है कि उसे अब हर कदम पर विपक्ष की बैसाखी का भी आसरा चाहिए. भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन राजग ने 2जी मामले पर केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम का संसद के अंदर का बहिष्कार खत्म करके कांग्रेस को एक तात्कालिक राहत तो दी है लेकिन जो सियासी समीकरण अभी उभरते दिख रहे हैं उनमें यह कहना मुश्किल है कि विपक्ष द्वारा संप्रग सरकार का सहयोग कितने दिनों तक जारी रहने वाला है.
इन सबके बीच ॔निरजा चौधरी यह मानती हैं कि अगर कांग्रेस अब भी अच्छे राजनीतिक प्रबंधन का परिचय दे तो यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर सकती है. ‘मायावती राज्य की सत्ता से बाहर हो गई हैं. वैसे वे पहले से भी केंद्र सरकार का समर्थन कर रही हैं लेकिन अगर कांग्रेस के लोग चाहें तो उनके साथ ऐसा संबंध विकसित कर सकते हैं कि नीतिगत मसलों पर वे कांग्रेस का साथ दें. मायावती के लिए भी यह जरूरी है कि अगर वे राज्य की सत्ता से बाहर हो गई हैं तो केंद्र की सत्ता से थोड़ी नजदीकी बढ़ाएं’ चौधरी कहती हैं, ‘अब मनमोहन सिंह सरकार का भविष्य पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस का राजनीतिक प्रबंधन कैसा रहता है.’
कांग्रेस के राजनीतिक प्रबंधन का सबसे बड़ा इम्तहान होने जा रहा है राष्ट्रपति चुनाव में. विधायकों और सांसदों के वोटों के आधार पर होने वाले इन चुनावों में जीत के लिए जरूरी वोट कांग्रेस और संप्रग के पास नहीं हैं. मार्च के आखिरी दिनों में राज्यसभा की जिन 58 सीटों के लिए चुनाव होना है उनमें कांग्रेस की सीटें घट रही हैं तो केंद्र सरकार के लिए खतरा बने तृणमूल और सपा की सीटें बढ़ रही हैं. ऐसे में प्रतिभा पाटिल की तरह अपनी पसंद का राष्ट्रपति नियुक्त करना कांग्रेस के लिए असंभव सरीखा है. इस चुनाव के कुल 10.98 लाख वोटों में से कांग्रेस के पास महज 30.7 फीसदी वोट हैं. इनमें संप्रग के सहयोगी दलों को जोड़ें तो यह आंकड़ा 40 फीसदी के पास पहुंचता है. यानी कांग्रेस को कोई ऐसा उम्मीदवार तलाशना होगा जिस पर आम सहमति बने या फिर जिसका विरोध करना राजनीतिक तौर पर आसान नहीं हो. इसके तुरंत बाद उपराष्ट्रपति चुनाव होना है जिसमें लोकसभा और राज्यसभा के सांसद भाग लेते हैं. इसमें एक बार फिर कांग्रेस को अपने सारे दांव आजमाने पड़ सकते हैं.